लेख
18-Mar-2023
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महत्‍वकांक्षा और सम्राज्‍यवादी मोहपाश के समक्ष ईश्‍वरीय अवधारणायें गौण हो जाती हैं, यूक्रेन-रूस युद्ध इसकी ज्‍वलंत मिसाल है। इसकी तुष्टि से उत्‍पन्‍न द्वंद ने न्‍याय, समता और अपरिग्रह(न्‍यूनतम साधन) के दर्शन को अर्थहीन बना दिया है। क्षणभंगुर इहलोक में भौतिक कामनाओं के तोषण का महत्‍व जानते हुए भी हम प्रत्‍येक घटना, दायित्‍व, समस्‍या और संकट के समाधान के लिए ईश्‍वरीय सत्‍ता की उपेक्षा करते आ रहे हैं। सम्राज्‍यवाद शब्‍द मूलत: युद्ध से गर्भित है, जिसकी जड़ों में त्रासद व्‍यथा है। प्राण, भूख, परिवार और धन के लिए संघर्षरत निरीह लोगों की दारुण चीखों से कुन्‍द होती मानवीय संवेदनाओं के सुर्ख इतिहास के पन्‍ने अब स्‍याह हो चुके हैं। ऐसे में अग्निवीरों की श्रृंखलाबद्ध परंपरायें मण्‍टो की संवेदनात्‍मक ‘ठण्‍डा गोश्‍त’ को जीवन्‍त कर पायेंगी? मख़दूम मुहिउद्दीन की नज़्म .....जाने वाले सिपाही से पूछो, वो कहाँ जा रहा है? ...बताती है कि जंग में मरने वाले सिर्फ़ एक सिपाही नहीं, बल्कि किसी का पति, पिता, पुत्र, भाई और एक समाज का अंग होता है। अस्‍त्र आधारित अर्थव्‍यवस्‍था पर आश्रित देश और युद्ध का जश्न मनाने वाले लोग मानवीयता की नैतिक जिम्‍मेदारियों को दरकिनार कर देते हैं। उत्‍तर भारत के हरियाणा(कुरुक्षेत्र) स्थित भगवान कार्तिकेय के एक मंदिर में उन्‍हें कंकाल स्‍वरूप में पूजा जाता है। ज्‍योतिषशास्‍त्र में उन्‍हें मंगल ग्रह से जोड़ा गया है जो मुर्गा अंकित ध्‍वज के साथ मोर पर सवार भाला धारण किये हुए आक्रामकता से संबंधित हैं। वे युद्ध के देवता हैं इसलिए शायद स्त्रियों को उनके दर्शन से वंचित रखा गया है। क्‍योंकि वे उनके पति-पुत्रों को युद्धोन्‍मुखी कर वीरगति में परिणत करते हैं। इससे क्रोधित देवी से शापग्रस्‍त कार्तिकेय को अपने उन अंगों से वंचित होना पड़ता है जो उन्‍होंने माता(स्‍त्री) से पाया था। वस्‍तुत: करुणा और वात्‍सल्‍य से पोषित गर्भस्‍थ भ्रूण का अस्तित्‍व तरल(रक्‍त) और नरम(मांसपेशियों) से है। महत्‍वकांक्षा का संबंध इन्द्रिय कामनाओं से है, जिसकी अति हमारे अवचेतन को कुंद कर संघर्षोन्‍मुखी बनाती है। जब मुसलमान कहें कि शैतान हमला करता है, तो वह मन है। ईसाई कहें कि डेविल, बीलझेबब हमला करता है, तो वह मन है। हिंदू कहें कि इच्‍छायें हमला करती हैं तो वह कामरूपी मन ही है। जब शिव को काम ने पीड़ित किया, तो उन्होंने तीसरे नेत्र से उसे कपूर की तरह नष्‍ट कर दिया। तीसरे नेत्र का अर्थ है- अंतर्दृष्टि । जब तक वह बंद(सुप्‍तावस्‍था) है, तभी तक काम का प्रभाव है। उसके खुलते ही काम का प्रभाव समाप्त हो गया। क्‍योंकि वह अनंग हैं अर्थात उनकी कोई देह नहीं, यही तो मन है। बौद्धों में यही काम मार कहलाया। यह काम का ही बौद्ध नाम है । तपश्चर्या के चरम बिन्‍दु पर बुद्ध को परास्‍त करने के लिए मार ने चैतरफा प्रहार किये। क्योंकि तीसरा नेत्र खुलने से पूर्व विजय के लिए हर संभव प्रयास वांछित था। फिर भी उसे मार खानी पड़ी अर्थात पराजय स्‍वीकारना पड़ी (अगर वह विजयी होता तो सिर्फ इसीलिए कि तुम्‍हारा अंतस जाग्रत नही हुआ) । तब मार ने बुद्ध को वश में करने के लिए अपनी तीन कन्याओं को भेजा। कहा जाता है कि प्रत्येक आत्‍मा पुरुष और स्त्री के साम्‍य गुण से युक्‍त है। यहॉं बुद्ध का पुरुष गुण स्त्री गुण के मुकाबले बड़ा है। क्‍योंकि अहंकार, क्रोध, मद, मत्सर, मोह जैसे मायाजालों से आच्‍छादित पौरुष गुण के कारण समर्पण कठिन होता है। इसलिए सर्वप्रथम मार स्वयं पुरुष द्वार से आकर उन्‍हें प्रभावित करने के लिए उन पर समस्‍त अस्‍त्र छोड़ दिये, लेकिन बुद्ध अडिग रहे। जब कोई व्‍यक्ति ऐसी अवस्था को प्राप्‍त हो तो, उसे पराजित करने के लिए स्त्रैण उपाय खोजे जाते हैं। जैसे घर में तन्‍वंगी स्त्री से नेपोलियन, सिकंदर समान योद्धा पराजित हो जाते हैं। तीन का तात्‍पर्य - एक से जीते तो दूसरे से संघर्ष मुश्किल, दूसरे से जीते तो तीसरे से। इस प्रकार यह एक तरफा नहीं बल्कि तीन तरफा संघर्ष होगा। वैवाहिक जीवन में हमने स्त्री से झगड़ा करते हुए महसूस किया कि यदि तर्क से पराजय स्‍वीकार न किया तो वह क्रोध करेगी और अन्‍तत: वह रोने लगेगी। अर्थात हम तीन तरफ से घिर जाते हैं। तर्क से हारें तो ठीक, क्रोध से हारें तो ठीक, अन्‍यथा उसके रोने पर तो पराजय निश्चित है। इसलिए मार ने अपनी तीन कन्याओं को भेजा। यस्स जित नावजीयति जितमस्स नौ याति कोचि लोके । तं बुद्धमनंतगोचर अपदं केन पदेन नेस्सथ ।। यस्स जालिनी विसत्तिका तन्हा नत्थि कुहिन्चि नेतवे । त बुद्धमनंतगोचरं अपद केन पदेन नेस्मथ ।। अर्थात् जिसका विजय अस्‍वीकार्य नहीं, जहॉं अन्‍य नहीं पहुंच सकता, अपने जाल में सबको फंसाने वाली तृष्णा जिसे नहीं डिगा सकती उस अनंतद्रष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे? बुद्ध उन कन्‍याओं से कहते हैं कि जब तृष्णा का जाल था, अगर तब आयी होतीं तो मैं अवश्‍य प्रभावित होता। लेकिन जब मेरी पारदर्शी दृष्टि अनंतरूपेण समग्र को प्राप्‍त हो चुकी हैं और मैंने देख लिया कि संसार में कुछ नहीं है। ...तं बुद्धमनतगोचरं…….जिन नेत्रों में मूर्च्छा और प्रमादरोधी तिनका न रहा, ऐसे में मुझे न ले जा सकोगी।‘ मौजूदा अवसरवाद से उत्‍पन्‍न टकराव और संघर्ष के परिप्रेक्ष्‍य में जगत को शिव के अंतरमुखी नेत्र और बुद्ध की समग्रदृष्टि का अनुकरण कल्‍याणकारी होगा। ईएमएस / 18 मार्च 23