लेख
19-Jul-2025
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हम एक ऐसे दौर में हैं जहाँ हमारा संवाद अब सिर्फ़ आवाज़ नहीं, बल्कि डेटा है. अपराध दीवारों के भीतर नहीं, बल्कि स्क्रीन के पीछे हो रहे हैं. और न्याय अब सिर्फ़ अदालत की चारदीवारी तक सीमित नहीं, बल्कि डिजिटल दुनिया के विशाल आकाश में भी ढूँढा जा रहा है. इस तेज़ी से बदलते परिदृश्य में, भारत की अदालतें सिर्फ़ इंसाफ़ नहीं कर रही हैं; वे हमारे संविधान, आधुनिक तकनीक और मानवाधिकारों के बीच एक नाज़ुक संतुलन बनाने की अहम भूमिका निभा रही हैं. जुलाई 2025 के शुरुआती पंद्रह दिनों में, भारत की तीन प्रमुख अदालतों से ऐसे प्रामाणिक न्यायिक फ़ैसले सामने आए हैं जो साइबर अपराध, सूचना की गोपनीयता और न्याय की गति जैसे महत्वपूर्ण सवालों से जूझते हैं. ये फ़ैसले न केवल भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और निजता का अधिकार) और अनुच्छेद 22 (निवारक निरुद्धि) की गहन व्याख्या करते हैं, बल्कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (IT Act, 2000) की धाराओं और भारतीय दंड संहिता (IPC) की आधुनिक तकनीकी व्याख्या को भी सामने लाते हैं. इन फ़ैसलों का सीधा असर आपके डिजिटल जीवन पर भी पड़ेगा. दिल्ली हाईकोर्ट का फ़ैसला: जब भ्रष्टाचार से टकराती है निजता Aakash Deep Chouhan v. CBI, 2025 SCC OnLine Del 4152 मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण बात साफ़ की है. यदि किसी लोकसेवक के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार की जाँच हो रही हो और संवाद ही अपराध का माध्यम हो, तो भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 की धारा 5(2) के अंतर्गत की गई फ़ोन कॉल की इंटरसेप्शन (रिकॉर्डिंग) न्यायसंगत, ज़रूरी और आनुपातिक हो सकती है. यह फ़ैसला जस्टिस के.एस. पुट्टास्वामी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, (2017) 10 SCC 1 में दिए गए आनुपातिकता परीक्षण पर आधारित था. अदालत ने यह स्वीकार किया कि याचिकाकर्ता का निजता का अधिकार संरक्षित है, लेकिन जब कोई सरकारी कर्मचारी सार्वजनिक धन का दुरुपयोग करता है, तब उस निजता को सार्वजनिक जवाबदेही के सामने थोड़ा झुकना पड़ता है. दिल्ली हाईकोर्ट का यह फ़ैसला दिखाता है कि कैसे सार्वजनिक हित में कुछ निजी जानकारी को उजागर करना ज़रूरी हो सकता है, लेकिन हमेशा एक तय सीमा और समझदारी के साथ. सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला: जब साइबर अपराधी बन जाते हैं ख़तरा वहीं, In Re: Preventive Detention and Cyber Crime (Tamil Nadu), 2025 SCC OnLine SC 722 में सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत साइबर अपराधियों की निवारक निरुद्धि (preventive detention) को वैध ठहराया. राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 की धारा 3(1) के तहत राज्य सरकार ने ऐसे व्यक्तियों को हिरासत में लिया था जो बार-बार डिजिटल ठगी, बैंक धोखाधड़ी और UPI फ्रॉड में शामिल पाए गए थे. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि साइबर अपराध अब सिर्फ़ धोखाधड़ी नहीं रहे, वे सामाजिक अस्थिरता और आर्थिक आतंकवाद के औजार बन चुके हैं. इस संदर्भ में, अदालत ने Union of India v. Arvind Shergill, (2011) 7 SCC 745 का भी ज़िक्र किया और कहा कि यदि अपराधी बार-बार अपराध कर रहा हो और उसके ख़िलाफ़ पर्याप्त शुरुआती सबूत हों, तो निवारक निरुद्धि संविधान की मूल भावना के खिलाफ नहीं है. यह फ़ैसला एक कड़ा संदेश देता है कि गंभीर साइबर अपराधों से निपटने के लिए सख्त कदम उठाना जरूरी है. आपके लिए इसका अर्थ यह है कि जहाँ एक तरफ़ आम नागरिकों को साइबर ठगी से ज़्यादा सुरक्षा मिलेगी, वहीं दूसरी तरफ़ बार-बार अपराध करने वाले साइबर अपराधियों के लिए निजता के अधिकार की सीमाएँ निर्धारित होंगी. अब अपराधियों के लिए क़ानून की पकड़ से बचना मुश्किल होगा. इलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला: न्याय की गति, तकनीक की रफ़्तार से हो तेज़ तीसरी ओर, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने State of U.P. v. Ritesh Sharma, 2025 SCC OnLine All 312 में साइबर अपराध मामलों में न्यायिक प्रक्रिया की गति को लेकर एक ऐतिहासिक आदेश पारित किया. यह मामला एक ऐसे अभियुक्त से संबंधित था जो सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 66C, 66E और IPC की धारा 354D (Stalking) के अंतर्गत अभियुक्त था. अदालत ने देखा कि ऐसे गंभीर मामलों में वर्षों तक ट्रायल लंबित रहना, पीड़ितों के अधिकारों का सीधा उल्लंघन है. न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि हर ज़िले में साइबर अपराध के मामलों हेतु विशेष फ़ास्ट ट्रैक न्यायालय गठित किए जाएँ और इनका निपटारा 6 महीने के भीतर हो. यह निर्देश सिर्फ़ प्रशासनिक नहीं था, बल्कि उन पीड़ितों की पीड़ा का न्यायिक प्रत्युत्तर था, जो डिजिटल दुनिया में ब्लैकमेलिंग और उत्पीड़न का शिकार होते हैं. यह फ़ैसला आपके लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि ऑनलाइन उत्पीड़न, ब्लैकमेलिंग और धोखाधड़ी जैसे मामलों में आपको तेज़ी से न्याय मिल सकेगा. पहले ऐसे मामलों में सालों लग जाते थे, जिससे पीड़ितों को मानसिक और भावनात्मक रूप से काफ़ी परेशानी होती थी. अब इन मामलों का निपटारा जल्द होने से पीड़ितों को राहत मिलेगी और अपराधियों को भी जल्द सज़ा मिल पाएगी. न्याय का नया चेहरा: संविधान और तकनीक का तालमेल इन तीनों फ़ैसलों में एक साझा चेतना स्पष्ट दिखती है— कि न्याय अब स्थिर नहीं, बल्कि गतिशील है; कि अधिकार अब शून्य में नहीं, बल्कि तकनीकी यथार्थ में पनपते हैं; और कि संविधान अब केवल किताबों में नहीं, बल्कि स्क्रीन और सर्वर में भी साँस लेता है. यह वह समय है जब धारा केवल क़ानून की नहीं, बल्कि समय की भी बन चुकी है. और अदालतें इस समय की गति, तकनीक की चुनौती और मनुष्य के अधिकार को एक साथ साधने की कोशिश कर रही हैं. जब दिल्ली हाईकोर्ट कहता है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए कुछ निजता त्यागनी पड़े, तो वह सिर्फ़ क़ानून नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी की भावना से बोलता है. जब सुप्रीम कोर्ट मानता है कि साइबर अपराधियों को रोकने के लिए कठोर उपाय ज़रूरी हैं, तो वह सिर्फ़ सुरक्षा नहीं, बल्कि भविष्य की संरचना की बात करता है. और जब इलाहाबाद हाईकोर्ट कहता है कि न्याय तेज़ होना चाहिए, तो वह सिर्फ़ प्रक्रिया नहीं, बल्कि पीड़ा का उत्तर बनता है. यह न्याय की एक नई व्याख्या है— जिसमें संविधान की आत्मा, तकनीक की नब्ज़ से संवाद करती है. यह वह समय है जब धारा केवल क़ानून की नहीं, समय की भी बन चुकी है. और न्याय अब केवल फ़ैसले का नाम नहीं, बल्कि प्रक्रिया, विवेक और सार्वजनिक विश्वास का पर्याय है. इन न्यायिक व्याख्याओं ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत का न्याय तंत्र साइबर युग के जटिल प्रश्नों से न केवल परिचित है, बल्कि उनके उत्तर खोजने के लिए संवेदनशील, सतर्क और संवैधानिक दृष्टि से जागरूक भी है. यह वह न्याय है जो केवल सज़ा नहीं देता, वह संदर्भ भी बनाता है; जो केवल व्याख्या नहीं करता, वह व्यास की तरह समवेत दृष्टि से सोचता है. कुल मिलाकर, ये फैसले डिजिटल दुनिया में अपराध और न्याय के बीच एक नया संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं. वे बताते हैं कि जहाँ निजता और स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है, वहीं समाज की सुरक्षा और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना भी उतना ही जरूरी है. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साइबर विधि के अध्येता हैं।) ईएमएस/19/07/2025