लेख
19-Jul-2025
...


भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में शायद यह पहला अवसर है। जब एक हाईकोर्ट के न्यायाधीश, जस्टिस यशवंत वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट और न्याय की कार्यप्रणाली को असंवैधानिक बता दिया है। वह शीर्ष अदालत से न्याय मांगने पहुंचे हैं। यह मामला जितना कानूनी है, उतना ही संस्थागत, नैतिक और संवैधानिक संकट को भी दर्शाता है। संविधान प्रदत न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र की विश्वसनीयता और मूल सिंद्धान्त पर भी एक प्रश्न चिन्ह है। जस्टिस वर्मा के दिल्ली आवास पर “जली हुई नकदी” कांड के बाद गंभीर सवाल खड़े है। सुप्रीम कोर्ट की इन हाउस कमेटी की जांच में उनके खिलाफ ठोस आरोप सामने आए। उनके आवास से नकदी मिलना, असामान्य व्यवहार, सबूतों को लेकर सवाल और जांच में जस्टिस वर्मा का सहयोग नही करने का उल्लेख है। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन सीजेआई संजीव खन्ना ने उन्हें जज के पद से हटाने की सिफारिश की थी। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने वर्मा को इस्तीफा देने का मौका दिया था। वर्मा ने पेशकश नहीं मानी उन्होंने अंतिम दांव चलते हुए खुद सुप्रीम कोर्ट में इन हाउस जांच प्रक्रिया को असंवैधानिक घोषित करने की याचिका सुप्रीम कोर्ट में पेश की है। एक हाईकोर्ट जज ही न्यायपालिका की प्रक्रिया पर भरोसा नहीं कर रहा है। फिर आम आदमी न्यायपालिका से क्या उम्मीद करे? वर्मा का कहना है, संसद के अनुच्छेद 124 और 218 के अंतर्गत ही न्यायाधीशों को पद से हटाने की शक्ति निहित है। सुप्रीम कोर्ट की इन हाउस जांच असंवैधानिक है। उन्होंने न्याय प्रक्रिया के मूल सिद्धांत, प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन करने का आरोप जांच करने वाले न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीश पर लगाया है। सवाल यह है, क्या यह एक दोषी व्यक्ति के बचाव की रणनीति है, या वाकई संवैधानिक बहस की ज़रूरत? क्या जस्टिस वर्मा के खिलाफ कोई साजिश रची गई है। उस साजिश के तहत यह सब किया जा रहा है। यदि वर्मा दोषी हैं, तो उन्हें कठोरतम सज़ा मिलनी ही चाहिए। यदि न्यायपालिका की प्रक्रिया में खामियां हैं, तो उनमे बहस और सुधार जरूरी है। बर्मा ने अपनी याचिका में जिस तरह के तथ्य रखे हैं। अपराध की जिस तरह से जांच होनी चाहिए। उन नियमों का पालन उनके आरोपों पर नहीं किया गया है। यह भी स्पष्ट रूप से याचिका मे प्रदर्शित हो रहा है। यह मामला सिर्फ वर्मा बनाम सुप्रीम कोर्ट का नहीं है। न्यायपालिका की आंतरिक पारदर्शिता, संविधान के प्रति जवाबदेही तथा नागरिक के मौलिक अधिकारों से संबंधित है। संविधान सम्मत न्यायपालिका विधायका और कार्यपालिका की भी अग्निपरीक्षा है। देश देख रहा है, क्या सुप्रीम कोर्ट न्यायपालिका को निष्पक्ष न्याय का प्रतीक बनाकर रख पायेगा। या न्यायपालिका की साख को संस्थागत घेरे में चुप्पी साध कर इस मामले को रफा दफा करने का प्रयास करेगा। पिछले एक दशक में न्यायपालिका जिस दबाव में कार्य कर रही है। न्यायपालिका की कार्यवाही सुझाव और फैसला भी आए दिन चर्चाओं में बने रहते हैं। पिछले एक दशक में सरकार के प्रति न्यायपालिका का झुकाव यह साबित करता है। न्यायपालिका के ऊपर वह भरोसा आम आदमियों को नहीं रहा, जो न्यायपालिका को लेकर 2014 के पहले था। सरकार भी जब बार-बार यह कहती है, सरकार से सहमत नहीं हो तो कोर्ट चले जाओ। पिछले एक दशक में जिस तरह की कार्यवाही न्यायपालिका की होनी चाहिए थी। वह नहीं हुई। न्यायपालिका से सरकार को समय-समय पर संरक्षण मिलता रहा है। जस्टिस लोया जैसे मामले में भी न्यायपालिका ने जिस तरह से फैसला किया। उसके बाद यह माना जाने लगा न्यायपालिका के ऊपर यह सरकार का दबाव है। पिछले एक दशक में कॉलेजियम की अनुशंसाओं पर सरकार ने जिस तरह का पलीता लगाया है। वह भी जग जाहिर है। सरकार अब न्यायपालिका को शायद अपने अधीनस्थ मानकर चल रही है। सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा एवं अन्य कारण बताकर बंद लिफाफे में जानकारी सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में दे रही है। सरकार की जांच एजेंसियों द्वारा असंवैधानिक रूप से जो कार्यवाही की गई है। उस पर भी न्यायपालिका लंबे समय तक चुप्पी साध कर रखती है। जस्टिस वर्मा वाले मामले में भी अभी तक यह उजागर नहीं हुआ है, कि उनके यहां जले हुए नोट कितने थे, वह नोट कहां से आए थे, उसके संबंध में फायर ब्रिगेड और दिल्ली पुलिस ने सारी जानकारी एकत्रित क्यों नहीं की। जिसके कारण जस्टिस वर्मा को यह कहने का मौका मिल रहा है, कि उन्हें फसाया गया है। उनके खिलाफ यह एक साजिश है। जांच प्रक्रिया का पालन सही तरीके से नहीं किया गया। हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के ऊपर जिस तरह से उन्होंने संवैधानिक एवं कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं करने का तथ्य अपनी याचिका में पेश किया है। उससे न्यायपालिका की साख पर प्रश्न चिन्ह लगा है। जैसे वर्मा ने अपने बचाव के लिए जिस तरह से न्यायपालिका और सरकार के बीच का संघर्ष उजागर किया है। इसमें फैसला कुछ भी हो, भारत की न्यायिक परंपरा या तो मजबूत होगी, या और कमजोर होगी। जिस तरह की स्थितियां वर्तमान में देखने को मिल रही हैं। उसमें बार-बार विपक्ष संविधान को खत्म करने जैसी बात कर रहा है। न्यायपालिका की कमजोरी का लाभ, सरकार और कार्यपालिका उठा रही है। आम लोगों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।न्यायपालिका और संविधान के प्रति लोगों का विश्वास डिग गया है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। जस्टिस वर्मा की याचिका के मंथन से अमृत निकलेगा या विष निकलेगा। इसके लिए समय का इंतजार करना ही पड़ेगा। समय के साथ सारी चीजों में परिवर्तन आता है, स्थायी कुछ भी नहीं है। ईएमएस / 19 जुलाई 25