लेख
08-Oct-2025
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देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था सुप्रीम कोर्ट में हाल ही में हुई एक अप्रत्याशित घटना ने देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बी.आर. गवई के समक्ष पेश एक वकील, डॉ. राकेश किशोर ने विष्णु भगवान को लेकर गवई द्वारा की गई टिप्पणी के विरोध स्वरूप जूता दिखाया। इस घटना के बाद आरोपी के जो इंटरव्यू सामने आ रहे हैं उसमें वह कह रहा है, कि उसने परमात्मा के आदेश से यह सब किया है। वह किसी किस्म के नशे में नहीं था। सनातनियों का जो विरोध चीफ जस्टिस द्वारा किया जा रहा था, उससे वह नाराज था और यह सब उसने परमात्मा के कहने से किया है। इस बयान की देश में बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई है। इस घटना के बाद से देश मे गहन बहस छिड़ गई है। क्या असहमति जताने का यह तरीका उचित है। वह भी एक वकील का जिसे मालूम है, यदि कोई ऐसी बात हुई है जो कानून के खिलाफ है तो उसके लिए वह अदालत में ही जाकर अपनी लड़ाई लड़ सकता है, लेकिन यह वकील बिना पढ़े-लिखे गवारों जैसा यदि व्यवहार करता है ऐसी स्थिति में इसे माफ तो नहीं किया जा सकता है। वकील राकेश किशोर को अपने किये का पश्चाताप भी नहीं है। वह इसको परमात्मा के नाम पर जायज ठहरा रहा है। इस आरोपी वकील के खिलाफ दिल्ली पुलिस में कई शिकायतें की गई हैं। कतिपय संरक्षण होने के बाद इस पर कार्यवाही नहीं हुई। धर्म के नाम पर इसी तरह के आतंक फैलाने का आरोप है। इस घटना के बाद दलित संगठन भी विरोध में जगह-जगह आंदोलन कर रहे हैं। आम आदमी पार्टी ने भी जूते की माला लेकर उसके आवास पर प्रदर्शन किया। वकील राकेश किशोर का तर्क है, यह कोई व्यक्तिगत विरोध नहीं था। यह एक “दैवीय आदेश” का पालन था। उसने दावा किया कि परमात्मा ने उनसे यह कदम उठवाया है, वह स्वयं “साक्षी” थे। उसका कहना है, चीफ जस्टिस के कुछ कथनों से उसे गहरी पीड़ा हुई, विशेषकर तब जब एक धार्मिक प्रतिमा से जुड़े मामले में अदालत ने याचिकाकर्ता का उपहास उडाया। साथ ही सीजेआई द्वारा मॉरीशस दौरे के दौरान दिए गए ‘देश बुलडोज़र से नहीं चलेगा’ वाले बयान से वह व्यथित था। उसका मानना है कि मुख्य न्यायाधीश “राज्य के अधिकारों में हस्तक्षेप” कर रहे हैं। सवाल यह है, क्या किसी संवैधानिक संस्था में, विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट जैसी प्रतिष्ठित जगह पर, सुप्रीम कोर्ट के वकील का इस तरह का व्यवहार स्वीकार्य हो सकता है? अदालतें विचार-विमर्श का मंच हैं, अदालतें आक्रोश का मंच नहीं हैं। यदि किसी नागरिक या अधिवक्ता को न्यायपालिका के रुख से असहमति है, तो उसके पास अपील और पुनर्विचार के कानूनी अधिकार मौजूद हैं। लोकतंत्र में असहमति व्यक्त करने का अधिकार है। परंतु मर्यादा और संवैधानिक मर्यादा का पालन सभी के लिए अनिवार्य है। बार काउंसिल द्वारा डॉ. किशोर के निलंबन का निर्णय इस बात का संकेत है, पेशेवर आचार संहिता को गंभीरता से लिया जाएगा। वहीं डॉ. किशोर का यह कहना कि उन्हें बिना सुनवाई के दंडित किया गया है। जिस तरह से इस घटना के बाद वह मीडिया में इंटरव्यू दे रहे हैं। वह न्यायिक प्रक्रिया के साथ-साथ यह भी बता रहा है कि उन्हें इस घटना के बाद कोई पश्चाताप नहीं है। उन्हें यह भी फिक्र नहीं है कि उन पर कोई कार्रवाई हो सकती है। बार काउंसिल ने जो कार्रवाई आनन-फानन में की है। उसमें उसे पता है, जब मामला ठंडा हो जाएगा और वह अपना जवाब देगा तब उसके ऊपर से प्रतिबंध भी समाप्त हो जाएगा। यह आत्मविश्वास उसे कहां से मिल रहा है यह आसानी के साथ समझा जा सकता है। इस पूरे प्रकरण ने एक गंभीर विमर्श को जन्म दिया है। कुछ समय पहले एक साक्षात्कार में पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि उन्होंने राम मंदिर का फैसला परमात्मा से पूछ कर दिया था। क्या धार्मिक भावनाओं और परमात्मा की आड़ लेकर संवैधानिक अधिकारों और न्यायपालिका के अधिकारों को बाधित किए जाने का एक नया दौर शुरू हो गया है। सनातन की रक्षा के नाम पर न्यायालय और संविधान की गरिमा को ठेस पहुंचाना परमात्मा के नाम पर उचित माना जा सकता है? न्यायपालिका पर भरोसा और सम्मान लोकतंत्र की रीढ़ है। आलोचना जरूरी है। उसका स्वरूप विवेकपूर्ण और विधिसम्मत होना चाहिए। सच्चा मनुष्य धर्म वह है, जो संयम सिखाए। संविधान में दिए गए सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार समान हैं। न्यायालय की जिम्मेदारी है कि वह सभी धर्म और सभी नागरिकों के साथ एक सा न्याय करे। सच्चा न्याय वही है, जो संविधान की सीमाओं में रहकर सबको समान रूप से मिले। सुप्रीम कोर्ट में जूता दिखाना, एक मानसिक बीमारी हो सकती है, “दैवीय आदेश” नहीं हो सकता है। यह लोकतांत्रिक मर्यादा का उल्लंघन है। यह घटना इसलिए भी माफी योग्य नहीं है, कि इसे एक सीनियर वकील द्वारा सब कुछ जानते-बूझते अंजाम दिया गया। उसने पुरी की पूरी न्यायपालिका तथा मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई के मान-सम्मान पर सीधा हमला किया है। इसके लिए जितनी कड़ी से कड़ी सजा हो वह दी जानी चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो यह स्वीकार करने में अब कोई संदेह नहीं है, कि भारत में अब भीड़-तंत्र का कानून चलेगा। संविधान और लोकतंत्र का अस्तित्व इस भीड़-तंत्र में बनाए रखना किसी के लिए संभव नहीं होगा। एक-एक करके सारी संस्थाओं को कमजोर किया जा चुका है। जो थोड़ी-मोड़ी साख सुप्रीम कोर्ट की बची थी, इस घटना के बाद वह भी खत्म होने की कगार पर है। घटना के बाद जिस तरह से आरोपी परमात्मा का सहारा लेकर अपने आप को सर्वश्रेष्ठ बताने की कोशिश कर रहा है। ऐसी स्थिति में यदि उसे कडा दंड नहीं दिया गया, तो ऐसी स्थिति में भारत के संविधान और लोकतंत्र को सुरक्षित रख पाना संभव नहीं होगा। वर्तमान में यह मानते हुए सच स्वीकार करने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। एसजे/ 8‎ अक्टूबर/2025