सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर आसीन होने वाले न्यायमूर्ति श्री सूर्यकांत ने अपने शपथ ग्रहण के बाद ये बात कही कि मैं तुम्हें कोर्ट में देख लूंगा ये भरोसा रखना न्यायपालिका की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने जो बात कही वो भारत के लाखों करोड़ों नागरिकों के मन की बात है क्योंकि आज भी एक आम आदमी जो हर तरफ से निराश हो जाता है तब उसकी एक मात्र आशा होती है न्यायालय यानी कोर्ट। संविधान में तीन स्तंभ माने गए हैं न्यायपालिका, विधायिका, और कार्यपालिका, मीडिया को भी एक चौथे स्तंभ के रूप में देखा जाता है जो पीड़ितों की बात उसके माध्यम से सरकारों तक या न्यायालय तक पहुंचने में सहयोग करती है।भारत में न्यायपालिका पर अटूट विश्वास का एक सबसे बड़ा कारण ये है कि देश की न्यायपालिका ने अनेक ऐसे निर्णय दिए है जिससे आम आदमी को इस बात की पूरी आशा बंधी कि चाहे सरकार हो, कार्यपालिका हो,वो भले ही उस पर कितना भी अन्याय कर ले लेकिन जब वो न्यायपालिका के दरवाजे पर जाएगा तो उसे निश्चित रूप से न्याय मिल सकेगा। मुख्य न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने एक साक्षात्कार में ये बात कही कि कोर्ट आने वाले व्यक्ति का भरोसा न्यायपालिका पर बना रहे इसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी न्यायपालिका की है जिसे उसे पूरी गंभीरता से निभाना होगा । दरअसल सरकारों और अफसरों से न्याय ना मिल पाने के कारण हाईकोर्टों और सुप्रीम कोर्ट में मामलों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है इसके पीछे कारण यही है कि सरकार और अफसरशाही पीड़ित को न्याय से वंचित कर देती है और तब उसे न्यायालय का दरवाजा खटखटाना ही पड़ता है। देश के किसी भी प्रदेश का हाईकोर्ट हो या फिर देश का सुप्रीम कोर्ट ही क्यों न हो लगभग सत्तर फीसदी मामले सरकार के खिलाफ या सरकार से जुड़े हुए होते हैं, यदि कार्यपालिका अपने कर्तव्यों का बेहतर ढंग से पालन करने लगे तो न्यायालयों में आने वाले मामलों का बोझ तो हल्का होगा ही साथ ही पीड़ित व्यक्ति को न्याय वहीं से मिल जाएगा जहां से उसे न्याय मिलना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य जनक तथ्य ये है कि अफसर शाही और सरकारें अपने स्तर पर न्याय नहीं करती और तब न्याय पाने के लिए न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक देना पीड़ित की मजबूरी बन जाता है शायद यही कारण है कि न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है इस समस्या को कम करने के तमाम प्रयासों के बावजूद, भारत का सर्वोच्च न्यायालय लंबित मामलों के अभूतपूर्व स्तर का सामना कर रहा है। हालांकि भारत में जुडिशरी में पेंडेंसी का एक पहलु और भी है, भारतीय न्याय व्यवस्था और भारत का संविधान अपने हर नगरिक को सर्वोच्च न्यायलय तक पहुंचने का अधिकार प्रदान करता है फिर चाहे वो 100-200 करोड़ का कोई अनुबंध विवाद हो या कोई संवैधानिक मामला हो या फिर चाहे वो किसी छोटे से मुक़दमे से जुडी कोई जमानत ही क्यों न हो, सर्वोच्च न्यायालय हर उस मुक़दमे उतनी ही गंभीरता से सुनता है और हर पक्षकार को सुनवाई का मौका देता है. भारतीय न्याय व्यस्वस्था दूसरे देशो की न्याय व्यवस्था से भी काफी अलग है, जैसे अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट साल में लगभग 70 दिन सिटिंग करता है वही ऑस्ट्रेलिया का सुप्रीम कोर्ट लगभग 100 दिन, जबकि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय एक साल में लगभग 190 से भी ज़ादा दिन सिटिंग करते हुए मामलों में सुनवाई करता है. भारतीय सर्वोच्च न्यायालय दुनिया के चुनिंदा कोर्ट में से है जो साल भर में लगभग 28 हज़ार से ज़ादा मुकदमों में सुनवाई करता है वहीं अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट मात्र 5 से 7 हज़ार मुक़दमो में सुनवाई करता है. यही सब कारण मिलकर हमारी जुडिशरी में पेंडेंसी का काऱण बनते है । एक जानकारी के मुताबिक 2024 में आए रिकॉर्ड के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में कुल लंबित मामलों की संख्या 88 417 थी जिसमें सिविल मामले 69,553 आपराधिक मामले और 18,864 नव गतिविधि वाले मामले थे वैसे एक सुखद तथ्य ये भी है कि इसी रिकॉर्ड के अनुसार दर्ज मामलों के निपटान का प्रतिशत 80.04% रहा यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की पूर्ण स्वीकृत संख्या 34 होने के बावजूद लंबित मामलों की संख्या में वृद्धि जारी है।लंबित मामलों को कम करने के प्रयास पूर्व मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने लंबित मामलों के प्रबंधन के लिए ग्रीष्मकालीन अवकाश के दौरान कार्यरत पीठों की संख्या बढ़ा दी थी। 23 मई से जुलाई तक ग्रीष्मकालीन अवकाश का नाम बदलकर आंशिक कार्य दिवस कर दिया गया, जिसमें 21 बेचों ने काम किया था इसके अलावा एक के बाद एक आने वाले मुख्य न्यायाधीशों ने भी लंबित मामलों के समाधान के लिए अनेक प्रयास किए कोविड के बाद से, विशेष रूप से 2023 के बाद से, बैकलॉग में लगातार वृद्धि दिखाई दी नवंबर 2023 के कॉलेजियम प्रस्ताव में भारी कार्यभार तथा न्यायाधीशों की पूर्ण संख्या बनाए रखने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया था। नवनियुक्त मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत ने जो बात कही है वह अकाट्य सत्य है उनका मानना है कि फाइल भले ही अटक जाए लेकिन न्याय नहीं रुकना चाहिए और न्याय की सफलता का वास्तविक पैमाना तो यही है कि कानून समाज के सबसे अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक कितनी मजबूती से पहुंचता है सबसे कमजोर समझा जाने वाला व्यक्ति जब न्याय पाने के लिए पूरे विश्वास के साथ अदालत की चौखट तक आता है तो यही न्यायपालिका की सफलता हो सकती है । लोगों को ये नहीं लगना चाहिए कि अदालतें उनकी पहुंच से दूर है या फिर वे अपनी बात कोर्ट में नहीं रख सकते ,न्याय जितना जल्दी और सुलभ होगा उतनी ही न्यायपालिका के प्रति लोगों में श्रद्धा आस्था और विश्वास पैदा होगा क्योंकि कोई भी आम आदमी जब निराशा से घिर जाता है और उसकी सुनवाई कहीं नहीं होती तब वो कोर्ट की शरण में आता है और यदि यहां से भी उसे न्याय नहीं मिला तो फिर न्यायपालिका के प्रति उसकी आस्था में कमी आ सकती है, लेकिन भारतीय न्यायपालिका कि ये खूबी है की न्याय पाने वाला व्यक्ति चाहे अमीर हो या गरीब, प्रभावशाली हो या साधारण व्यक्ति, उसकी शक्ल सूरत, उसकी धन संपदा पर ध्यान न देकर सिर्फ तथ्यों के आधार पर उसे न्याय दिया जाता है और यही भारतीय न्यायपालिका की सफलता का एक बहुत बड़ा पैमाना है मुख्य न्यायमूर्ति सूर्यकांत की यह सोच न्यायपालिका के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होगी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ये कह रहे हैं कि मैं तुम्हें कोर्ट में देख लूंगा यह भरोसा बनाए रखना बड़ी जिम्मेदारी है इसका मतलब है कि वे समाज के अंतिम व्यक्ति तक न्याय पहुंचाने के लिए कृत संकल्पित हैं और रहेंगे। (एडवोकेट एमपी हाईकोर्ट) (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 30 नवम्बर/2025