भारत में नमूनों की बाढ़ आयी हुई है। ये नमूने आश्रमों और सरकार के संरक्षण में पल रहे हैं। वे खुद को ईश्वर भक्त कहते हैं और भगवा कपड़े पहनते हैं। उलजलूल बोलना उनकी आदत है और इस आदत को नेता प्रोत्साहित करते हैं। इनमें एक हैं रामभद्राचार्य। उनके शारीरिक बनावट के बारे में कुछ नहीं कहूंगा। उन्हें ज्ञानपीठ वालों ने ज्ञानपीठ पुरस्कार दे दिया। मेरा तो इस पुरस्कार पर से विश्वास ही उठ गया। उन्होंने पहले स्त्री के बारे में कहा कि वे बेहद खतरनाक होती हैं और फिर वाइफ शब्द की व्याख्या की है। वाइफ में अंग्रेजी के चार वर्ण हैं - डब्ल्यू, आई, एफ और ई। डब्ल्यू से वांडरफुल, आई से इन्सट्रुमेंट एफ से फार और ई से एंजॉयमेंट। यानी पत्नी मजा लेने का उपकरण है। रामभद्राचार्य आंख के अंधे न रहें, लेकिन ज्ञान के अंधे जरुर हैं। सबसे दुर्भाग्य यह है कि तब भी स्त्रियां चुप हैं, राज्य और देश की महिला इकाई के मुंह पर ताले हैं और रुबिका लियाकत , अंजना ओम कश्यप जैसी बकर बकर करने वाली मीडिया कर्मियों को तो लकवा मार गया है। मर्दवादी समाज तो चुप रहेगा ही और तथाकथित हिन्दू संगठन भला अपने माननीय संतों के बारे में क्यों बोले? इसके पूर्व भी अन्य राम कथा वाचकों ने भी स्त्री संबंधी उद्गार व्यक्त किए हैं । धीरेन्द्र शास्त्री ने कुंवारी लड़कियों को खाली प्लॉट और अनिरुद्धाचार्य ने लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली लड़कियों को वेश्या कहा ! ये तीनों आचार्य मनुस्मृति के पोषक हैं और हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। इनके हिन्दू राष्ट्र में स्त्रियां मानवीय इकाई नहीं एंज्वॉयमेंट का उपकरण होंगी। देश की आधी आबादी को पांव तले कुचल कर प्रधानमंत्री नवजागरण ला रहे हैं। दरअसल जिसे जेलों में बंद रहना चाहिए था, वे सरकारी संत बने बैठे हैं। बुद्धिजीवियों की एक जमात को लगता है कि जाति - अस्मिता और सामाजिक न्याय की पुरानी संरचनाएं ढीली पड़ रही हैं और नयी राजनीतिक आवाजें उभर रही हैं। नयी राजनीतिक आवाजें कौन सी हैं? स्त्रियों, दबी कुचली जातियों, वर्गों और अल्पसंख्यकों पर दमन कम हुए हैं? जातियां टूट गयी हैं और मानव मानव एक हो गए हैं? राजनीति में जातियों के गठबंधन नहीं हैं? सोलहवीं - सत्रहवीं सदी की आवाजें कम हो गयी हैं? पोंगा पंथी विचार की जगह वैज्ञानिक विचारधारा कायम हो गई हैं? क्या भ्रष्टाचार घट गया है? युवाओं और किसानों की आत्महत्याएं खत्म हो गई हैं? मुझे तो उल्टी बात नज़र आती है कि पुरानी संरचनाएं मजबूत हुई हैं और उभरती नयी संरचनाएं बाधित हुई हैं। आदमखोर बाघ को पिंजरे में बंद रखते हैं। अगर बाहर रहता तो दो चार को खाता। रामभद्राचार्य जैसे ढोंगी तो बाघ से भी खतरनाक हैं। बाघ तो जिस्म खाता है, रामभद्राचार्य तो आदमी की चेतना को निगल रहे हैं। आज मुख्य धारा में कौन सी आवाजें सक्रिय हैं? क्या वे जातिवादी, संप्रदायवादी और पूंजीपरस्त नहीं हैं? मनुष्य बनने की दिशा में जो भी बाधाएं हैं, वे अमानुषिक हैं। मनुष्य की चेतना स्वतंत्र, नदी की धारा की तरह कल-कल, छल - छल करती हुई बहे। आकाश में उड़ान भरती चिड़िया की तरह । बंधन मुक्त। नयी आवाज आनी है तो बंधन मुक्ति की आनी है। आज आदमी तंत्र और संप्रदाय के समक्ष बेबस है। अपनी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो रही, लेकिन तंत्र में बैठे और मजे लूट से लोगों को नवजागरण सूझ रहा है। नाक के नीचे दिल्ली प्रदूषण में कुहर रही है और दशरथ के पांचवें पुत्र को अलौकिकता का भान हो रहा है। उन्हें भी लगता है कि उनके लिए मंदिर बन जाये और वे अमर हो जायें। (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 1 दिसम्बर /2025