शीतकालीन सत्र हमेशा से राजनीतिक तापमान का आईना माना जाता रहा है। वर्ष के अंतिम महीने में जब केंद्र सरकार अपनी उपलब्धियों और नीतिगत प्रतिबद्धताओं को आगे बढ़ाने की कोशिश करती है, तब विपक्ष इसे जवाबदेही और जनहित के मुद्दों को उठाने के अवसर के रूप में देखता है। इसी उम्मीद और उत्सुकता के बीच 1 दिसंबर से आरंभ हुआ संसद का यह शीतकालीन सत्र, अपने पहले ही दिन उस सौहार्द्र और गंभीरता से दूर दिखाई दिया जिसकी एक लोकतांत्रिक संस्था से अपेक्षा की जाती है।पहले दिन राज्यसभा की कार्यवाही दोपहर 2 बजे तक स्थगित करनी पड़ी। कारण वही पुराना-हंगामा, नारेबाजी और तीखी राजनीतिक तल्खी। सत्र शुरू होते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों को एक स्पष्ट संदेश दिया कि संसद का मंच राजनीति की लड़ाई का एरिना नहीं, बल्कि जनता के मुद्दों पर काम करने का स्थान है। उनकी टिप्पणी, सदन में ड्रामा नहीं, डिलेवरी चाहिए, में सिर्फ राजनीतिक व्यंग्य नहीं था, बल्कि कार्यसंस्कृति पर गंभीर चिंता का संकेत भी झलक रहा था।मोदी ने विपक्ष से यह भी कहा कि चुनाव परिणामों में पराजय मिलना राजनीतिक जीवन का अंग है, लेकिन पराजय की निराशा में डूबकर सदन को ठप कर देना लोकतांत्रिक मर्यादा के अनुकूल नहीं है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि सरकार ट्रिप्स जैसी बहसों और विधायी चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार है, लेकिन यह तभी संभव है जब विपक्ष मजबूत मुद्दे उठाए और सहयोग की भावना दिखाए।अचानक इस्तीफे पर राजनीति का बवंडर तेज हुआ।सत्र की शुरुआत से पहले ही एक बड़ा राजनीतिक तूफ़ान उस वक्त खड़ा हो गया जब राज्यसभा के पूर्व सभापति जगदीप धनखड़ ने अचानक इस्तीफा दे दिया। मुख्यमंत्री, राज्यपाल और उपराष्ट्रपति जैसे पदों को संभाल चुके धनखड़ के इस निर्णय ने राजनीतिक हलचल बढ़ा दी। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसे असामान्य कदम बताते हुए सवाल किया कि इतनी बड़ी संवैधानिक जिम्मेदारी छोड़ने के पीछे कौन-सा दबाव या परिस्थिति रही होगी। खड़गे की टिप्पणी पर भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने तीखी प्रतिक्रिया दी और कहा कि अगर खड़गे जी को इस विषय में बहुत तकलीफ हो रही है तो उन्हें डॉक्टर को दिखाना चाहिए। यह बयान दर्शाता है कि आने वाले दिनों में सत्ता और विपक्ष के बीच वाद-विवाद कैसे मोड़ ले सकता है।सत्र का एजेंडा बड़ा, लेकिन माहौल गर्म है।शीतकालीन सत्र 1 दिसंबर से 19 दिसंबर तक आयोजित होना है। कुल 15 बैठकें प्रस्तावित हैं और सरकार लगभग 10 विधेयक पेश करने की तैयारी में है। इनमें तंबाकू और पान मसाला पर सेस लगाने वाला बिल, दिवाला कानून में सुधार, और जनविश्वास संशोधन जैसे महत्वपूर्ण विधायी प्रस्ताव शामिल हैं। संसदीय समितियों को भी कई रिपोर्टें प्रस्तुत करने के लिए अतिरिक्त समय दिया गया है।लेकिन पहले ही दिन विपक्ष ने एसआईआर मुद्दे पर जोरदार हंगामा किया। इससे सरकार के विधायी कार्यक्रम पर अनिश्चितता के बादल मंडराते नजर आए। सरकार का आरोप है कि विपक्ष बिना पर्याप्त चर्चा के सिर्फ बाधा उत्पन्न करने की रणनीति अपना रहा है। वहीं विपक्ष कहता है कि उसके सवालों का संतोषजनक उत्तर नहीं दिया जा रहा और सरकार संवेदनशील मुद्दों पर चर्चा से बच रही है।प्रधानमंत्री मोदी ने सदन में हो रहे व्यवधानों पर स्पष्ट अपील की।मेरी चिंता यह है कि सदन चले। जनता हम सब से काम की उम्मीद करती है। *नए सभापति का स्वागत और पुरानी राजनीति की छाया* सत्र की शुरुआत में सी.पी. राधाकृष्णन को राज्यसभा के नए सभापति के रूप में स्वागत किया गया। मोदी ने उनके अनुभव की सराहना करते हुए उम्मीद जताई कि उनके नेतृत्व में सदन की कार्यवाही अधिक गरिमामय और प्रभावी होगी। लेकिन स्वागत समारोह के माहौल में भी दलगत राजनीति की तल्खी कम नहीं हुई। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने खड़गे पर आरोप लगाया कि उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति के लिए अनुचित शब्द बोले। यह आरोप भी सत्र के शुरुआत में तनाव का एक और सूत्र बन गया। विपक्ष के भीतर भी समानता नही लेकिन भिन्न आवाजेंसुनाई दी।हंगामे के इस माहौल में विपक्ष के भीतर भी अलग-अलग स्वर सुनाई दिए। गोगोई ने कहा कि अगर विपक्ष के मुद्दों को सत्र में उचित स्थान और चर्चा मिले, तो वे सरकार के सभी विधेयकों पर सहयोग करने को तैयार हैं। यह बयान संकेत देता है कि विपक्ष की मंशा केवल हंगामा करना नहीं है, बल्कि बहस और संवाद भी चाहता है।यदि उसे सम्मानजनक अवसर मिले। हालाँकि, इस बीच राहुल गांधी सदन से उस समय बाहर निकल गए जब कार्यवाही हंगामे के कारण रुकावट का सामना कर रही थी। यह घटना भी राजनीतिक व्याख्याओं का विषय बनी।इस बीच चिराग पासवान ने कहा कि हंगामा छवि चमकाता है, काम नहीं,लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान ने विपक्ष के विरोध को लेकर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की।हंगामा करने वाला अपनी छवि चमकाता है, लेकिन काम नहीं करता। पासवान के इस वक्तव्य ने सत्ता पक्ष की उस भावना को मजबूत किया, जिसमें वे कहते हैं कि विपक्ष सिर्फ नकारात्मक राजनीति कर रहा है और संसद के संचालन में बाधा डाल रहा है। *हंगामा बनाम लोकतंत्र* सत्र के पहले दिन जिस प्रकार कार्यवाही बाधित हुई, उसने इस विवाद को फिर जन्म दिया कि क्या लगातार हंगामे के माध्यम से विपक्ष अपनी भूमिका को कमजोर कर रहा है, या यह उनके लिए मजबूरी है क्योंकि सरकार उन्हें बोलने का पर्याप्त अवसर नहीं देती?सत्ता पक्ष का तर्क है कि हंगामा लोकतांत्रिक परंपराओं के खिलाफ है। संसद बहस, विचार और नीतिगत विमर्श का स्थान है, और लगातार व्यवधान से न सिर्फ विधायी कामकाज रुकता है, बल्कि जनता का विश्वास भी डगमगाता है।विपक्ष का दावा है कि संवेदनशील मुद्दों पर सरकार की चुप्पीऔर अड़ियल रवैया उन्हें कठोर कदम उठाने पर मजबूर करता है।लोकतंत्र का बड़ा सवाल है किसदन में पहले दिन की उथल-पुथल इस बात का संकेत है कि आने वाले दिनों में शीतकालीन सत्र किसी राजनीतिक परीक्षा से कम नहीं होगा। सरकार जहां विकास, अर्थव्यवस्था, सामाजिक कल्याण और प्रशासनिक सुधारों पर विधायी एजेंडा आगे बढ़ाना चाहती है, वहीं विपक्ष अधिक आक्रामक और तप्त सवालों के साथ तैयार बैठा है। इस सत्र की असली कसौटी यह होगी कि क्या संसद अपने मूल दायित्व जनता के लिए कानून बनाना और शासन पर निगरानी रखना,को पूरा कर पाएगी या फिर राजनीतिक ध्रुवीकरण इसे फिर से जाम कर देगा? लोकतंत्र का सार संवाद है, और संवाद के लिए बहस काअधिकार भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना संयम का। पहले दिन की घटनाओं ने देश को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हमारा राजनीतिक वर्ग इस संतुलन को पुनः स्थापित कर पाएगा। शीतकालीन सत्र की यह आरंभिक हलचल संकेत देती है कि आने वाले 18 दिन शांत नहीं रहने वाले। परंतु यदि सत्ता और विपक्ष अपने-अपने राजनीतिक हितों के ऊपर राष्ट्रहित को प्राथमिकता दें, तो यह सत्र महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ दे सकता है।अंततः संसद जनता की उम्मीदों का मंच है। और इन उम्मीदों को पूरा करने के लिए चाहिए न ड्रामा, न आरोपों का तूफान,बल्कि ठोस कार्य, सार्थक बहस और लोकतांत्रिक परिपक्वता। यह तभी सम्भव है,जब विपक्ष इस बात को समझे और समझकर उनकी जवाबदेही पर पुनः विचार करे। (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 2 दिसम्बर /2025