डिजिटल युग की तेज़ी से बदलती दुनिया में भारत जिस रफ्तार से तकनीक को आत्मसात कर रहा है, उसी गति से अपराधियों ने भी अपने मंसूबों को नया रूप दे दिया है। इंटरनेट बैंकिंग, डिजिटल पेमेंट और मोबाइल आधारित सेवाओं ने जहां जनजीवन को सरल बनाया है, वहीं इसी सुविधा का दुरुपयोग करते हुए साइबर अपराधी अब ऐसे तरीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं जिनमें आम नागरिक को यह समझ ही नहीं आता कि वह कब जाल में फंस गया। हाल के महीनों में सबसे भयावह रूप में उभरा डिजिटल अरेस्ट स्कैम न केवल लोगों की कमाई को चूस रहा है, बल्कि नागरिकों के भीतर कानून, सुरक्षा व्यवस्था और डिजिटल तंत्र के प्रति भय भी पैदा कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इसी बढ़ते खतरे पर गहरी चिंता जताते हुए इस पूरे मामले की जांच सीबीआई से कराने का आदेश दिया है और केंद्र सरकार से इस खतरे की जड़ों तक पहुँचने और इसे खत्म करने का हरसंभव उपाय करने के निर्देश दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह मुद्दा तब गंभीर रूप से उभरा जब अक्टूबर में स्वतः संज्ञान लिए गए इस मामले में गतिशील सुनवाई शुरू हुई और सामने आया कि डिजिटल अरेस्ट जैसे स्कैम में भारतीयों से तीन हजार करोड़ रुपये से भी अधिक की ठगी हो चुकी है। यह आंकड़ा सिर्फ आर्थिक नुकसान का नहीं, बल्कि उस भरोसे के टूटने का भी है जो आम नागरिक देश की साइबर सुरक्षा प्रणाली से रखता है। डिजिटल अरेस्ट स्कैम का तरीका बेहद खतरनाक और मनोवैज्ञानिक दबाव से भरा होता है। इसमें पीड़ित के मोबाइल पर किसी सरकारी अधिकारी, पुलिस,‘सीबीआई,ईडी या अदालत के नाम से कॉल आता है। कॉलर द्वारा दावा किया जाता है कि पीड़ित किसी अपराध में शामिल है और उसकी तुरंत डिजिटल गिरफ्तारी की जा रही है। इसके बाद उससे कहा जाता है कि वह अपने मोबाइल का कैमरा चालू रखे, किसी कमरे में बंद हो जाए और किसी से बात न करे। अपराधी इस दौरान पीड़ित पर डर, तनाव और शर्मिंदगी का इतना दबाव बना देते हैं कि वह बिना समझे अपने पैसे उनके खातों में भेज देता है। यह पूरा घटनाक्रम न केवल अपराधियों की मानसिक तकनीकों को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि किस तरह बुजुर्ग और अकेले रहने वाले नागरिक ऐसे मामलों में आसानी से निशाना बन जाते हैं।2025 में ही साइबर ठगी की 1.23 लाख शिकायतें दर्ज होना यह संकेत है कि साइबर अपराध अब सीमित दायरे की समस्या नहीं रह गई है, बल्कि यह एक राष्ट्रीय चुनौती का रूप ले चुकी है। इनमें से 17,718 मामले केवल डिजिटल अरेस्ट स्कैम से जुड़े पाए गए। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इन ठगी मामलों में सबसे ज्यादा निशाना 60 वर्ष से ऊपर के नागरिक बने हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि लगभग 82 प्रतिशत पीड़ित बुजुर्ग वर्ग से संबंधित हैं, जिनमें से अधिकांश तकनीक के उपयोग में अपेक्षाकृत कम सहज होते हैं और डिजिटल धमकियों या सरकारी नाम के पीछे छिपी धूर्तता को तुरंत समझ नहीं पाते। युवाओं को लेकर चल रहे साइबर जागरूकता अभियानों के बीच यह वर्ग अभी भी सुरक्षा कवच से बुरी तरह वंचित दिखाई देता है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ,जिसमें मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्य बागची शामिल हैं ने सुनवाई के दौरान स्पष्ट शब्दों में कहा कि डिजिटल अरेस्ट जैसा कोई भी नियम भारतीय कानून में अस्तित्व ही नहीं रखता। किसी व्यक्ति को केवल डिजिटल माध्यम से, वह भी बिना किसी विधिक प्रक्रिया के, अरेस्ट करना तो दूर, उसकी गतिविधियों को नियंत्रित करने का अधिकार भी किसी एजेंसी को नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि जिस तरह से अपराधी सरकारी एजेंसियों का नाम लेकर आम जनता को भयभीत कर रहे हैं, वह स्थिति अत्यंत गंभीर है और केंद्र सरकार को दूरसंचार विभाग, गृह मंत्रालय, वित्तीय क्षेत्र नियामकों और आईटी कंपनियों की संयुक्त जिम्मेदारी सुनिश्चित करनी होगी। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि भारत अकेला देश नहीं है जो इस तरह के फिशिंग और धोखाधड़ी नेटवर्क का शिकार हो रहा है। म्यांमार, कम्बोडिया और लाओस जैसे दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में मौजूद साइबर ठगी के बड़े गिरोह इस तरह के अपराधों के प्रमुख स्रोत हैं। 2024 में दर्ज मामलों के विश्लेषण से पता चला कि लगभग 46 प्रतिशत डिजिटल ठगी और डिजिटल अरेस्ट स्कैम की कड़ियाँ इन देशों से जुड़ी हुई थीं। ये देश साइबर अपराधियों के लिए सुरक्षित ठिकानों की तरह काम कर रहे हैं जहाँ से वे कॉल सेंटर, सोशल इंजीनियरिंग नेटवर्क और डिजिटल पेमेंट पाइपलाइन के माध्यम से अपने नेटवर्क को संचालित करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैले अपराध तंत्र को रोकने के लिए इंटरपोल की सहायता भी मांगी है, ताकि सीमापार जुर्म करने वाले गिरोहों को पकड़ा जा सके। भारत सरकार ने भी स्वीकार किया है कि डिजिटल सुरक्षा को अभेद बनाने के लिए तुरंत और कड़े कदमों की आवश्यकता है। इसी कड़ी में सारथी ऐप को अनिवार्य करने पर जोर दिया गया है, जो मोबाइल नंबर, पहचान और उपयोगकर्ता की सत्यता की पुष्टि में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। सरकार ने यह भी बताया कि अब तक लगभग 120 करोड़ मोबाइल कनेक्शन की जांच में भारी संख्या में फर्जी सिम कार्ड पकड़े गए हैं जिनका इस्तेमाल अक्सर साइबर अपराधी अपने ठगी नेटवर्क को चलाने में करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे सिस्टम में दूरसंचार कंपनियों की भूमिका को भी चिन्हित किया है और पूछा है कि सक्रिय नंबरों का सत्यापन कैसे मजबूत किया जा सकता है, ताकि अपराधियों को फर्जी पहचान का सहारा न मिले। इस समस्या के समाधान में केवल सरकारी एजेंसियों की कोशिशें ही काफी नहीं होंगी, बल्कि वित्तीय संस्थानों विशेषकर आरबीआई और बैंकों को भी बेहद सक्रिय भूमिका निभानी होगी। ठगी का पैसा आमतौर पर कुछ ही मिनटों में कई डिजिटल वॉलेट, एस्क्रो अकाउंट, क्रिप्टो लिंक और विदेशी खातों में भेज दिया जाता है। बैंकों के लिए चुनौती यह है कि वे किस तरह वास्तविक ग्राहक और धोखेबाज़ की पहचान में त्वरित और प्रभावी अंतर कर पाएँ। सुप्रीम कोर्ट ने भी टिप्पणी की कि वित्तीय संस्थान और आईटी कंपनियाँ इस लड़ाई में सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ हैं, क्योंकि इनके नेटवर्क के बिना धोखाधड़ी की रकम को संचालित करना लगभग असंभव है। ऐसे में बैंकिंग सुरक्षा प्रोटोकॉल, एआई आधारित फ्रॉड डिटेक्शन और रियल-टाइम रिपोर्टिंग तंत्र को और अधिक सुदृढ़ बनाना समय की मांग है। साइबर अपराधों के लगातार बढ़ते स्वरूप को देखते हुए विशेषज्ञों का मानना है कि देश में डिजिटल साक्षरता को उतना महत्व नहीं दिया गया जितना कि डिजिटल विस्तार को दिया गया है। यह असंतुलन ही वह मूल कारण है जिसके चलते नागरिक अपने मोबाइल, बैंक खाते, ओटीपी, और पहचान संबंधी दस्तावेजों के उपयोग में लापरवाही कर देते हैं। आज भी लाखों लोग यह नहीं जानते कि कोई भी सरकारी एजेंसी फोन पर ओटीपी, बैंक डिटेल या पेमेंट की मांग नहीं करती। यह तथ्य ज्ञात होने के बावजूद अपराधी भय, जल्दीबाज़ी और अनुपालन के दबाव का इस्तेमाल कर पीड़ित को फंसा लेते हैं। भारत जिस डिजिटल क्रांति का नेतृत्व कर रहा है, उसके समानांतर एक डिजिटल सुरक्षा ढाँचे का विकास भी उतना ही आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट की सख़्ती और सीबीआई जांच का आदेश न केवल इस दिशा में एक बड़ा कदम है, बल्कि यह संकेत भी है कि देश की सर्वोच्च अदालत इस खतरे की जड़ तक पहुँचने का इरादा रखती है। अदालत ने कहा कि यदि समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले वर्षों में साइबर अपराध राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी चुनौती बन सकता है। डिजिटल युग में नागरिकों से किए जा रहे छल के इस नए रूप पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता बेहद उचित है। डिजिटल दुनिया सरकारों के लिए जितनी बड़ी संभावनाएँ लेकर आई है, अपराधियों के लिए भी उसने नए रास्ते खोल दिए हैं। ऐसे में ज़रूरत है कि तकनीक को केवल सुविधा का माध्यम न माना जाए, बल्कि सुरक्षा को इसके केंद्र में रखा जाए। जब तक साइबर सुरक्षा को उतनी ही प्राथमिकता नहीं दी जाती जितनी डिजिटल विस्तार को, तब तक साइबर अपराधियों की चालाकियों और ठगी के जाल को रोकना मुश्किल रहेगा। अंततः, डिजिटल अरेस्ट जैसे अपराध इस बात की कठोर चेतावनी हैं कि डिजिटल विश्व में सतर्कता ही सुरक्षा है। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि न्यायपालिका न केवल नागरिकों की सुरक्षा को सर्वोपरि मानती है, बल्कि वह इस खतरे के खिलाफ एक व्यापक राष्ट्रीय अभियान की आवश्यकता भी महसूस कर रही है। सरकार, एजेंसियों, वित्तीय संस्थानों और जनता सभी को मिलकर इस लड़ाई को लड़ना होगा। तभी भारत की डिजिटल यात्रा सुरक्षित, विश्वसनीय और भविष्य के लिए आश्वस्त बन सकेगी। ( L 103 जलवन्त टाऊनशिप पूणा बॉम्बे मार्केट रोड नियर नन्दालय हवेली सूरत मो 99749 40324 वरिष्ठ पत्रकार साहित्यकार स्तम्भकार) ईएमएस / 06 दिसम्बर 25