लेख
19-Sep-2023
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(२०सितम्बर / मान कषाय को दूर करना) भाद्रमाह के सुदी छठ को दिगंबर जैन समाज के पर्वाधिराज पर्यूषण दसलक्षण पर्व का दूसरा दिन होता है! मार्दव धर्म संसार का नाश करने वाला है, मान का मर्दन करने वाला है, दया धर्म का मूल है, विमल है, सर्वजीवों का हितकारक है और गुण गणों में सारभूत है। इस मार्दव धर्म से ही सकल व्रत और संयम सफल होते हैं। मार्दव धर्म मान कषाय को दूर करता है, मार्दव धर्म पाँच इन्द्रिय और मन का निग्रह करता है, चित्तरूपी पृथ्वी के आश्रय से करुणारूपी नूतन बेल मार्दवरूपी धर्म पर फैल जाती है। मार्दव धर्म जिनेन्द्र देव की भक्ति को प्रकाशित करता है, मार्दव धर्म कुमति के प्रसार को रोक देता है, मार्दव धर्म से बहुत अधिक विनयगुण प्रवृत्त होता है और मार्दव धर्म से मनुष्यों का बैर दूर हो जाता है। मार्दव से परिणाम निर्मल होते हैं, मार्दव से उभय लोक की सिद्धि होती है, मार्दव से दोनों प्रकार का तप सुशोभित होता है और मार्दव से मनुष्य तीनों जगत् को मोहित कर लेता है। मार्दव धर्म से जिनशासन का ज्ञान होता है तथा अपने और पर के स्वरूप की भावना भायी जाती है। मार्दव सभी दोषों का निवारण करता है और यह मार्दव ही जीवों को जन्म समुद्र से पार कराने वाला यह मार्दव परिणाम, सम्यग्दर्शन का अंग है ऐसा जानकर हे भव्य! तुम विचित्र और अमल इस मार्दव धर्म की सदा स्तुति करो। जाति आदि मदों के आवेशवश होने वाले अभिमान का अभाव करना मार्दव है। मार्दव का अर्थ है मान का नाश करना। ‘‘मृदु का भाव मार्दव है, यह मार्दव मानशत्रु का मर्दन करने वाला है, यह आठ प्रकार के मद से रहित है और चार प्रकार की विनय से संयुक्त है। देखो इन्द्र नाम का विद्याधर इन्द्र के समान वैभवशाली था फिर भी रावण के द्वारा पराजय को प्राप्त हुआ है और वह रावण भी एक दिन मान के वश में नष्ट हो गया, अत: मान से क्या लाभ है ? मैंने इस संसार में ऊँच और नीच सभी पर्यायें धारण की हैं। अहो! मैंने इन्द्रों के सुख भी प्राप्त किये हैं और हा! खेद है कि निगोद पर्याय में दु:ख भी प्राप्त किये गए हैं। देखो! चक्ररत्न को धारण करने वाला भरत चक्रवर्ती भी वृषभाचल पर्वत को देखता है पुन: उस पर से अक्षर को मिटाकर वह अपनी प्रशस्ति को लिखता है। अपने आत्म गुणों के सन्मान से अपने आत्मा के आनन्दरूपी अमृत को चखना चाहता हूँ। अपने स्वाभिमानमय पद में स्थित होकर मैं ज्ञानादिगुण को प्राप्त कर लेऊँ मेरी यही भावना है।।१ से ५।। प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी भावना सदा भाते रहना चाहिये। जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य, रूप, तप, विद्या और धन इन आठ मदों के आश्रय से जो मान करते हैं वे तत्काल नीच गति के कारणभूत कर्मों का संचय करते हैं। मानी पुरुष मान के वश होकर पूज्य—पूजा का व्यतिक्रम कर देते हैं। इस संसार में मान किसका करना ? जहाँ पर प्राणी राजा होकर विष्ठा में कीड़ा हो गया। विनय के चार भेद हैं—ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार। ज्ञान की विनय के अर्थशुद्धि, व्यंजनशुद्धि, उभयशुद्धि, कालशुद्धि, विनयशुद्धि, उपधान, बहुमान और अनिन्हव ये आठ भेद हैं। इनका पालन करना और ज्ञानी की विनय करना। दर्शन के नि:शंकित आदि आठ अंगों का पालन करना और दर्शनधारी की विनय करना। चारित्र के अतीचारों को दूरकर चारित्रधारी की विनय करना तथा गुरु की प्रत्यक्ष और परोक्ष में मन—वचन—काय से विनय करना। गुरुओं की वैयावृत्ति करना, उनके अनुवूâल प्रवृत्ति करना आदि। इंद्र का रावण से पराजय होना साक्षात् गुरु के अपमान का फल है। अकसर धन, दौलत, शान और शौकत इन्सान को अहंकारी और अभिमानी बना देता है, ऐसा व्यक्ति दूसरों को छोटा और अपने आप को सर्वोच्च मानता है॥ ये सभी चीजें नाशवान हैं! ये सभी चीजें एक दिन आप को छोड देंगी या फिर आपको एक दिन मजबूरन इन चीजों को छोडना ही पडेगा॥ नाशवंत चीजों के पीछे भागने से बेहतर है कि अभिमान और परिग्रह (सभी बुरे कर्मों में बढोतरी करते हैं ) को छोडा जाये और सभी से विनम्र भाव से पेश आएँ! सभी जीवों के प्रति मैत्री-भाव रखें, क्योंकि सभी जीवों को अपना जीवन जीने का अधिकार है॥ उत्तम मार्दव गुण मन माना, मान करन को कौन ठिकाना? बस्यो निगोद माँहि तें आया, दमड़ी रूंकन भाग बिकया।। रूकन बिकाया भाग वशतें, देव इक-इंद्री भया। उत्तम मुआ चांडाल हूवा, भूप कीड़ों में गया।। जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करे जल-बुदबुदा। करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावें उदा।। मान महाविषरूप, करहि नीच-गति जगत में| कोमल सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदा|| ईएमएस / 19 सितम्बर 23