लेख
27-Sep-2023
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ढूंढ रहा हूं उस युग को जब सच्चाई पाई जाती थी चाल,चलन और चेहरे पर सच की परछाई रहती थी दादा-दादी,मात-पिता का आदर सत्कार बहुत होता था उनके सिरहाने बैठने की हिम्मत कोई न करता था बुआ-फूफा,ताऊ-ताई चाचा-चाचाजी,भाई -भाभी सब रिश्ते प्यारे लगते थे उनके साथ मे रहनेभर को हमारे दिल बहुत मचलते थे बहन के साथ मस्ती करते मिल बांटकर सब खाते थे तेल की डिबिया जलाकर रात रातभर हम पढ़ते थे स्कूल में मास्टर जी का खाना हर सप्ताह ले जाना याद है हैंड राइटिंग अच्छी न होने पर हर रोज पिटना भी याद है परीक्षा के दिनों में जब मां हमारे साथ जागती थी खुद अनपढ़ होते हुए भी मां हमें डंडा लेकर पढ़ाती थी स्कूटर, न कार तब थी साईकिल की सवारी करते थे कैंचिनुमा साईकिल चलाकर हम रोज कुलांचे भरते थे भैंस नहलाने जब तालाब में हम गांव किनारे जाते थे नंगे पैर को रेत में धंसाकर रेत का महल हम बनाते थे कभी कंचे खेलते,कभी कब्बडी कभी कुश्ती में मस्ती होती थी खुशहाल थी तब हमारी दुनिया जेब फटेहाल ही होती थी पांच पैसे की मूंगफली लेकर हम राजा बन जाते थे मिल जाए अगर सिंघाड़े हम मतवाले हो जाते थे कच्चे घर थे,घर मे नल था चारा खेतो से हम लाते थे घर मे बंधी भैंस का दूध हम चांव से पी जाते थे चार बजे सवेरे उठकर हम दिशा खेत को जाते थे बाबा के संग वही नहाकर शिव पूजा हम करते थे सेहत,सूरत,सिरत सबकुछ अच्छा ही अच्छा होता था न कोई चिंता,न कोई शिकवा ऐसा बचपन मैं जीता था कहां गए वो दिन अब खोज रहा हूं हर घड़ी घड़ी कोई लौटा दे मेरा बचपन सोच रहा हूं मैं हर घड़ी घड़ी। ईएमएस / 27 सितम्बर 23