लेख
12-Feb-2024
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-मातृ पितृ पूजन दिवस पर विशेष मेरे बचपन के समय मेरे पिताजी का वेतन बहुत मामूली था। मेरे पिताजी मदनलाल शर्मा पुलिस सेवा में हुआ करते थे। एक बार रिक्शा चालक द्वारा उनसे अधिक किराया मांग लेने पर गुस्साए पिताजी ने उसे फटकारा तो उनकी बुआजी नाराज़ हो गई और पिताजी की पुलिस की नोकरी छुड़वाने की जिद पर अड़ गए। घर मे बुआजी को सभी ने समझाया कि आगे से गलती नही होगी, लेकिन वे नही मानी और पुलिस की नोकरी से इस्तीफा दिलवाकर ही शांत हुई। जिस कारण पिताजी को डाक विभाग में नोकरी मिलने तक तीन साल बेरोजगार रहना पड़ा। अचानक आए इस आर्थिक संकट में घरवालों ने भी उनका साथ छोड़ दिया था,लेकिन मां प्रकाशवती ने अनपढ होते हुए भी सिलाई कढ़ाई में हरिद्वार से सन उन्नीस सौ साठ के दशक में डिप्लोमा कर सिलाई का काम घर पर रहकर ही शुरू किया और पिताजी के लिए आर्थिक ढाल बनकर खड़ी हो गई। तब जाकर माता-पिता दोनो की कमाई से हमारा पालन पोषण हो पाया। आर्थिक तंगी से जूझ रही खुद्दार मां तीन साल तक अपने मायके नही गई और न ही मायके से कोई आर्थिक सहायता स्वीकार की। वास्तव में हर नवजात की पहली दुनिया उसके माता-पिता ही होते है। किशोर,युवा व बुजुर्ग होने पर भी व्यक्ति कभी माता पिता को नही भूल सकता। क्योंकि माता पिता के कदमों में ही स्वर्ग सा सुख होता है। इस स्वर्ग से सुख के छिन जाने का एहसास मुझे उस समय हुआ जब मेरे माता -पिता नही रहे। माता- पिता के हमेशा के लिए चले जाने के बाद मेरे जीवन में जो उदासी व अवसाद आया था और लगा था जैसे माता -पिता के चले जाने के बाद मेरी दुनिया सुनी हो गई थी। ऐसा इसी लिए लगा था क्योकि माता पिता के दिवगंत होने के बाद उनके कदमों में बसे स्वर्ग से सुख ने भी मेरा साथ छोड दिया था। मुझे अब न मां की गोद में सिर रखकर मां के ममत्व की अनुभूति हो पा रही थी, न ही पिता के प्रेम भरे हाथ मेरे सिर को सहलाने के लिए अब बचे थे। जिस कारण हमेशा के लिए अलविदा हो चुके माता पिता की देह से तो मैं हमेशा के लिए वंचित हो गया , परन्तु आत्म स्वरूप में माता पिता का चेहरा आज भी मेरी आंखों में बसा है और लगता है कि वे मुझे कदम कदम पर सन्मार्ग दिखा रहे है। इससे पूर्व मुझे शुरू शुरू में तो उठते बैठते चलते फिरते हर जगह मुझे माता पिता ही नजर आ रहे थे, जैसे वे ही मुझे जीवन की राह पर उगंली पकडकर ले जाना चाहते हो। और मै भी माता पिता के चेहरे और उनकी यादों के साथ उनके बताए उस सन्मार्ग पर चल पडा, जिस मार्ग पर ले चलने का उन्होने स्वपन बुना था। माता पिता की सेवा व उनके आदर्शो पर चलने की प्रेरणा ही मेरी सफलता का कारण बनी। लौकिक माता पिता के चले जाने के बाद मुझे परमपिता परमात्मा शिव की रूहानी गोद का असीम सुख प्रजापिता ब्रहमाकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय में राजयोग के माध्यम से मिला। इस राजयोग ने तो मेरे जीवन की दशा और दिशा ही बदल दी। मेरे पिताजी मदन लाल शर्मा, मेरी मां प्रकाशवती से तीन साल पहले ही चल बसे थे। 13 फरवरी सन 2009 को 82 वर्ष की आयु में मेरे पिताजी श्री मदन लाल शर्मा दिवंगत हुए तो 82 वर्ष की आयु व 13 फरवरी को ही सन 2012 में मेरी लौकिक मां श्रीमति प्रकाश वती ने महाप्रयाण किया। मेरे पिताजी एक रहमदिल इंसान थे और उनमें मां जैसा ममत्व था। मां जब पढने के लिए कहती या फिर पढाई न करने को लेकर डांटती तो पिताजी मां के सामने ढाल बनकर खडे हो जाते और प्यार से कहते कोई बात नही ,धीरे धीरे पढ लेगें । कई बार तो मां जब घर पर नही होती और हम भाई बहन रात में मां के निर्देश पर देर रात तक पढ रहे होते तो पिताजी हमें कहते कि बस, बहुत पढाई कर ली। अब सो जाओं। मां के बीमार होने या फिर मायके जाने पर पिताजी अपने हाथ से खाना बनाकर हमें खिलाते थे। पिताजी हमारे लिए पिता के साथ साथ दुसरी मां की तरह थे। मेरी मां प्रकाशवती जो अपने जीवन में कभी स्कूल नही गई थी ,हमारी पढाई को लेकर इतनी सजग थी कि उन्होने हमे पढाने के लिए अपने जेवर तक बेच दिये थे। हम पढ सके और अच्छे नम्बरो से पास हो,इसके लिए मां हर रोज देर रात तक हमे पढने के लिए न सिर्फ कहती बल्कि स्वयं भी रात भर हमारे पास बैठी रहती और देखती रहती कि हम पढ रहे है या नही । उस जमाने में टेलीविजन नये नये आए थे। हमारे गांव नारसन कलां में सिर्फ एक या दो टेलीविजन ही थे। टेलीविजन पर हर रविवार को एक फीचर फिल्म आती थी और हर बुधवार को एक चित्रहार । ये दोनों कार्यक्रम उस समय के टेलीविजन का प्रमुख आकर्षण था। हमारी इच्छा होती कि हम फिल्म और चित्रहार जरूर देखे परन्तु मां पढाई के कारण इसकी अनुमति नही देती थी। कई बार हमे बुरा भी लगता परन्तु जब हमारा रिजल्ट आता और हम पास होते तो गांव के लोग बोलते कि पास हम नही, हमारी मां हुई है। गांव के लोगो की यह बात सोलह आने सच थी। मां ने गरीबी के दिनों में भी कभी होंसला नही खोया । मेरी मां प्रकाशवती सन 1942 के अंग्रेजों भारत छोड़ो जनआन्दोलन में तिरंगा फैहराते हुए शहीद हुए 17 वर्षीय जगदीश प्रसाद वत्स की सगी छोटी बहन थी और जब उनके भाई यानि मेरे मामा शहीद हुए उस समय मां की उम्र केवल 14 वर्ष की थी। अगले ही वर्ष बेटे के गम में उनके माता पिता यानि मेरे नाना नानी के गुजर जाने से मां के जिम्मे मात्र 15 वर्ष की आयु में अपने परिवार का दायित्व आ गया था। उन कठिन दिनों में घर के दायित्व का एहसास व अनुभव से ही मां प्रकाशवती को वह ताकत मिली थी कि वे जीवन के हर मोड पर सफल रही और हमें भी कामयाब कर पायी। मां किसी भी बच्चे में कोई भेद नही करती थी। न्याय प्रिय मां ने कभी हमारी गलती को नही छिपाया और न कभी दूसरो पर झूठा दोषारोपण नही किया। साथ ही अगर अपनी कोई गलती होती तो सहजता से उसे स्वीकार कर लेना ही मां का स्वभाव था। जीवन पर्यन्त संयमी,शांत और सन्तुष्ट रही मां प्रकाशवती के अन्दर देशभक्ति का भाव कूट कूटकर भरा था। उन्हे अपने अमर शहीद भाई जगदीश प्रसाद वत्स के बलिदान के लिए एक बडे पत्र समूह द्वारा सम्मानित भी किया गया था। मां चाहती थी अमर शहीद जगदीश प्रसाद वत्स की जीवनी उत्तराखंड के शिक्षा पाठयक्रम में शामिल हो, ताकि आने वाली पीढी देश के इस वीर शहीद से प्रेरित होकर देशभक्ति के मार्ग को अपना सके। मां का यह सपना आज तक पूरा नही हो सका है। आजादी के अमृत महोत्सव में भी अमर शहीदों व स्वतंत्रता सेनानियों की उपेक्षा बहुत खलती है। लेकिन माता पिता की एक अभिलाषा अवश्य पूरी हो गई है। शहीद जगदीश वत्स के भतीजे गुरूदत्त वत्स ने स्वयं संसाधन जुटाकर शहीद वत्स की प्रतिमा जगदीश प्रसाद स्मारक विद्यालय खजूरी अकबरपुर में लगवा कर एक बड़ा काम किया है। वही हरिद्वार के ज्वालापुर में शहीद जगदीश वत्स पार्क के सौंदर्यीकरण व शहीद वत्स की प्रतिमा लगने से सुखद अनुभूति हुई परन्तु आज तक भी मेरी मां प्रकाशवती, मामा सुरेश दत्त वत्स व अन्य मौसियो को शहीद जगदीश वत्स का उत्तराधिकारी घोषित न किया जाना अफ़सोसजनक ही कहा जाएगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार है) ईएमएस / 12 फरवरी 24