लेख
23-Apr-2024
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दिल्ली हाईकोर्ट मे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की अंतरिम जमानत दिए जाने की याचिका दायर की गई थी। शराब घोटाले के आरोप में वह तिहाड़ जेल में बंद है। अदालत ने जमानत याचिका को खारिज करते हुए याचिकाकर्ता पर 75000 का जुर्माना लगा दिया। पिछले कुछ वर्षों से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जो जनहित याचिकाएं दायर की जाती हैं उन याचिकाओं को खारिज कर भारी जुर्माना लगाए जाने की नई परम्परा शुरू हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दल के प्रतीक चिन्ह के आवंटन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने याचिका निरस्त की, और 25000 रूपये का जुर्माना लगा दिया। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण नीति बनाने की मांग को लेकर याचिका को निरस्त करते हुए उसे पर 25000 रूपये का जुर्माना लगाया। जाति व्यवस्था के वर्गीकरण की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 35000 रूपये का जुर्माना लगाते हुए याचिका निरस्त कर दी। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद से हटाने की याचिका को निरस्त कर 50000 रूपये का जुर्माना लगाया। जनहित से जुड़े एवं आय मामलों को लेकर अब सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने स्वयं संज्ञान लेना बंद कर दिया है। जनहित की याचिकाएं या जनहित से जुड़े हुए मामलों की कई महत्वपूर्ण याचिकाएं कई वर्षों तक सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में लंबित बनी रहती हैं। जिस पर लंबे समय तक सुनवाई नहीं होती है। सुनवाई हो भी जाती है, तो फैसला सुरक्षित रख लिए जाते हैं। ऐसी स्थिति कुछ ही वर्षों में न्यायपालिका में देखने को मिल रही है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जो याचिकाएं दायर की जाती हैं। उसमें याचिकाकर्ता को वकील की नियुक्ति करनी पड़ती है। उसकी फीस भी देनी पड़ती है। हाईकोर्ट ओर सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार कार्यालय में प्रारंभिक जांच भी होती है। न्यायालय फीस के रूप में याचिकाकर्ता से शुल्क जमा कराया जाता है। उसके बाद ही याचिका सुनवाई के लिए लिस्ट होती है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को लगता है, याचिका सुनवाई योग्य नहीं है, तो उन्हें निरस्त कर दिया जाता है। जिन वकीलों द्वारा याचिका दायर की जाती है। उन्हें भी हाईकोर्ट के नियमो और कानून की जानकारी होती है। जनहित याचिकाओं में या अन्य याचिकाओं को खारिज करने के बाद जुर्माना लगाए जाने से अब लोगों में भय का वातावरण बन गया है। हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट जाकर न्याय पाने की कल्पना अब आम नागरिकों के बस की बात नहीं रह गई है। वकीलों की हजारों रुपए की फीस, न्यायालयों की फीस जमा करने, शपथ पत्र इत्यादि एवं मुकदमे की तैयारी करने में याचिकाकर्ता को हजारों रुपए खर्च करने पड़ते हैं। यदि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जाने पर लोगों में भय का वातावरण बन गया है। इससे न्यायिक व्यवस्था से आम आदमी का विश्वास भी खत्म हो रहा है। जब लोग हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की शरण में जाते हैं, निश्चित रूप से वह कहीं ना कहीं इस आशा के साथ जाते हैं, कि उनके मामले की सुनवाई होगी और उन्हें राहत मिलेगी। धारा 370, दिल्ली में हो रहे दंगे, चुनाव बांड की याचिका, महाराष्ट्र में उद्धव सरकार को गिराने में हुए दल बदल और ऐसे दर्जनों मामले हैं। जिनकी सुनवाई में कई वर्षों तक का विलंब किया गया। मामले हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच झूलते रहे। तारीख पर तारीख मिलती रही। समय पर फैसला नहीं मिला। जब न्याय मिला, तो वह भी आधा अधूरा था। जिस महाराष्ट्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक बताया। दल बदल के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जिस तरह से विधानसभा अध्यक्ष और चुनाव आयोग के बीच झलता रहा। वह सबके सामने है। ऐसी स्थिति इसके पहले न्याय पालिका की कभी नहीं थी। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में आए दिन याचिकाओं को खारिज करने और उस पर जुर्माना लगाने की खबरें निरंतर मिल रही हैं। जुर्माना लगाने से लोग जनहित के मामलों में आवाज उठाने से डरने लगे हैं। सरकार सुनती नहीं है, प्रदर्शन नहीं करने दिया जाता है। न्यायपालिका ने भी अपने दरवाजे इसी तरीके से बंद कर लिए, तो आम लोग कहां जाएंगी। यह आम जनता के बीच में चर्चा का विषय बनने लगा है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को भी इस पर विचार करना चाहिए। न्याय पालिका पूरी तरह से स्वतंत्र है1 विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों से लोगों के मौलिक अधिकार प्रभावित होते है। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका ही उन्हें संरक्षण दे सकती है। लेकिन न्यायपालिका का संरक्षण सरकार के पक्ष में जाता हुआ दिख रहा है, यह चिंता का विषय है। ईएमएस / 23 अप्रैल 24