एक सज्जन अपनी पत्नी के साथ मुझसे मिलने आये। उनकी पत्नी धर्म में बड़ी रुचि रखती थीं। बातचीत में उन्होंने बताया कि वह टीवी पर अनेक वक्ताओं के प्रवचन सुनती हैं, अनेक धर्मग्रंथ पढ़ती हैं, हर देवी-देवता के मंदिर जाती हैंआदि-आदि। पर वह चिन्तित थीं कि अभी तक वह अपनी साधना का मार्ग तय नहीं कर पा रही हैं। यह समस्या केवल अध्यात्म के मार्ग में ही नहीं संसार के कामों में भी है, केवल उनके साथ ही नहीं हम सबके साथ भी है। जीवन चलता जाता है और अंत में निराशा ही हाथ लगती है कि, हाय ! हम जीवन में कुछ भी नहीं कर पाए। सांसारिक जीवन में लक्ष्य अनेक होते हैंपरंतु प्रत्येक को पाने का मार्ग एक ही होता है। उदाहरण के लिए यदि संगीतकार बनना है तो मार्ग होगा संगीता साधना, वैज्ञानिक बनने का मार्ग है विज्ञान पढ़ना आदि। जबकि अध्यात्म में लक्ष्य तो एक ही होता है - आत्मसाक्षात्कार या मुक्ति– परन्तु उसे पाने के मार्ग अनेक होते हैं जैसे कर्म, ज्ञान, ध्यान, भक्ति आदि। अध्यात्म पथ पर चलने वाले भी जब साधना का मार्ग तय नहीं कर पाते तो जो मिलता जाता है करते जाते हैं। वे पूजा भी कर लेंगे, कोई योग शिविर लगा तो वहाँ भी चले गये, कोई बाबाजी आए तो उन्हें भी सुन लिया, वाट्सएप पर आनेवाले (अधिकतर अप्रमाणिक) तथ्यों को भी मान लिया, कोई पर्ची लिखने लगा या कोई थोक के भाव में ट्रकभर रुद्राक्ष खरीद कर बॉंटने लगा तो वहाँ भी दंडवत हो गये। व्यास जी ने वेद, पुराण, उपनिषद, महाभारत जैसे महान ग्रंथों की रचना कर दी पर उन्हें शांति नहीं मिली। मन बैचेन रहता था। उन्होंने नारद जी से इसका कारण पूछा तब नारद ने कहा कि कृष्ण के प्रेम से पगी भागवत् की रचना करो। उसी एक पर ध्यान केंद्रित करो। रहीम कह गये हैं कि - एकै साधे सब साधे सब साधे सब जाए। रहिमन मूलहिं सींचिवो फूलै फलै अघाय।। पौधे के तने, पत्तों, फूल आदि सभी अंगों को पानी नहीं देना पड़ता केवल जड़ में पानी देने से ही पौधा फलने फूलने लगता है। इसी प्रकार जीवन को सार्थक बनाने के लिए हमें भी यह पता होना चाहिए कि हमारे जीवन रूपी पौधे की जड़ कहाँ पर है। अपनी जड़ की पहचान करना, हमारी सांसारिक और अध्यात्मिक दोनों तरह की यात्राओं के लिए आवश्यक है। सृष्टि में प्रत्येक व्यक्ति, जीव, जंतु, फूल, पत्ती अद्वितीय है। हम भी सृष्टि में अपनी तरह के अकेले हैं।हमारे जन्म-जन्मांतरों के संस्कारों से हमारा मूल स्वभाव बना है। इसीलिए हर व्यक्ति की रुचि, चेतना का स्तर, अलग-अलग है और उसी के अनुरूप उसे पढ़ना-लिखना, व्यापार करना, बल का उपयोग करना या शारीरिक श्रम करना अच्छा लगता है (गीता 4.13, 18.41)। हमारे स्वभाव में इन चारों गुणों में से कोई भी एक पूर्णरूप से नहीं होता बल्कि चारों का मिश्रण होता है। हर व्यक्ति में उनका परस्पर अनुपात अलग-अलग होता है। इसी प्रकार प्रकृति के तीन गुण सत, रज और तम हमारी मनोदशा को निर्धारित करते हैं। इनका अनुपात भी व्यक्ति में समय और परिस्थितियों के साथ बदलता है (गीता 14.10)। सामान्य रूप से शांत रहनेवाला व्यक्ति भी कभी कभी क्रोधित हो सकता है अर्थात् उसके सतोगुण पर तमोगुण प्रभावी हो गया है । इसी प्रकार आलसी और अकर्मण्य भी कभी काम करने में लग जाता है अर्थात् उसके तमोगुण पर उसका रजोगुण प्रभावी हो गया है।गीता में भगवान् ने व्यक्ति के मूल स्वभाव या प्रकृति के अनुसार होने वाले कर्मों को फल की आसक्ति के बिना करने को उद्धार का मार्ग बताया है (गीता18.47)। इन कर्मों को हम जबरदस्ती छोड़ नहीं सकते। अर्जुन से भगवान् ने कहा कि यदि तुम युद्ध नहीं करोगे तो भी तुम्हारा क्षत्रिय स्वभाव तुम्हें स्वमेव युद्ध करने के लिए विवश कर देगा।(गीता 3.33, 18.59,60)। प्रकृति द्वारा दिया गया हमारा मूल स्वभाव ही हमारी जड़ है। इस जड़ को ही सींचना है अर्थात् उसी के अनुरूप कार्य, साधना करने से जीवन रूपी पौधा सार्थक हो सकेगा। अत: आवश्यक है कि हम अपने मूल स्वभाव को पहचानें और उसी के अनुरूप एक लक्ष्य निर्धारित कर जीवन को होम कर दें। यदि हम शरीर पर ज्यादा आधारित हैं तो कर्मयोग ही हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ होगा। यदि हमें लगता है कि हमारे शरीर में बुद्धि प्रभावी हैतो ज्ञानमार्ग की साधना उचित होगी। यदि हम शरीर या मस्तिष्क की तुलना में भावना प्रधान हैं अर्थात्हमारा हृदय अधिक प्रभावी है तो भक्तिमार्गी साधनाएँ उपयोगी होंगीं। इनमें से किसी एक को चुनना है जो हमारी प्रकृति के अनुरूप हो और उसी पर एकाग्र रहना है। सनातन धर्म में, सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन,दोनों ही मान्य हैं। पूर्व जन्मों की संचित वासनाओं को पूर्ण करने के लिए धन उपार्जन व काम सेवन भी आवश्यक है परंतु यह सदैव नहीं चल सकता । जैसे ही हम आध्यात्मिक जीवन की ओर कदम बढ़ाते हैं यह स्वमेव कम होता जाता है। गीता में भगवान् कृष्ण ने विभिन्न लक्ष्यों में उलझी हुई बुद्धि को अव्यवसायिक और लक्ष्य पर एकाग्र बुद्धि को व्यवसायिक या निश्चयात्मक कहकर सफलता प्राप्ति के लिए व्यवसायिक बुद्धि को आवश्यक बताया है (गीता 2.41,44)। प्राथमिक कक्षा में गणित, भाषा, इतिहास, विज्ञान आदि सभी विषय पढ़ाए जाते हों पर आगे की कक्षाओं में विषय कम होते जाते हैं और विशेषज्ञ पढ़ाई बढ़ती जाती है। पीएचडी में तो किसी एक विषय के एक छोटे से अंश को लेकर उस पर गहनता से अध्ययन करते हैं। जीवन के प्रारंभ में सभी क्षेत्रों की जानकारी लेना आवश्यक है। पर इसके बाद आध्यात्मिक जीवन के लिए एक मार्ग चुनना ही पड़ेगा। जैसे कर्म, ज्ञान, भक्ति और राजयोग सभी समझ लिया परंतु हम चारों को एक साथ साध पाएँ यह संभव ही नहीं है । इसलिए किसी एक पर ध्यान देना है जो हमारी प्रकृति और संस्कारों के अनुरूप है। उम्र बढ़ने के साथ जीवन का समय घटता जाता है इसलिए बचे समय को किसी एक पर एकाग्र करना आवश्यक है। अच्छे से अच्छा पढ़ाकू व्यक्ति भी व्यक्ति भी जीवन में लगभग 1000 किताबें ही पढ़ सकता है। इसलिए अब हर ग्रंथ पढ़ना, हर विचार जानना संभव नहीं है। इसलिए आध्यात्मिक जीवन का एक मार्ग निश्चित करो। हमें आध्यात्मिक जीवन जीना है, खिचड़ी जीवन नहीं। स्वामी विवेकानन्द जी कहते थे –एक विचार (आदर्श) चुनो, उस पर प्रतिदिन विचार करो, महीनों विचार करो, वर्षों विचार करो जब तक तुम उस विचार के साथ एक न हो जाओ। ईश्वर एक हैफिर भी शास्त्र और पुराणकर्ताओं ने विभिन्न देवताओं की उपासना का विधान किया है ताकि अपने स्वभाव और रुचि के अनुसार हर व्यक्ति को उपासना करने के लिए व्यवस्था हो सके। जब वे उस देव या देवी की उपासना और भक्ति पर पूर्ण एकाग्र होकर उसका साक्षात्कार कर लेते हैं तो उसी देवता के माध्यम से उन्हें सर्वत्र एक ही ईश्वर की प्रतीति होने लगती है। (गीता 7.21) किसी मंदिर में चारों दिशाओं से लोग आऍंगे । यह संभव ही नहीं कि सभी लोग किसी एक ही मार्ग का उपयोग करें न ही यह संभव है कि एक ही व्यक्ति सभी मार्गों का उपयोग करें। हमें तो किसी एक ही मार्ग पर चलना होगा। हरिवंशराय बच्चन अपने सूफियाना अंदाज में कहते हैं - राह पकड़ तू एक चला चल पा जाएगा मधुशाला ।अपनी इच्छा, रुचि के अनुसार एक मार्ग तय कर उस पर चलें तो अंत में परम लक्ष्य तक पहुँच जाऍंगे। लेखक- ओमप्रकाश श्रीवास्तव,आईएएस अधिकारी तथा धर्म और अध्यात्म के साधक, 04 मईए 2024