जैसे ही जानकी-नवमी मनाने का समाचार पढ़ी सही तरह से जानकारी देना उचित समझा जो वैदिक मान्यता पर आधारित है दरअसल जानकी-नवमी मनाने की प्राचीन परम्परा तो फाल्गुन कृष्ण अष्टमी के पक्ष में है। कन्नौज के लक्ष्मीधर (12वीं शती) ने कृत्यकल्पतरु में तथा मिथिला के म.म. चण्डेश्वर (14वीं शती) ने कृत्यरत्नाकर में इसी तिथि का उल्लेख किया है। फाल्गुनस्य च मासस्य कृष्णाष्टम्यां मही मिता॥ नारदप्रेरितैर्विप्रैर्दक्षपुत्रैः सिसृक्षुभिः। सुबुध्या सूक्ष्ममानेन समुद्रगिरिवर्जिता॥ अतोऽर्थं तु महीमानं स्वल्पं तत्र निगद्यते। पितृभिः पूर्वदेवैस्तु तत्र कृत्वा महत्तपः॥ अपूपैः प्रार्थितं श्राद्धं मनुष्येभ्यो जनार्दनात्। फाल्गुन मास की अष्टमी तिथि को नारद के कहने पर दक्ष के पुत्रों ने पृथ्वी को मापने का काम किया। उन्होंने अपनी अच्छी बुद्धि से बहुत बारीकी से समुद्र तथा पर्वत को छोड़कर पृथ्वी को माप लिया कि इसकी कितनी तथा चौड़ाई है। इसलिए इस दिन पृथ्वी सिकुड़कर छोटी हो जाती है। पितरों तथा उनके पूर्व के देवताओं ने महान् तपस्या कर विष्णु के मुख से उपदेश दिलाया कि मनुष्यों को इस दिन पुआ से पितरों की तुष्टि के लिए श्राद्ध करना चाहिए। अथ सस्यानि पूर्णानि मुनिभिः कमलोद्भवात्॥ प्रजानां वर्धनार्थाय कदाचित्तत्र सर्वदा। जाता दाशरथेः पत्नी तस्मिन्नहनि जानकी॥ उपोषितो रघुपतिः समुद्रस्य तटे तदा। सर्वसस्यैश्वरस्तस्मात्तत्र कर्तव्य एव हि॥ इसके बाद मुनियों ने पृथ्वी को अन्न से भर देने के लिए ब्रह्मा की उपासना की तो उनके वरदान से प्रजा की वृद्धि के लिए इसी दिन यानी फाल्गुन कृष्ण अष्टमी के दिन दशरथ के पुत्र राम की पत्नी जानकी का प्रादुर्भाव हुआ और समुद्र के तट पर राम सभी अन्नों के स्वामी के रूप में पूजित हुए। इसलिए इस दिन ऐसा कर्म करना चाहिए। सापूपैस्तत्र संपूज्या विप्रसंबन्धिबान्धवाः। रामपत्नी च संपूज्या सीता जनकनन्दिनी॥ इस अवसर पर विप्र, सगे-संबन्धी तथा बन्धु-बान्धवों को पुआ देकर संतुष्ट करना चाहिए तथा राम की पत्नी जनकनन्दिनी सीता की पूजा करनी चाहिए। ततो नवम्यां लक्ष्मीश्च ब्राह्मणाश्च बहुश्रुताः। हृद्येन पिष्टभोज्येन मधुयुक्तेन सर्वदा॥ इसके बाद नवमी के दिन लक्ष्मी की पूजा करें, साथ ही, विद्वान् ब्राह्मणों को मधु के साथ अन्न को पीस कर बनाए गये खाद्यान्न अर्पित करें। बहुप्रकारैर्भोज्यैश्च दशम्यां मित्रबान्धवाः। तर्प्यस्त्वात्मा च संपूज्यः श्रोतव्यं गीतवादितम्॥ मङ्गलालम्भनं कार्य नित्यमेव दिनत्रयम्। अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ से दशमी के दिन मित्र एवं बन्धु-बान्धवों को तृप्त करें तथा स्वयं भी आनन्दित रहें। गाना-बजाना सुनें तथा तीन दिनों तक मंगल आचरण करें। चौदहवीं शती में चण्डेश्वर ने भी कृत्यरत्नाकर में इसी प्रसंग को कुछ मामूली पाठान्तर के साथ उद्धृत करते हुए. मिथिला मे सीतापूजा का उल्लेख किया है। उन्होंने इति सीतापूजा लिखकर इस प्रसंग को और स्पष्ट किया है। स्पष्ट है कि मिथिला की प्राचीन परम्परा फाल्गुन कृष्ण अष्टमी से लेकर तीन दिनों तक इस उत्सव को मनाने की रही है। इस प्रसंग से एक बात तो सामने आती है कि सीता की पूजा में विशेष रूप से पुआ भोग लगाने की परम्परा रही है। लेकिन, आधुनिक काल में वैशाख शुक्ल नवमी के दिन जानकी-जन्मोत्सव मनाया जाता है। यह परम्परा भी कम से कम विगत शती से आ रही है। ईएमएस / 16 मई 24