लेख
17-Jun-2024
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18 जून बलिदान दिवस पर विशेष) 11 मई 1857 का सैनिक विद्रोह अंग्रेजो के खिलाफ देश को आजाद कराने के लिए महान क्रांतिकारियों ने महारानी लक्ष्मीबाई क नेतृत्व में अंग्रेजो से स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी । झांसी की रानी महारानी लक्ष्मीबाई का व्यक्तित्व आकर्षक दर्पण साबित होता है। प्रसिद्ध कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखा था- बुन्देलो हरबोलों के मँुह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। महारानी लक्ष्मीबाई का मूल नाम मणिकर्णिका था स्वतंत्रता सेनानीयों की अधिष्ठात्री, 1857 जन क्रान्ति की महान सेना नायक और अंग्रेजी शासन की जडों को हिला देने वाली महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म कार्तिक वदी 14 विक्रम संवत 1892 कार्तिक वदी 14 (19 नबम्बर 1835) में बनारस (काशी) में हुआ था। वह इतिहास में मनु के नाम से विख्यात हुई। मनु के पिता मोरोपंथ तांबे मूलतः सतारा महाराष्ट्र के रहने वाले थे। वे बाजीराज पेशवा के बिठूर के दरवार में कार्य करते थे। उन्होने अपनी पत्नी के देहान्त के बाद अपनी पुत्री का पालन पोषण बड़े ही प्यार से किया। उन्होंने घुड़सवारी, तलवारबाजी, अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा मँुहबोले भाई नाना साहब पेशवा के साथ प्राप्त की थी। अद्वितीय साहस वीरता एवं निर्भीकता के कारण उनकी शिक्षा दीक्षा राजकीय ढंग से हुई। झांसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर की पहली पत्नी का देहान्त होने तथा उसकी कोई संतान न होने के कारण झांसी का कोई उत्तराधिकारी नहीं था इसलिये झांसी के राजा के राजा को सभी दरबारियों ने सलाह देकर राजा गंगाधर राव को दूसरी शादी करने की सलाह दी 13 वर्ष की आयु में मनु का विवाह राजा गंगाधर राव से हो गया। झांसी में मनु का नाम बदलकर महारानी लक्ष्मीबाई हो गया। सन् 1851 में लक्ष्मीबाई को एक पुत्र की प्राप्ति हुई पर दुर्भाग्य से चार महीने की अल्प आयु में ही उनका निधन हो गया उत्तराधिकारी चाहिये था तो उन्होंने दामोदर राव नाम के एक बालक को गोद ले लिया। अंग्रेजो ने नीति बनाई थी जिस राज्य का उत्तराधिकारी नहीं होगा उस राज्य पर अंग्रेजो का अधिकार हो जायेगा। 21 नबम्बर 1853 को हृदयाघात से झांसी के राजा गंगाधर राव झांसी के राजा की मृत्यु हो गई। तब महारानी लक्ष्मीबाई ने झांसी का शासन का कार्य कुशलतापूर्वक अपने हाथ में लिया और उसका संचालन किया । झांसी का कोई वैध उत्तराधिकारी नहीं था । लार्ड डलहौजी ने विलय नीति के अन्तर्गत झांसी पर अधिकार करने के लिये महारानी लक्ष्मीबाई पर दबाब डाला। डलहौजी अंग्र्रेजो का सबसे महत्वाकांक्षी व साम्राज्यवादी गर्वनर जनरल था। भारत में अंग्रेजी साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। इसलिये उसने विलय नीति लागू की। उसने कई राज्यों को अपनी इस नीति के कारण हड़प लिया। कोई भी भारतीय शासन ओरस पुत्र के अभाव में दत्तक पुत्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं कर सकता इस अंग्रेजो की नीति के खिलाफ महारानी लक्ष्मीबाई ने जोरदार विरोध किया। उनकी इस रणनीति में नाना साहब पेशवा, तात्याटोपे, बिहार के कुंवर सिंह, दिल्ली के मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर, बेगम हजरत महल के गोहद व भिण्ड के राजा भी महारानी लक्ष्मीबाई के साथ थे। अंग्रेजो को मार भगाने के लिये तथा क्रांति का दिन 11 मई 1857 निर्धारित किया गया। झांसी की रानी के किले को अंग्रेजो ने चारो तरफ से घेर लिया तथा कई दिनों तक अपने तोपचियों एवं सैनिकों के साथ अंग्रेजो से मुकाबला करती रहीं। महारानी लक्ष्मीबाई को उनके दरबारियों ने सलाह दी कि अंग्रेजो का मुकाबला किले के अन्दर से नही बाहर से करना होगा। महारानी लक्ष्मीबाई अपने सैनिकों के साथ अपने गोद लिये पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधकर किले से बाहर निकली और उनके सैनिक अंग्रेज सैनिकों पर टूट पडे़। महारानी लक्ष्मीबाई का साथ कई स्टेटे के राजा महाराजा, तात्या टोपे आदि क्रंातिकारी दे रहे थे। कालपी छोड़ने के बाद रानी बांदा के नबाब और तात्या टोपे की राजनीति के तहत जब 28 मई 1857 को राब साहब आमन गांव (ग्वालियर के निकट) इस आशय से पहुंचे कि जीवाजीराव उन्हें अंग्रेजों के विरूद्ध सैनिक सहायता तथा युद्ध में साथ देेंगे, परन्तु उन्हें निराशा ही हाथ लगी। सहायता के स्थान पर जीवाजीराव के चार सौ पैदल और डेढ़ सौ घुड़सवारों ने उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया। लेकिन तात्या टोपे ने उन सैनिकों को समझाने व उनमें देशभक्ति व स्वातंत्रय संघर्ष का मंत्र फूंक कर उन्हें आजादी के मार्ग का रोड़ा न बनने के लिए प्रोत्साहित किया। महारानी लक्ष्मी बाई अंग्रेजी सेना से लड़ते हुये शिवपुरी होते हुये अपने सैनिको के साथ ग्वालियर आई थी। राव साहब संघर्ष के लिये आगे बढ़ गए और 30 मई 1857 को पेशवा की सेना आमन गॉव पहंुच गई। पेशवा ने पूरी तैयारी के साथ मुरार छावनी में पड़ाव डाल दिया। दिनकार राव ग्वालियर स्टेट के रंेजीमेन्ट थे अंग्रेजो के आदेश पर ही कार्य करते थे। जीवाजीराव का जन्म भागीरथ छिन्दे के रूप में 19 जनवरी 1835 को हनुमन्त राव के पुत्र के रूप में जन्म हुआ। ग्वालियर के तत्कालीन महाराजा तृतीय मराठा सरदार जानकोजी राव की मृत्यु सन 1843 में हुई जीवाजीराव सिधिया को 22 फरवरी 1843 को राजगददी पर बैठाया गया। 1857 की कांन्ति के समय जीवाजीराव की उम्र - 22 वर्ष थी। महाराजा जीवाजीराव व दिनकर राव सरदारों ने थोड़ा सा युद्ध किया परन्तु वे रानी की वीरता के सामने टिक न सके दिनाकर राव के कहने पर जीवाजीराव सिधिया ग्वालियर छोडकर और पराजित होकर आगरा भाग गए। ग्वालियर पर पेशवा व महारानी लक्ष्मीबाई का अधिकार हो गया । ग्वालियर रियासत में महारानी लक्ष्मीबाई की फौज का गोला बारूद खत्म हो गया था तथा आर्थिक तंगी से सेना जूझ रही थी। 1857 की क्रांति के समय महारानी लक्ष्मीबाई और उनके सेनानायक राव साहब, तात्या टोपे आदि क्रांतिवीर ग्वालियर के रणक्षेत्र में अंग्रेजों के विरूद्ध डटे हुये थे परन्तु लक्ष्मीबाई के सैनिकों को कई माह से वेतन नहीं मिला था न ही राशन पानी का समुचित प्रबंध नहीं हो पा रहा था, तब सिंधिया नरेश के राजकोष गंगाजली (खजाना) कोषालय के प्रधान का चार्ज अमरचन्द बाठिया के पास था। 2 जून 1857 को राव साहब ने अमरचन्द बाँठिया को कहा कि उन्हें सैनिकों को वेतन आदि भुगतान करना है, क्या वे इसमें सहयोग करेंगे। 5 जून 1857 के दिन राव साहब के साथ अमर चन्द्र बाँठिया जी ने अपनी जान की परवाह न करते हुए क्रंातिकारियांे की मदद की और ग्वालियर का गंगाजली राजकोश लक्ष्मीबाई एवं स्वत्रंता सैनिको के हवालेे कर दिया। तत्कालीन परिस्थितियों में श्री बाँठिया का निर्णय महत्वपूर्ण था। इसका विवरण सेन्ट्रल इण्डिया एजेन्सी ऑफिस में ग्वालियर रेजीडेन्सी की एक फाइल 1261 राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली में है। क्रंातिकारी सैनिकों को 5-5 माह का वेतन वितरित किया गया। अमरचन्द बाठिया की सहायता से क्रांतिकारी के हौंसले बुलन्द हो गये थे उन्होने अंग्रेजी सेनाआंे के दात खटटे कर दिये थे । ग्वालियर पर कब्जा कर लिया था। गर्वनर जनरल ह्यूरोज ने अपनी सेना के साथ महारानी लक्ष्मीबाई से युद्ध किया जिसमें महारानी लक्ष्मीबाई गम्भीर रूप से घायल हो गई। अंग्रेजो की एक गोली महारानी लक्ष्मीबाई की गर्दन पर लगी जिससे वो युद्ध लड़ने में असमर्थ हो गई महारानी लक्ष्मीबाई जहाँ अंग्रेजों से युद्ध लड़ रही थी वहीं पर बाबा गंगादास जी की कुटिया कुछ ही दूरी पर थी । बाबा गंगादास के कहने पर क्रांतिकारी सन्यासियों ने अंग्रेजों से भाले तलवार से लड़ाई लड़ रहें थे इस लडाई में 100 से ज्यादा साधु देश की अजादी के लिये शहीद हो गये । आज भी उनकी समाधि बाबा गंगादास की शाला में बनी हुई है। बाबा गंगादास के कहने पर महारानी लक्ष्मीबाई को बाबा गंगादास की कुटिया में घायल अवस्था में लाया गया बाबा गंगादास जी महारानी लक्ष्मीबाई को गंगाजल पिलाया और महारानी लक्ष्मीबाई ने अपने 18 जून 1857 को प्राण देश के लिये न्यौछावर कर दिये। बाबा गंगादास जी के कहने पर देश भक्त सन्यासियों ने घास फूस की कुटिया की चिता बनाकर महारानी लक्ष्मीबाई का अंतिम संस्कार कर दिया उनका शरीर अंग्रेजो के हाथ न लगे पाये। महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान के चार दिन बाद 22 जून 1957 को ग्वालियर में ही राजद्रोह के अपराध में न्याय का ढोग रचकर सराफा बाजार में ब्रिगेडियर नैपियर व ग्वालियर महाराज जीवाजीराव द्वारा नीम के पेड़ पर लटकाकर अमरचन्द्र बाठिया जी को फांसी दे दी गई । 4 दिन तक शहीद अमरचन्द्र वाठिया का शरीर पेड़ से लटका रहा आज उनक वंशज कानपुर उत्तर प्रदेश में रहते है। इस लडाई में 290 अंग्रेज भी मारे गये थे जिनकी कब्र ग्वालियर किलें व मुरार में बनी हुई है। 1857 की कांन्ति के बाद झॉसी का किला बिटिश फौज के कब्जें में आ गया था। उस समय झॉसी ध्वज जिस पर हनुमान जी की छवि अंकित थी तथा काफी बहूमूल्य समान हाथ लगा था। जिसे राजपूताना रायफल को सौप दिया गया था। बहूमूल्य सामान भी राजपूताना रायफल से चोरी हो गया। वर्तमान में महारानी लक्ष्मी बाई की वंशज खजराना गणेश जी के पास में तथा नागपुर में झॉसी वालो के नाम से रहते है। महारानी लक्ष्मीबाई के वंशज आज भी गुमनामी का जीवन जी रहे है। दामोदर राव को महारानी लक्ष्मीबाई ने विश्वास पूर्ण सिपाहसालार जवाहर सिंह रामचन्द्र राव देशमुख से किसी तरह दामोदर राव को जीवित बचा कर ले जाने को कहा । उनके साथ 60 साथी 20 घोडे, व 20 ऊँट थे। शिवपुरी के पास दामोदर राव शरण लिये हुये थे उस समय दामोदार की तबियत ज्यादा खराब हो गई । जिस जागीरदार ने अपने यहॉ ठहराया था उसके बदले 10 घोडे ,12 ऊट तथा 500 रूपये दामोदारस के सेवादारो से लिया था। कुछ समय बाद उनके साथी नन्ने खा, रिसालरदार एवं गणपतराव मराठा दल छोड़कर चल दिये रामचन्द्र राव देशमुख तथा जवाहरसिंह ने निर्णय लिया कि शिवपुरी की पास पाटन सैनिक छावनी के इन्चार्ज मेजर फिल्क दयालु इंसान था मेजर फिल्क से मिला जाये और दामोदर राव के प्राण रक्षा की गुहार लगाई जायें पर कैसे रानी की अन्तिम धरोहर जो महारानी लक्ष्मीबाई ने दामोदर दास कीे रक्षा के लिये दी थी वो हाथ का सोने का कडा करीब 32 तोले का था उसे बेचा गया उस रकम को लेकर, इंदौर के राजा होल्कर के पास ले जाया गया इदौर के राजा होल्कर ने अंग्रजो से अपनी वफादारी निभाने के लिये इसकी सूचना ब्रिटेश सरकार के मेजर फिल्क दी थी।दामोदर दास को अंग्रेेज अधिकारी सर रिचमड शेक्सपियर के पास ले गये अंग्रेजो के कहने पर दामोदर दास को पीली कोठी इन्दौर में रखा गया । कई रियासतों के निवेदन पर अंग्रेजो ने 10000/- रूपये सालाना दामोदर राव की पेंशन बांध दी। दामोदर राव की पहली पत्नि का निधन हो जाने के बाद उनका दूसरा विवाह हुआ जिससें उन्हे लक्ष्मणराव पुत्र हुये। इन्दौर में रहते हुये दामोदर राव की शिक्षा हुई लक्ष्मण राव पुत्र कृष्ण राव, विश्वास राव हुये इंदौर में ही सारा जीवन दामोदर दास ने गुजारा। दामोदार राव जी की मृत्यु 18 मई 1906 को इन्दौर में हुई दामोदर राव जी ने मृत्यु से पूर्व शेष जीवन इन्दौर में ही गुजारा । झांसी ब्लूबुक के अनुसार उनके पूवजो का 7 लाख रूपया अंग्रेजो द्वारा सरकारी खाजने में जमा कराया गया था। वो भी इनको नही मिला, न ही उनके पुत्र लक्ष्मणराव को। महारानी लक्ष्मीबाई के पुत्र दामोदर राव के वंशजो की एक शाखा इंदौर में जानकी नगर में रहती है दूसरी खजराना गणेश मन्दिर में रहती है। तथा नागपुर में भी उनके वंशज योगेश अरूण रहते है। आज भी उनका परिवार झांसी वालों के नाम से इन्दौर में जाना जाता है। स्वतंत्रा संग्राम की वीरंगना महारानी लक्ष्मीबाई का स्मारक ग्वालियर नरेश माधवराव सिंधिया आलीजाह बहादुर के शासन काल (1920) मे पुरातत्व विभाग ने ग्वालियर में बनवाया । महारानी लक्ष्मीबाई का छायाप्रति कही भी उपलब्ध नही था। गुजरी महल संग्राहलय ग्वालियर में महारानी लक्ष्मीबाई तात्याटोपे के 19 वी, सदी के चित्र उपलब्ध है। अंग्रेजो के शासन के समय जिन राजा महाराजाओं ने अपने यहॉ अग्रेजो को खाने पर बुलाते थे वही राजा महाराजा उनकी झूठी पत्तल उठाते थे । उनके वंशज आजादी के बाद आज भी राज कर रहे है। (स्वतंत्र पत्रकार) .../ 17 जून /2024