लेख
06-May-2025
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(रवीन्द्रनाथ टैगोर जयंती (7 मई) पर विशेष) कोलकाता में साहित्यिक माहौल वाले कुलीन धनाढ्य परिवार में 7 मई 1861 को जन्मे रवीन्द्रनाथ टैगोर एक कवि, उच्च कोटि के साहित्यकार, उपन्यासकार और नाटककार के अलावा संगीतप्रेमी, अच्छे चित्रकार तथा दार्शनिक भी थे। टैगोर एशिया के प्रथम ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्हें वर्ष 1913 में विश्वविख्यात महाकाव्य ‘गीतांजली’ की रचना के लिए साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था। हालांकि उन्होंने यह पुरस्कार स्वयं समारोह में उपस्थित होकर ग्रहण नहीं किया था बल्कि ब्रिटेन के एक राजदूत ने यह पुरस्कार लेकर उन तक पहुंचाया था। नोबेल पुरस्कार में मिले करीब एक लाख आठ हजार रुपये की राशि टैगोर ने किसानों की बेहतरी के लिए कृषि बैंक तथा सहकारी समिति की स्थापना और भूमिहीन किसानों के बच्चों की शिक्षा के लिए स्कूल बनाने में इस्तेमाल की। टैगोर की महान रचना ‘गीतांजली’ का प्रकाशन वर्ष 1910 में हुआ था, जो उनकी 157 कविताओं का संग्रह है। इसी काव्य संग्रह को बाद में दुनिया की कई भाषाओं में प्रकाशित किया गया। मार्च 1913 में लंदन की मैकमिलन एंड कंपनी ने इसे प्रकाशित किया और 13 नवम्बर 1913 को नोबेल पुरस्कार की घोषणा से पहले इसके दस संस्करण छापे गए। टैगोर की कुछ कविताएं तो बांग्लादेश के स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा भी हैं। जहां तक भारत के राष्ट्रीय गीत ‘जन गण मन’ की बात है कि इसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के दूसरे दिन का काम शुरू होने से पहले 27 दिसम्बर 1911 को पहली बार गाया गया था। हालांकि उस दौरान इस बात को लेकर भी कुछ विवाद चला कि कहीं उन्होंने यह गीत अंग्रेजों की प्रशंसा में तो नहीं लिखा लेकिन इसके रचयिता टैगोर ने स्पष्ट करते हुए कहा था कि इस गीत में वर्णित ‘भारत भाग्य विधाता’ के केवल दो ही अर्थ हो सकते हैं, देश की जनता या फिर सर्वशक्तिमान ऊपर वाला, फिर चाहे उसे भगवान कहें या देव। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तथा रवीन्द्र नाथ टैगोर राष्ट्रीयता, देशभक्ति, तर्कशक्ति इत्यादि विभिन्न मुद्दों पर अलग-अलग राय रखते थे लेकिन दोनों एक-दूसरे का बहुत सम्मान भी किया करते थे। साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद टैगोर को गांधीजी ने ही सर्वप्रथम ‘गुरूदेव’ कहा था जबकि गांधीजी को महात्मा की उपाधि टैगोर ने दी थी। उन्होंने 12 अप्रैल 1919 को गांधीजी को ‘महात्मा’ का सम्बोधन करते हुए एक पत्र लिखा था, उसके बाद ही गांधीजी को महात्मा कहा जाने लगा। मात्र आठ वर्ष की आयु में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी पहली कविता लिखी थी और 16 वर्ष की आयु में कहानियां तथा नाटक लिखना शुरू कर दिया था। बैरिस्टर बनने के सपने के साथ वह 1878 में इंग्लैंड चले गए थे लेकिन दो ही वर्ष बाद डिग्री लिए बिना ही भारत लौट आए। 1901 में सियालदह छोड़कर पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में स्थित शांतिनिकेतन में आने के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोर ने वहां प्रकृति की गोद में खुले प्राकृतिक वातावरण में वृक्षों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ केवल पांच छात्रों के साथ छोटे से ‘शांतिनिकेतन स्कूल’ की स्थापना की, जो 1921 में ‘विश्वभारती’ नाम से एक समृद्ध विश्वविद्यालय बना।। 1919 में उन्होंने शांतिनिकेतन कला के एक स्कूल ‘कला भवन’ की भी नींव रखी, जो दो साल बाद विश्वभारती विश्वविद्यालय का हिस्सा बन गया। शांतिनिकेतन में ही गुरूदेव ने अपनी कई साहित्यिक कृतियां लिखी और यहां मौजूद उनका घर आज भी ऐतिहासिक महत्व का है। उनका ज्यादातर साहित्य काव्यमय रहा और अनेक रचनाएं गीतों के रूप में प्रसिद्ध हैं। 1880 के दशक में उन्होंने कविताओं की कई पुस्तकें प्रकाशित की और 1890 में ‘मानसी’ की रचना की। कविता, गान, उपन्यास, कथा, नाटक, प्रबंध, शिल्पकला इत्यादि साहित्य की शायद ही ऐसी कोई विधा है, जिसमें उनकी रचना न हो। उनकी प्रमुख रचनाओं में गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया हैमांति, क्षुदिता, मुसलमानिर गोल्पो आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कई किताबों का अनुवाद अंग्रेजी में किया, जिसके बाद उनकी रचनाएं पूरी दुनिया में पढ़ी और सराही गई। उपन्यास में गोरा, चतुरंगा, नौकादुबी, जोगजोग, घारे बायर, मुन्ने की वापसी, अंतिम प्यार, अनाथ इत्यादि गुरूदेव के कुछ प्रमुख उपन्यास हैं। इनके अलावा काबुलीवाला, मास्टर साहब, पोस्टमास्टर इत्यादि उनकी कई कहानियों को भी बेहद पसंद किया गया। अपने जीवनकाल में गुरूदेव ने करीब 2230 गीतों की रचना की और बांग्ला साहित्य के जरिये भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान डाली। अपनी अधिकांश रचनाओं में उन्होंने इंसान और भगवान के बीच के संबंधों तथा भावनाओं को उजागर किया। सही मायनों में गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर मानवता के मुखर पैरोकार थे। उन्होंने अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, चीन सहित दर्जनों देशों की यात्राएं की। स्वामी विवेकानंद के बाद वे दूसरे ऐसे भारतीय थे, जिन्होंने विश्व धर्म संसद को दो बार सम्बोधित किया। बहुआयामी प्रतिभा के धनी गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने प्रोस्टेट कैंसर के कारण 7 अगस्त 1941 को कोलकाता में अंतिम सांस ली। (लेखक साढ़े तीन दशक से पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार हैं) ईएमएस / 06 मई 25