लेख
23-Jun-2025
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जीवन में कुछ लोग जन्म से ही किस्मत के लाल होते हैं, कुछ को ऊपर वाला किस्मत का खजाना थमा देता है और बाकी बचते हैं हम जैसे लोग, जिन्हें नियति कर्मचारी बनाकर भेजती है। पर कहते हैं न, जिसकी कुर्सी में ताकत है, उसकी मुस्कान में वजन और उसकी चुप्पी में धमाका होता है। और अगर वह कुर्सी एच आर हेड की हो, तो फिर क्या कहने! किसी त्यौहार की घंटी बजी नहीं कि गिफ्ट्स की झड़ी शुरू—महंगे कपड़ों से लेकर महंगे मोबाइल फोन तक, हर वो चीज़ जो सामान्य कर्मचारी सपने में देखे, वह एच आर हेड के टेबल पर यथार्थ बनकर सजती है। दीवाली पर तो जैसे ‘कारपोरेट कांवड़ यात्रा’ शुरू हो जाती है—हर कर्मचारी एक-एक पैकेट, मिठाई और महंगे उपहारों के साथ एच आर हेड के चरणों में अपना ‘भक्ति पत्र’ समर्पित करता है। और हेड साहब बड़ी ही उदारता से सबकी ‘सेवा भावना’ को सराहते हुए एक हल्की मुस्कान बिखेरते हैं, जिससे कर्मचारी यह भी समझ जाता है कि इस बार छुट्टी पास होगी या नहीं। जो कर्मचारी महंगा गिफ्ट लाया, उसकी सास की भी तबीयत खराब हो जाए, तो मेडिकल छुट्टी स्वीकृत; और जो खाली हाथ आया, उसका बाप भी अस्पताल में हो तो “रूल्स के खिलाफ” की चिट्ठी थमा दी जाती है। गिफ्ट लेना केवल सुविधा नहीं, एक रणनीतिक निवेश है। यह रिश्ता प्रेम का नहीं, पद का है, जिसमें गिफ्ट देने वाला नौकरी बचाना चाहता है और लेने वाला अहंकार में नहाना चाहता है। ऐसे सम्मान, ऐसे सुविधाएं, ऐसे तोहफों की बरसात देखकर दिल चिल्ला उठता है — काश मैं भी एच आर हेड होता। अपनी मर्जी की सत्ता : जब से मैंने दफ्तर का काम समझा है, तब से यह भी समझ में आ गया कि लोकतंत्र सिर्फ संविधान की किताबों में लिखा होता है, दफ्तरों में तो एक ही राजा होता है — एच आर हेड। उनके पास ऐसा अलौकिक अधिकार होता है कि वे पूरे विभाग को अपने मूड और मन से चला सकते हैं। विभागीय नियम केवल कागजों पर होते हैं, असली नियम तो उनकी मूंछ के ताव और चेहरे की झुंझलाहट से तय होते हैं। अगर हेड साहब आज मूड में हैं, तो प्रमोशन के लिए पेंडिंग फाइल भी उड़कर स्वीकृति तक पहुँच जाती है। लेकिन यदि मूड ‘सुबोध कुमार’ के छुट्टी मांगने से खराब हो गया, तो भले ही ‘रेणु शर्मा’ की फाइल में सब दस्तावेज़ हों, वह महीनों धूल खाती रहेगी। एच आर हेड की कुर्सी से आदेश नहीं, फरमान निकलते हैं। फाइल की स्वीकृति, अवकाश की मंज़ूरी, स्थानांतरण की सुविधा—हर चीज़ पर उन्हीं का एकाधिकार होता है। “मैंने मना किया है” — ये चार शब्द ऐसे होते हैं जैसे भगवान का वचन। और “ठीक है, मैं देखता हूँ”—ये चार शब्द कर्मचारी के दिल में ऐसा संदेह भरते हैं जैसे न्यायपालिका ने मामला लंबित कर दिया हो। जैसे ही कोई कर्मचारी नियमों की बात करता है, हेड साहब के होठों पर हल्की मुस्कान आ जाती है और वे कहते हैं, “ठीक है, तुम तो बहुत ज्ञानी हो, फिर अपने दम पर नौकरी कर लो।” यह सुनते ही व्यक्ति के मस्तिष्क में डर की घंटियाँ बजने लगती हैं। कितना अच्छा होता यदि मैं भी ऐसे अधिकारों से संपन्न होता— काश मैं भी एच आर हेड होता। चमचों का स्वर्ग और उनका प्रमोशन : दफ्तर में एक नस्ल ऐसी होती है जिसे जीव विज्ञान में कैटल क्लास नहीं, चमचा क्लास कहा जाना चाहिए। ये लोग अपना चेहरा शीशे में नहीं, एच आर हेड की आंखों में देखते हैं। उनकी सुबह साहब के लिए चाय लाने से होती है और शाम को साहब की कार को धुलवाने पर समाप्त होती है। इन चमचों की ‘ईमानदारी’ एच आर हेड के चुटकुले पर हँसने और आदेश को आदेश नहीं, आदेश+अवसर समझने में होती है। अब देखिए, जो कर्मचारी समय पर आए, फाइलें पूरी करे, नियमों का पालन करे — वो तो केवल अच्छा कर्मचारी कहलाता है। लेकिन जो चमचा सही समय पर साहब के घर भी पहुंचे, उनकी बेटी की शादी में हल्दी की रस्म में घी लगाए, उन्हें ‘साहब’ नहीं, ‘सर जी’ कहे — उसका प्रमोशन पक्का। और जब प्रमोशन की बैठक होती है, तो हेड साहब बड़ी बारीकी से इन चमचों के योगदान की व्याख्या करते हैं — “अरे मिश्रा जी, वो बहुत डेडिकेटेड है। पिछली बार मेरी गाड़ी पंचर हो गई थी, आधी रात को टायर बदलवाया। ऐसे लोगों को बढ़ावा मिलना चाहिए।” ऐसी चमचागिरी की व्यवस्थाओं में यदि मैं भी हेड होता, तो शायद दस-बीस चमचों की चमक में खुद को सूर्य समझ बैठता और बाकी कर्मचारियों को ग्रहण लगता। यह देखकर दिल कहता है — काश मैं भी एच आर हेड होता। ट्रेनिंग और विदेश यात्राओं की माया : जब कोई सामान्य कर्मचारी ट्रेनिंग शब्द सुनता है, तो उसे ऑफिस के कोने में बैठा कोई PPT बनाना और उबाऊ लेक्चर झेलना याद आता है। लेकिन जब यही शब्द एच आर हेड की डिक्शनरी में आता है, तो इसका मतलब होता है — घूमने का सुनहरा अवसर। ट्रेनिंग माने विदेश दौरे की अघोषित छुट्टी, फाइव स्टार होटल, आलीशान भोज और जेब खर्च अलग से। कागजों पर लिखा होता है “प्रशिक्षण हेतु राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय दौरा”, लेकिन असलियत में यह होता है “पिकनिक विद ए पर्पस”। प्रशिक्षण का पहला दिन थोड़ा घूम लें, दूसरा दिन शॉपिंग और नेटवर्किंग और तीसरे दिन होटल के बुफे में सीख ढूंढने का प्रयास। जैसे ही कोई विदेशी सम्मेलन आता है, एच आर हेड की वाणी में गंभीरता और आंखों में चमक आ जाती है। “इस विषय को गहराई से समझना आवश्यक है, ताकि हम अपनी प्रणाली को बेहतर कर सकें”—ऐसा कहते हुए वे रिटर्न टिकट बुक करा लेते हैं। टीए-डीए फॉर्म ऐसा भरते हैं जैसे हर सांस पर खर्च हुआ हो। “ब्रेकफास्ट : 800 रुपये, लंच : 1500 रुपये, स्नैक्स : 900 रुपये”—जैसे पेट नहीं, खजाना भरा जा रहा हो। हम जैसे सामान्य कर्मचारी जब कहें कि हमें भी कोई ट्रेनिंग दे दीजिए, तो उत्तर मिलता है — “अभी जरूरत नहीं है, काम सीखो पहले”। इन दौरे-भरे दिनों को देखकर दिल कहता है — काश मैं भी एच आर हेड होता। छुट्टी रोकने और ‘मनचाहा आतंक’ फैलाने का अधिकार : छुट्टी, वो शब्द है जो हर कर्मचारी के दिल की धड़कन तेज कर देता है। लेकिन जब एच आर हेड के सामने छुट्टी की अर्जी जाती है, तो वह एक साधारण अनुरोध नहीं, बल्कि साहसिक युद्धघोषणा बन जाती है। “सर, माँ की तबीयत ठीक नहीं है, अस्पताल ले जाना है…” कहने पर उत्तर आता है – “देखो, हम सबकी माँ होती हैं, सबको दिक्कतें होती हैं।” और अगर कोई कर्मचारी न डरे, न झुके, तो फाइल पर रिजेक्टेड की लाल स्याही ऐसे लगती है जैसे किसी ने स्वतंत्रता संग्राम को अस्वीकार कर दिया हो। एच आर हेड को ये ‘विशेष शक्ति’ प्राप्त होती है कि वह किसी की भी छुट्टी यह कहकर रोक सकता है कि “वर्क लोड है।” यह वर्क लोड कितना है, ये कोई नहीं जानता। जब हेड को मन आता है, वर्क लोड कम हो जाता है; जब न आए, तो दिवाली की छुट्टियों में भी “एमरजेंसी प्लानिंग” का हवाला दे दिया जाता है। कर्मचारी सोचता है कि क्या अस्पताल में माँ की दवा देने जाना भी अब वर्क लोड में आता है? लेकिन उसके मुँह से सवाल निकलने से पहले ही हेड साहब का नज़रिया उस पर ऐसा पड़ता है कि वह डर के मारे खामोश हो जाता है। यदि हेड को किसी से व्यक्तिगत रंजिश हो तो उसकी हर छुट्टी पर नोटिंग लिखी जाती है – “पिछले महीने भी छुट्टी ली थी”, “समय का पालन नहीं करता”, “आवश्यकता नहीं है छुट्टी की”। यह सब देखकर कर्मचारी का स्वास्थ्य तो खराब हो ही जाता है, लेकिन छुट्टी नहीं मिलती। काश ऐसा अद्भुत अधिकार मुझे भी मिलता कि कोई छुट्टी मांगता और मैं सोचता — “अच्छा! आज फिर तुम्हारी बीवी को सर्दी हो गई?” — और कलम चला देता ‘ना’। इस दिव्य अनुभव की कल्पना करते ही मन कह उठता है — काश मैं भी एच आर हेड होता। सरकारी कर्मचारी बनते मेरे घरेलू नौकर : ऐसी कला सिर्फ एच आर हेड को आती है। सरकारी दफ्तर में जब कोई एच आर हेड बनता है, तो उसके जीवन में सिर्फ विभागीय शक्ति नहीं आती, बल्कि एक ‘घरेलू क्रांति’ भी आ जाती है। अब उसे झाड़ू-पोंछा करने की जरूरत नहीं; न दूध लाने की, न सब्जी। अब उसके लिए सब कुछ “स्टाफ़” करता है। जिस चपरासी को ऑफिस में फाइल उठानी चाहिए, वो अब उनके घर में बच्चों को ट्यूशन से लाता है। जिस ड्राइवर को मीटिंग में ले जाना चाहिए, वो अब घर के राशन की थैली लेकर आता है। और कर्मचारी कुछ कह भी नहीं सकता, क्योंकि हेड साहब के पास ‘प्रशासनिक कारणों’ की ऐसी लंबी सूची होती है कि उसमें ईमानदारी का नामोनिशान नहीं मिलता। अगर कोई कर्मचारी यह कहने की हिम्मत करे कि सर, मेरा काम यह नहीं है, तो जवाब आता है — “आपकी समर्पण भावना पर प्रश्नचिह्न है।” और अगले ही दिन उसका ट्रांसफर ऐसा होता है कि वो सोचता है, “कहीं गलती से सेना में भर्ती तो नहीं हो गया था!” कई बार तो हेड साहब के रिश्तेदारों के लिए भी कर्मचारी तैनात कर दिए जाते हैं। “ये मेरे जीजा जी के बेटे हैं, थोड़े दिन अनुभव लेना चाहते हैं” — और कर्मचारी उस ‘अनुभव लेने’ वाले को चाय पानी पिलाता है। अंदर से रोते हुए कर्मचारी भी मुस्कराते हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है कि हेड साहब का घर, अब उनका दफ्तर है। अगर मुझे भी ऐसा अवसर मिलता, तो मैं भी कहता – “रमेश, जरा मेरी बीवी को स्कूल छोड़ आओ और लौटते वक्त मटर भी लेते आना।” दिल से यही तो निकलता है — काश मैं भी एच आर हेड होता। डर का साम्राज्य और मेमो नामक ब्रह्मास्त्र : दफ्तर में डर का शासन किसी प्राकृतिक आपदा से कम नहीं होता और इसका केंद्र होता है — एच आर हेड। जैसे ही कोई कर्मचारी दो मिनट देरी से आता है, हेड साहब की आंखें ऐसे फैलती हैं जैसे टाईगर सफारी में शेर ने शिकार देख लिया हो। अगले ही क्षण ‘मेमो’ तैयार — “समय पालन न करने के लिए चेतावनी दी जाती है।” अब ये मेमो केवल एक कागज नहीं, बल्कि आत्मा को हिला देने वाली चिट्ठी होती है। जिस पर नाम आ गया, वो समझे की प्रमोशन अब पाप है और इन्क्रीमेंट एक सपना। हेड साहब की निगाह जब किसी पर टेढ़ी हो जाती है, तो वो कर्मचारी समय पर आकर भी विलंबित समझा जाता है। उसके काम में गलतियाँ खोजने की प्रतियोगिता शुरू हो जाती है और चाय पीते हुए भी नोट किया जाता है — “बार-बार ब्रेक लेता है।” और जैसे ही कोई कर्मचारी कहे कि “मैंने तो नियमों का पालन किया है,” तो जवाब आता है — “आपका रवैया असहयोगात्मक है।” इस तरह के मनमाने भय का साम्राज्य केवल वही चला सकता है जो एच आर हेड हो। जो चाहे, उसे ‘क्लीन चिट’; जो न चाहे, उसे शो-कॉज नोटिस। ऐसा अधिकार, ऐसी तानाशाही, ऐसा जादू अगर मेरे पास होता, तो मैं भी कहता — “ये कर्मचारी अनुशासनहीन है, इसे निलंबित किया जाता है।” हाय! ऐसी सत्ता का सपना देखकर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं — काश मैं भी एच आर हेड होता। टेंडर और खरीद में कमीशन की मलाई : जो लोग समझते हैं कि एच आर हेड का काम सिर्फ लोगों की उपस्थिति देखना और छुट्टियाँ पास करना है, वे सच कहें तो सच्चाई की सतह पर ही हैं, गहराई तक उतरे ही नहीं। असल ‘आनंद’ तो तब आता है जब टेंडर पास करने की बारी आती है। दफ्तर की नई कुर्सियाँ आनी हैं, नया फर्नीचर खरीदना है, ट्रेनिंग के लिए लैपटॉप लेने हैं या स्टाफ के लिए कॉरपोरेट गिफ्ट्स—हर क्रय प्रक्रिया में एच आर हेड का ‘दिव्य हस्तक्षेप’ अनिवार्य होता है। हर ठेकेदार जानता है कि सीधा टेंडर डालना मतलब काम का बंटाधार। पहले ‘हेड साहब की पसंद’ जाननी जरूरी है, फिर पसंदीदा ब्रांड की सूची लेकर जाना, फिर प्रस्ताव की मोटाई के साथ एक ‘लिफाफा’ अलग से तैयार करना। और जब हेड साहब उस लिफाफे को ऐसे रखते हैं जैसे ‘कोई विशेष दस्तावेज़’ हो, तो समझ लीजिए कि उस टेंडर की नियति अब तय हो गई है। कर्मचारी सब जानता है, लेकिन कह नहीं सकता। कौन कहेगा? जो कहेगा वो अगले दिन ट्रांसफर होकर सुदूर शाखा में गमलों में पानी डालता मिलेगा। इतना ही नहीं, एच आर हेड अपने प्रिय सप्लायर्स को बार-बार बुलाकर पुराने सामान को भी नया दिखा देने की कला में दक्ष होते हैं। “ये कॉन्फ्रेंस टेबल अब पुरानी हो गई है, बदलनी चाहिए”—ऐसा कहते हुए वो उस कंपनी को बुलाते हैं जिससे पिछली बार 10% मिला था, इस बार 15% तय करके मोलभाव शुरू हो जाता है। और फिर टेंडर की मंजूरी मिलती है, कुछ पुराने डेस्क हटते हैं, कुछ पुराने ‘कमीशन’ खाते में चढ़ते हैं और हेड साहब मुस्कुराते हुए कहते हैं, “हम तो बस कंपनी के हित में निर्णय ले रहे हैं।” ऐसी स्वायत्तता, ऐसी बाज़ार व्यवस्था और ऐसा ‘आत्मनिर्भर भारत’ यदि मेरे हिस्से आता, तो मैं भी कहता — काश मैं भी एच आर हेड होता। मुख्यालय के चक्कर और ‘मक्खन यज्ञ’ की परंपरा : दफ्तर की दुनिया में ‘मुख्यालय’ किसी तीर्थ से कम नहीं होता। बाकी लोग वहाँ तब जाते हैं जब बुलावा आए, लेकिन एच आर हेड तो विशेषाधिकार लेकर वहाँ ऐसे बार-बार जाते हैं जैसे वहां उन्हें मुक्ति मिलने वाली हो। और ये जाना केवल मीटिंग का बहाना नहीं होता, ये होता है नेटवर्किंग का यज्ञ, जिसमें मक्खन चढ़ाने की परंपरा निभाई जाती है। मुख्यालय पहुँचते ही हेड साहब पहले अपने ‘बॉस’ को फोन करते हैं — “सर, आई एम इन टाउन, सो थॉट टू मीट यू पर्सनली।” और फिर उनका अगला स्टॉप होता है—फाइव स्टार होटल या वीवीआईपी कैंटीन, जहाँ वे बड़े साहब के लिए वही मिठाई, वही उपहार लेकर जाते हैं, जो उनके अधीनस्थों ने कभी उन्हें उपहार स्वरूप दिया था। और बातचीत का स्तर इतना कुशल होता है कि कोई नहीं जान पाता कि तारीफ हो रही है या पॉलिशिंग। “सर, हमने तो सब फाइलें क्लियर की हैं, लेकिन कुछ लोग हैं जो जानबूझकर रुकावट डालते हैं”—ये कहकर वे किसी ईमानदार कर्मचारी की छवि को वहां बिगाड़ देते हैं। और जैसे ही कोई कर्मचारी उच्चाधिकारियों से संपर्क करने की कोशिश करता है, तो हेड साहब तुरंत उन्हें डेमोटिवेटेड और संघर्षशील घोषित करते हैं। फिर मुख्यालय भी वही सुनता है जो हेड सुनाना चाहता है। अगर मुझे भी मुख्यालय जाकर यही सब करने की छूट मिलती, तो मैं भी उच्च अधिकारियों की चाय में शक्कर मिलाते हुए कहता, “सर, आपकी मुस्कान से पूरे विभाग में उजाला फैलता है।” फिर मैं खुद से ही कहता — काश मैं भी एच आर हेड होता। मनमाने तरीके से निकाल बाहर करने की खुली छूट : कर्मचारियों की नौकरी में सुरक्षा भले ही क़ानूनी रूप से हो, लेकिन मानसिक सुरक्षा तब तक नहीं होती जब तक एच आर हेड का आशीर्वाद प्राप्त न हो। क्योंकि आज के दौर में ‘परफॉर्मेंस इवैलुएशन’ एक तकनीकी प्रक्रिया नहीं, एक भावना आधारित पद्धति बन चुकी है। अगर कोई कर्मचारी नियमों की बात करे, चमचागिरी से परहेज़ करे, या नो कहने की हिम्मत दिखा दे, तो उसकी फाइल में अजीब-अजीब टिप्पणी आने लगती है—“सहयोग में कमी”, “टीम वर्क में दोष”, “एग्रेसिव टोन”… और फिर शुरू होता है ‘कंपनी से बाहर निकालने’ का अदृश्य मिशन। जब तक कर्मचारी समझे कि हुआ क्या, तब तक उसके लिए वीआरएस, वार्निंग लेटर और ‘अनुशासनहीनता’ की चिट्ठियाँ इकट्ठा हो जाती हैं। और तब एच आर हेड बड़ी ही गंभीरता से कहते हैं — “हमारे पास कोई विकल्प नहीं है, आप खुद ही रिजाइन कर दीजिए।” यह कहकर वे कंपनी में डर का स्थायी निवास बना देते हैं। फिर कोई दूसरा कर्मचारी नियमों पर बात करने की हिम्मत भी नहीं करता। सोचता हूँ अगर मेरे पास भी यह अधिकार होता, तो मैं भी अपनी सत्ता को अक्षुण्ण रखने के लिए हर तीसरे दिन किसी को निकालकर बाकी सबको डराता। और फिर जब कोई कहता — “सर, मुझसे क्या गलती हो गई?”, मैं जवाब देता — “गलती नहीं बेटा, ग़लत समय पर सच्चाई बोल दी।” ऐसी स्थिति की कल्पना भी दिल में खलबली मचा देती है — काश मैं भी एच आर हेड होता। सरकारी गाड़ी का घरेलू उपयोग – सुविधा भी, स्टाइल भी : कुछ विशेष अधिकारी ऐसे होते हैं जिनका स्टेटस केवल टेबल की ऊँचाई से नहीं, गाड़ी की नंबर प्लेट और उसके पीछे बैठने वाले के बॉडी लैंग्वेज से तय होता है। और जब बात एच आर हेड की हो, तो सरकारी गाड़ी भी मानो उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति हो जाती है। ऑफिस से शाम को निकलते हैं, तो ड्राइवर को फोन कर के निर्देश देते हैं – पहले बच्चों को कोचिंग से ले लो, फिर बीवी को मॉल छोड़ देना, फिर मेरी माँ को मंदिर और उसके बाद मुझे क्लब छोड़ देना। इस क्रम में ऑफिस का कहीं ज़िक्र ही नहीं होता। लेकिन यह सब ‘ऑफिशियल ट्रैवल’ की श्रेणी में आता है और फ्यूल खर्च सरकारी होता है, टैक्सी रसीदें ऑफिस को जाती हैं और मुस्कान हेड साहब की होती है। अगर कभी कोई जॉइंट सेक्रेटरी या वरिष्ठ अधिकारी अचानक पूछ बैठा – ये गाड़ी शाम को कहाँ जाती है? तो उत्तर तुरंत तैयार होता है – सर, डेली विजिट्स फॉर एम्प्लॉय वेलफेयर इन्स्पेक्शन।” और फिर फाइल में तीन–चार फोटो चिपका दिए जाते हैं जिनमें साहब किसी कर्मचारी के घर सहायता स्वरूप पहुँचते दिखते हैं। सरकारी संसाधनों का इतना ‘रचनात्मक’ प्रयोग अगर कला है, तो एच आर हेड उसके पिकासो हैं। ड्राइवर भी कभी-कभी सोचता है कि वह पर्सनल ड्राइवर है या पब्लिक प्रॉपर्टी मैनेजर। यदि मुझे भी एक ऐसी चमचमाती सरकारी गाड़ी मिलती, जो ऑफिस के नाम पर पिकनिक स्पॉट पहुँचती, तो शायद मैं भी व्हाट्सएप स्टेटस में लिखता — “ऑन ड्यूटी – फॉर द बेटरमेंट ऑफ ह्यूमैनिटी।” इतना ही सोचते हुए आत्मा से आवाज़ आती है — काश मैं भी एच आर हेड होता। पूरे परिवार का कल्याण – कर्मचारी मैं, लाभार्थी मेरे संबंधी : सरकारी सुविधाएँ केवल कर्मचारी के लिए होती हैं – ये आम धारणा है। लेकिन जब एच आर हेड बनते हैं, तो यह परिभाषा बदल जाती है – सुविधाएँ सिर्फ कर्मचारी के लिए नहीं, उसके पूरे कुनबे के लिए होती हैं। बेटे को इंटर्नशिप चाहिए? संदीप को आईटी विभाग में भेज दो, वहाँ काम सीख लेगा। बहन की शादी का कार्ड बनवाना है? डिज़ाइनिंग डिपार्टमेंट में कह दो, ऑफिशियल काम की तरह बना दें। बीवी को भी समाज सेवा में भाग लेना है? “अरे हाँ, स्टाफ वेलफेयर कमेटी में नाम जुड़वा लो, टीए/डीए भी मिलेगा।” कर्मचारी सोचता है कि आखिर उसके परिवार के सदस्य भी कब लाभान्वित होंगे, लेकिन हेड साहब पहले ही अपने संबंधियों को ‘ग्लोबल ब्रांड’ बना चुके होते हैं। यह सब करते समय साहब की बॉडी लैंग्वेज ऐसी होती है जैसे उन्होंने व्यवस्था को सुधारने की ठान ली हो। और जब कोई उनके बारे में कानाफूसी करता है, तो वो मुस्कराकर कहते हैं – “नेतृत्व वही है, जो सबका भला करे।” कर्मचारी चाहे कितना भी योग्य हो, जब तक वह ‘कुल’ से नहीं, तब तक ‘बुल’ भी नहीं बन सकता। अगर मैं भी इस ‘पारिवारिक पैकेज’ का स्वामी होता, तो शायद ऑफिस को संयुक्त परिवार का हिस्सा बना देता। और कहता – “हमारा ऑफिस एक extended family है।” मन में विचार आता है और मुँह से निकलता है — काश मैं भी एच आर हेड होता। अपनी छवि खुद बनाओ, दूसरों की बिगाड़ो : छवि निर्माण आजकल किसी भवन निर्माण से ज़्यादा महत्वपूर्ण प्रक्रिया बन चुका है और एच आर हेड इस विधा के सुप्रीम आर्किटेक्ट होते हैं। उन्हें न केवल अपनी छवि ‘प्रेरणास्रोत’ जैसी रखनी होती है, बल्कि उन कर्मचारियों की छवि भी गढ़नी होती है जो उनका विरोध करें। जिस कर्मचारी ने कभी समय पर काम किया, ईमानदारी दिखाई और तटस्थता रखी, वही हेड साहब की नजरों में ‘टीम प्लेयर’ नहीं कहलाता। और जिसने साहब की बात पर “यस सर” कहा, वो ‘फ्यूचर लीडर’। अगर कोई उनकी मनमर्जी की आलोचना करता है, तो उसकी फाइल में “असहयोगात्मक व्यवहार”, “इंस्ट्रक्शन्स की अवहेलना” और “नेगेटिव एटीट्यूड” जैसी जड़ी-बूटी मिल जाती है। दूसरी तरफ खुद की फाइलों में – “लीडरशिप क्वालिटी”, “गुड मैनेजमेंट स्किल्स”, “हाई टीम मॉरल” जैसे फूल झड़ते हैं। इतनी बारीकी से अपनी छवि को चमकाने का अधिकार हर किसी को नहीं मिलता। एच आर हेड अगर अपना पीआर सही रखे, तो बाकी सभी की छवि खुद-ब-खुद धुंधली हो जाती है। अगर मुझे भी यह शक्ति मिलती कि मैं खुद को संस्कारों का प्रतीक और दूसरों को नकारात्मक ऊर्जा घोषित कर पाता, तो शायद मैं भी हर बैठक में तालियों की गूंज के बीच कहता – “आप सब मेरे लिए परिवार जैसे हैं।” ऐसे सत्तामयी स्वांग की कल्पना मात्र से मुँह से फूट पड़ता है — काश मैं भी एच आर हेड होता। एच आर हेड – एक पद नहीं, एक स्वर्गीय अवस्था है : जैसे-जैसे यह व्यंग्यात्मक यात्रा आगे बढ़ी, वैसे-वैसे मैंने अनुभव किया कि एच आर हेड केवल पद नहीं, एक सर्वाधिकार प्राप्त संस्था है। वह कर्मियों के जीवन का निर्देशक, उनके भविष्य का निर्माता और प्रमोशन का देवता होता है।वह गिफ्ट भी लेता है, छुट्टी भी रोकता है, ट्रेनिंग के नाम पर विदेश भी जाता है और घर के राशन के लिए सरकारी गाड़ी भी। उसके पास चमचों की टोली होती है, अधिकारियों से सेटिंग होती है, टेंडर की मलाई होती है और कर्मचारियों को ‘कंट्रोल’ में रखने का परम आनंद भी। इन सभी विशेषाधिकारों की छाया में बैठा एच आर हेड अगर गलती से भी दर्पण देख ले, तो उसे देवता ही दिखता है। और हम जैसे सामान्य कर्मचारी, जिन्हें समय पर आकर समय पर जाने की आज्ञा होती है, हम दिनभर कंप्यूटर की स्क्रीन पर ताकते हुए सोचते हैं — काश मैं भी एच आर हेड होता। ईएमएस/23जून2025