सुप्रीम कोर्ट में हालिया सुनवाई के दौरान रोहिंग्या शरणार्थियों के मुद्दे पर हुई सख़्त टिप्पणी ने देशव्यापी बहस को फिर जीवित कर दिया है। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ एक हेबियस कॉर्पस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि मई माह में कुछ रोहिंग्या लोगों को हिरासत में लिए जाने की प्रक्रिया विधिसम्मत नहीं थी। अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि किसी भी व्यक्ति की हिरासत और प्रत्यर्पण चाहे वह भारतीय नागरिक हो या गैर-कानूनी रूप से आया विदेश सिर्फ कानून के अनुसार ही किया जा सकता है। यह टिप्पणी केवल न्यायिक अनुशासन की याद नहीं दिलाती, बल्कि भारत की लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता पर भी जोर देती है। मानवीय संकट और कानूनी दायरे का संघर्ष भी विचार के बिंदु है। रोहिंग्या समुदाय पिछले एक दशक से अधिक समय से अंतरराष्ट्रीय विमर्श का विषय रहा है। म्यांमार में उन्हें लंबे समय से राजनीतिक और धार्मिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, जिसके बाद वे बड़ी संख्या में बांग्लादेश होते हुए भारत आए। उनका भारत में प्रवेश कानूनी नहीं था, लेकिन उनका आगमन मानवीय संकट से उत्पन्न हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि मानवीय संकट समझ में आता है, पर भारत जैसे संप्रभु राष्ट्र के लिए कानून सर्वोपरि है। न्यायालय ने कहा कि प्रक्रियाएं ताकत की नहीं, व्यवस्था की भाषा बोलती हैं।इसलिए किसी भी व्यक्ति के साथ थर्ड डिग्री व्यवहार अस्वीकार्य है। यहां न्यायालय ने संतुलन साधने की कोशिश की।एक ओर उन्होंने सरकार को याद दिलाया कि हिरासत और वापसी का हर कदम कानून के अनुरूप होना चाहिए, दूसरी ओर यह भी स्पष्ट किया कि अवैध प्रवेश को किसी भी तरह सामान्य नहीं माना जा सकता। अदालत की यह स्थिति भारत के संवैधानिक ढांचे के अनुसार अपेक्षित है, जहां करुणा और कानून दोनों के लिए स्थान है, लेकिन दोनों की सीमाएँ भी स्पष्ट हैं।राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक तानाबा भी नाजरूरी है। रोहिंग्या मुद्दा भारत में केवल शरणार्थी प्रश्न भर नहीं है। इसे कई सरकारें सुरक्षा, जनसांख्यिकीय दबाव, और स्थानीय संसाधनों पर बोझ के रूप में भी देखती रही हैं। याचिका में कहा गया कि रोहिंग्या समुदाय अक्सर कल्याणकारी योजनाओं का लाभ लेने का प्रयास करता है, पहचान दस्तावेज़ हासिल करने में सफल हो जाता है, और कई स्थानों पर स्थानीय आंकड़ों व चुनावी प्रक्रियाओं तक को प्रभावित करता है। अदालत ने इस चिंता को पूरी तरह खारिज नहीं किया। विशेष रूप से न्यायालय की टिप्पणी थी कि देश में पहले से ही करोड़ों गरीब भारतीय नागरिक हैं जिनकी जरूरतों पर ध्यान देना आवश्यक है।एक कठोर पर यथार्थवादी संकेत था। अदालत यह दिखाना चाहती थी कि संसाधन असीमित नहीं हैं और कल्याणकारी नीतियाँ प्राथमिक रूप से नागरिकों के लिए बनी हैं। वहीं, यह भी संकेत दिया गया कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह अवैध प्रवासी ही क्यों न हो, अत्याचार का पात्र नहीं बन सकता। कानून का उल्लंघन एक अलग प्रक्रिया मांगता है, और मानव गरिमा एक अलग। भारत की सुरक्षा एजेंसियाँ वर्षों से दावा करती रही हैं कि रोहिंग्या समूहों के बीच अपराध और अवैध गतिविधियों में शामिल नेटवर्क सक्रिय पाए गए हैं।चाहे वह सीमा पार घुसपैठ के तरीके हों, फर्जी दस्तावेज़ तैयार करना हो या संगठित गिरोहों से जुड़ाव। हालांकि, यह भी सच है कि अपराध में शामिल कुछ व्यक्तियों के आधार पर पूरे समुदाय को अपराधी मान लेना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। यह द्वंद्व भारत की सुरक्षा नीति और मानवीय दायित्व के बीच लंबे समय से चलता आ रहा है। सीमाएँ, सुरंगें और अवैध प्रवेश के रास्ते सिरदर्द बना हुआ है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का एक संदर्भ यह भी था कि रोहिंग्या अक्सर सुरंग बनाकर या बाड़ काटकर भारत में घुस आते हैं। यह तथ्य सुरक्षा एजेंसियों द्वारा कई बार बताया गया है। भारत-म्यांमार सीमा का भूगोल जटिल है।घने जंगल, लंबी खुली सीमाएँ और कई स्थानों पर पारंपरिक आवागमन। इस परिस्थिति में सीमा सुरक्षा बल के लिए अवैध प्रवेश पूरी तरह रोक देना व्यवहारिक कठिनाई है। जब ऐसे समूह देश में पहुंच जाते हैं, तब कानून उन्हें विदेशी घोषित करता है और उनके रहने, घूमने या काम करने पर प्रतिबंध लगाता है। इसके बावजूद, वर्षों से कई रोहिंग्या शिविरों में बसते गए, कुछ ने स्थानीयता हासिल कर ली, और यह स्थिति आगे चलकर प्रशासन के सामने जटिल चुनौतियाँ बनती गई। प्रत्यर्पण और कानून का ढांचा ही सर्वोपरि है। सवाल यह है कि रोहिंग्या को उनके देश वापस कैसे भेजा जाए? भारत ने म्यांमार से इस मुद्दे पर कई बार संवाद किया है, परंतु म्यांमार की राजनीतिक अस्थिरता और सैन्य शासन के चलते प्रत्यर्पण की प्रक्रिया लगभग ठप है। सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ पर बिल्कुल सीधी बात कहीहै।जब तक प्रक्रिया शुद्ध न हो, वापसी एकतरफा नहीं की जा सकती। इसका स्पष्ट अर्थ है कि हिरासत का आदेश, कारण, कागजी कार्यवाही, और पर्याप्त न्यायिक समीक्षा सभी अनिवार्य हैं। अदालत ने कार्पेट बिछाने की टिप्पणी का उपयोग करते हुए एक व्यंग्यात्मक रूप से यह भी जताया कि शरण देने का कोई खुला निमंत्रण भारत नहीं दे सकता। करुणा के साथ-साथ, राष्ट्रीय हित और सीमा प्रबंधन भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक तनाव और प्रशासनिक दबाव के चलते स्थिति विकट बन चुकी है। भारत के कई शहरों में रोहिंग्या कॉलोनियाँ बढ़ी हैं।जम्मू, दिल्ली, हैदराबाद, जयपुर और जम्मू-कश्मीर के कई इलाकों में उनकी उपस्थिति स्थानीय आबादी के बीच असंतोष का विषय बनी है। स्थानीय लोग अक्सर दावा करते हैं कि इन बस्तियों के आसपास अपराध बढ़ता है, नौकरी बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ती है और अवैध निर्माण तेजी से फैलता है। हालांकि ये दावे कितने प्रमाणित हैं, यह अलग प्रश्न है, लेकिन प्रशासनिक दृष्टि से अवैध बस्तियों का प्रबंधन हमेशा चुनौतीपूर्ण होता है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी यह भी दर्शाती है कि जब देश के नागरिक ही समुचित कल्याण से वंचित हों, तब संसाधनों का हस्तांतरण अवैध प्रवासियों की ओर करना राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। मानवाधिकार और राज्य की जिम्मेदारियाँ भी बनती है। हालाँकि अवैध प्रवेश एक अपराध है, पर मानवाधिकार मानकों के तहत किसी भी व्यक्ति के साथ असम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जा सकता। भारत अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी संधि का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, फिर भी गैर-धकियाई सिद्धांत’ को अक्सर वह व्यवहारिक रूप से मानता है।जिसमें किसी भी व्यक्ति को उसकी जान-माल के खतरे वाली जगह पर नहीं भेजा जाता। अदालत ने भी इस सिद्धांत को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकारते हुए कहा कि प्रक्रिया ही अंतिम आधार है। कानून किसी भी सरकार को मनमर्जी की अनुमति नहीं देता। न्यायालय की यह टिप्पणी कि अवैध प्रवासी भी थर्ड डिग्री के शिकार नहीं हो सकते है।सीधे-सीधे भारत की संविधानिक नैतिकता को प्रतिध्वनित करती है। यह संदेश स्पष्ट है।देश किसी के अवैध प्रवेश को स्वीकार नहीं करेगा, लेकिन वह कभी भी क्रूरता को भी स्वीकार नहीं कर सकता। मुद्दे का समाधान न्याय, सुरक्षा और करुणा का संतुलन है। रोहिंग्या मुद्दे का समाधान साधारण नहीं है। यह केवल सीमा सुरक्षा का प्रश्न नहीं, न ही केवल मानवीय अधिकार का। यह तीन स्तरों पर फैला विवाद है। कानून, राजनीति और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ इसी जटिलता को समझते हुए की गई प्रतीत होती हैं। अदालत सरकार को याद दिला रही है कि कानून की प्रक्रिया ही सर्वोच्च है।न्यायालय स्पष्ट कर रहा है कि अवैध प्रवासी देश के संसाधनों पर प्राथमिक हक नहीं रख सकते। अदालत यह भी सुनिश्चित कर रही है कि मानवीय गरिमा के मूलभूत मानक कभी नहीं टूटने चाहिए। यह दृष्टिकोण किसी एक पक्ष का समर्थन नहीं करता, बल्कि एक तटस्थ संविधानिक संतुलन प्रस्तुत करता है। संकट के बीच संवैधानिक मर्यादा रखना मर्यादा के अनुरूप है।रोहिंग्या का मुद्दा आने वाले वर्षों में भी भारत के सामने एक कठिन चुनौती बना रहेगा। इस प्रश्न का कोई त्वरित समाधान संभव नहीं दिखता। म्यांमार की स्थिति सुधरे बिना भारत प्रत्यर्पण की प्रक्रिया को सुचारु नहीं कर सकता, और भारत की आंतरिक परिस्थितियाँ स्थायी पुनर्वास की अनुमति भी नहीं देतीं। ऐसे में एकमात्र स्पष्ट रास्ता वही है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिया है।कानूनी प्रक्रिया, मानवीय गरिमा, और राष्ट्रीय सुरक्षा तीनों को समान ध्यान में रखकर ही भविष्य की नीति तय की जाए।न्यायालय की चेतावनी महज प्रशासन के लिए नहीं, बल्कि समाज के लिए भी है। भावनाओं, राजनीति या भय के आधार पर लिए गए निर्णय कभी स्थायी समाधान नहीं देते। इस संवेदनशील मुद्दे में भारत की पहचान एक कानूनसम्मत, मानवाधिकार-सम्मानित राष्ट्र ही अंतिम मार्गदर्शक होगी। ( L103 जलवन्त टाऊनशिप पूणा बॉम्बे मार्केट रोड़ नियर नन्दालय हवेली सूरत मो 99749 40324 वरिष्ठ पत्रकार साहित्यकार, लेखक) ईएमएस / 07 दिसम्बर 25