लेख
26-May-2023
...


जैन धर्म विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक हैं जिसने विश्व को अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे शाश्वत सिद्धांत दिए जिनकी हमेशा विश्व को जरूरत रही। वर्तमान में ये सिद्धांत सामायिक हैं भोगभूमि का अवसान हो रहा था और कर्मभूमि का प्रारम्भ। उसी समय बालक ऋषभ का जन्म अयोध्या में हुआ था। उनके पिता राजा नाभिराय एवं माता रानी मरुदेवी थीं। पहले भोगभूमि में भोगसामग्री कल्पवृक्षों से मिलती थी। कर्मभूमि प्रारम्भ होते ही कल्पवृक्षों ने भोगसामग्री देना बंद कर दिया था, जिससे जनता में त्राहित्राहि मच गई। सारे मानव इस समस्या को लेकर राजा नाभिराय के पास पहुँचे। राजा नाभिराय ने कहा इसका समाधान अवधिज्ञानी राजकुमार ऋषभदेव करेंगे। राजकुमार ऋषभदेव ने दु:खी जनता को देखकर आजीविका चलाने के लिए षट्कर्म का उपदेश दिया। जो निम्न प्रकार हैं 1. असि - असि का अर्थ तलवार। जो देश की रक्षा के लिए तलवार लेकर देश की सीमा पर खड़े रहकर देश की रक्षा करते हैं, ऐसे सैनिक एवं नगर की रक्षा के लिए भी सिपाही एवं गोरखा आदि रहते हैं। 2. मसि - मुनीमी करने वाले, लेखा-जोखा रखने वाले, चार्टर्ड एकाउन्टेंट एवं बैंक कैशियर आदि। 3. कृषि - जीव हिंसा का ध्यान रखते हुए खेती करना अर्थात् अहिंसक खेती करना एवं पशुपालन करना। 4. विद्या - बहतर कलाओं को करना अथवा वर्तमान में आई.ए.एस., आई.पी.एस., लेक्चरार, एम.बी.ए., इंजीनियरिंग, डॉक्टरी, एल.एल.बी. आदि शैक्षणिक कार्य करना। 5. शिल्प - सुनार, कुम्हार, चित्रकार, कारीगर, दर्जी, नाई, रसोइया, मूर्तिकार, मकान, मन्दिर आदि के नक़्शे बनाना अदि | 6. वाणिज्य - सात्विक और अहिंसक व्यापार, उद्योग करना। राजा ऋषभदेव के १०१ पुत्र एवं २ पुत्रियाँ थीं। राजा ऋषभदेव ने अपनी दोनों पुत्रियों को अक्षर एवं अङ्कविद्या सिखाई। ब्राह्मी को अक्षर एवं सुन्दरी को अङ्कविद्या सिखाई जो आज तक चली आ रही है।इनके ज्येष्ठ पुत्र भरत के कारण भारत भूमि का नाम भारतवर्ष पड़ा। भगवन ऋषभदेव जी द्वारा जो कर्म बताये हैं जो आज भी चालू हैं और समग्र विश्व इन्ही कर्मों पर आधारित हैं। अक्षर विद्या जिसे ब्राह्मी को सिखाई और अंक विद्या सुंदरी को सिखाई जिससे आज इन विद्यायों के कारण शिक्षित हो रहा हैं। षड्कर्म से ही सम्पूर्ण मानव कार्यरत हैं। हिन्दु ग्रन्थों में वर्णन वैदिक दर्शन में, अथर्ववेद वा पुराणों कुछ ग्रंन्थो मे ऋषभदेव का वर्णन आता है | वैदिक दर्शन में ऋषभदेव को विष्णु के २४ अवतारों में से एक के रूप में संस्तवन किया गया है। भागवत में अर्हन् राजा के रूप में इनका विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत् के पाँचवें स्कन्ध के अनुसार मनु के पुत्र प्रियव्रत के पुत्र आग्नीध्र हुये जिनके पुत्र राजा नाभि (जैन धर्म में नाभिराय नाम से उल्लिखित) थे। राजा नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुये जो कि महान प्रतापी सम्राट हुये। भागवत् पुराण अनुसार भगवान ऋषभदेव का विवाह इन्द्र की पुत्री जयन्ती से हुआ। इससे इनके सौ पुत्र उत्पन्न हुये। उनमें भरत चक्रवर्ती सबसे बड़े एवं गुणवान थे ये भरत ही भारतवर्ष के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट हुए;जिनके नाम से भारत का नाम भारत पड़ा उनसे छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक, विदर्भ और कीकट ये नौ राजकुमार शेष नब्बे भाइयों से बड़े एवं श्रेष्ठ थे। उनसे छोटे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन थे। शिव पुराण के अनुसार भगवान ऋषभदेव को शिव के अवतारों में भी संस्तवन किया गया है। जैन और हिन्दू दो अलग-अलग धर्म हैं, लेकिन दोनों ही एक ही कुल और खानदान से जन्मे धर्म हैं। भगवान ऋषभदेव स्वायंभुव मनु से ५ वीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वायंभुव मनु, प्रियव्रत, अग्नीन्ध्र, नाभि और फिर ऋषभ। जैन धर्म में २४ तीर्थंकर हुए हैं। २४ तीर्थंकरों में से पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव थे। ऋषभदेव को हिन्दू शास्त्रों में वृषभदेव कहा गया है। १. भगवान विष्णु के २४ अवतारों का उल्लेख पुराणों में मिलता है। भगवान विष्णु ने ऋषभदेव के रूप में ८ वां अवतार लिया था। ऋषभदेव महाराज नाभि और मेरुदेवी के पुत्र थे। दोनों द्वारा किए गए यज्ञ से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने महाराज नाभि को वरदान दिया कि मैं ही तुम्हारे यहां पुत्र रूप में जन्म लूंगा। यज्ञ में परम ऋषियों द्वारा प्रसन्न किए जाने पर, हे विष्णुदत्त, परीक्षित स्वयं श्रीभगवान विष्णु महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए महारानी मेरुदेवी के गर्भ में आए। उन्होंने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण मुनियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से ग्रहण किया- भागवत पुराण। 2. भगवान शिव और ऋषभदेव की वेशभूषा और चरित्र में लगभग समानता है। दोनों ही प्रथम कहे गए हैं अर्थात आदिदेव। दोनों को ही नाथों का नाथ आदिनाथ कहा जाता है। दोनों ही जटाधारी और दिगंबर हैं। दोनों के लिए हर शब्द का प्रयोग किया जाता है। आचार्य जिनसेन ने हर शब्द का प्रयोग ऋषभदेव के लिए किया है। दोनों ही कैलाशवासी हैं। ऋषभदेव ने कैलाश पर्वत पर ही तपस्या कर कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया था। दोनों के ही दो प्रमुख पुत्र थे। दोनों का ही संबंध नंदी बैल से है। ऋषभदेव का चरण चिन्ह बैल है। शिव, पार्वती के संग हैं तो ऋषभ भी पार्वत्य वृत्ती के हैं। दोनों ही मयूर पिच्छिकाधारी हैं। दोनों की मान्यताओं में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी और चतुर्दशी का महत्व है। शिव चंद्रांकित है तो ऋषभ भी चंद्र जैसे मुखमंडल से सुशोभित है। 3. आर्य और द्रविड़ में किसी भी प्रकार का फर्क नहीं है, यह डीएनए और पुरातात्विक शोध से सिद्ध हो चुका है। सिंधु घाटी की मूर्तियों में बैल की आकृतियों वाली मूर्ति को भगवान ऋषभनाथ से जोड़कर इसलिए देखा जाता। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त मोहरों में जो मुद्रा अंकित है, वह मथुरा की ऋषभदेव की मूर्ति के समान है व मुद्रा के नीचे ऋषभदेव का सूचक बैल का चिह्न भी मिलता है। मुद्रा के चित्रण को चक्रवर्ती सम्राट भरत से जोड़कर देखा जाता है। इसमें दाईं ओर नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान ऋषभदेव हैं जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशूल है, जो त्रिरत्नत्रय जीवन का प्रतीक है। निकट ही शीश झुकाए उनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत हैं, जो उष्णीब धारण किए हुए राजसी ठाठ में हैं। भरत के पीछे एक बैल है, जो ऋषभनाथ का चिन्ह है। अधोभाग में ७ प्रधान अमात्य हैं। हालांकि हिन्दू मान्यता अनुसार इस मुद्रा में राजा दक्ष का सिर भगवान शंकर के सामने रखा है और उस सिर के पास वीरभद्र शीश झुकाए बैठे हैं। यह सती के यज्ञ में दाह होने के बाद का चित्रण है। अंतरंग लक्ष्मी आत्मा की शुद्धि से जुड़ी है और बहिरंग लक्ष्मी सांसारिक सुख देनेवाली हैं। जैन सांसारिक सुख और चरित्र-विचार में भी ऊंचा रहने की पूजा करते हैं। जैन दर्शन में बारह माहों की अपेक्षा भादो माह में सभी श्रावक अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी के स्वामी अरिहंत भगवान की भक्ति हर दिन करते हैं। दोनों लक्ष्मी के स्वामी हैं भगवान महावीर। अंतरंग लक्ष्मी का अर्थ है अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य। बहिरंग लक्ष्मी का अर्थ है सांसारिक सुख। धन-वैभव से पूर्ण होना। इसके साथ ही स्वास्थ्य लक्ष्मी और गृह लक्ष्मी पाना। उपरोक्त आधार पर वर्तमान में स्थापित राजदंड की प्राचीनता के आधार पर यह जैन धर्म के सिध्धन्तो का प्रतीक हैं यह जैन समाज और धर्म के लिए गौरव की बात हैं। शासकों से यह अपेक्षा हैं वे निहित चिन्ह का पालन न्यायपूर्वक करेंगे। ईएमएस / 26 मई 23