लेख
02-Jun-2023
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चिकित्सा खर्च इस कदर जेब पर भारी पड़ रहा है कि हर साल कर्ज लेकर, संपत्तियां बेचकर इलाज कराने वाली सात-आठ प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे पहुंच जाती है। तैंतालीस फीसद कमाई इलाज पर खर्च हो जा रही है। ऐसे ज्यादातर मरीज कैंसर, हृदय और मानसिक रोगों से पीड़ित होते हैं। देश में स्वास्थ्य सेवाएं महंगी ही नहीं होती जा रहीं, मरीजों को गरीब भी बना रही हैं। लगातार बढ़ता चिकित्सा खर्च हर साल सात प्रतिशत आबादी को गरीबी रेखा के नीचे धकेल रहा है। आक्सफैम इंटरनेशनल की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि अगर भारत के अरबपतियों की पूरी संपत्ति पर दो फीसद की दर से एकमुश्त कर लगा दिया जाए, तो उसी राशि से देश में तीन साल तक कुपोषितों के पोषण के लिए 40,423 करोड़ रुपए की जरूरत पूरी की जा सकती है। इसी तरह देश के दस सबसे अमीर अरबपतियों पर पांच प्रतिशत का एकमुश्त कर लगा कर साल भर के लिए स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय और आयुष मंत्रालय के बजट की अच्छी-खासी भरपाई हो सकती है। हमारे देश में आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना, प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना, राज्य स्वास्थ्य प्रणाली संसाधन केंद्र योजना, जननी सुरक्षा योजना, सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) योजना, एनआरएचएम फ्लेक्सी पूल, राज्यों में 108 एंबुलेंस सेवा, इंद्रधनुष टीकाकरण, ग्रामीण स्वास्थ्य स्वच्छता जैसी अनेक आधारभूत व्यवस्थाओं, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन, तृतीयक देखभाल कार्यक्रम, स्वास्थ्य चिकित्सा शिक्षा, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (प्रजनन) आदि सरकारी इंतजामात के बावजूद दुनिया में सबसे ज्यादा (सालाना औसतन 11 लाख) नवजात बच्चों की मौतें भारत में हो रही हैं। हर साल दस लाख नवजात शिशुओं को गंभीर एचबीवी संक्रमण का खतरा रहता है। पैदा होने वाले प्रति एक हजार में से औसतन उनतीस नवजात की मौत हो जाती है। ‘सेव द चिल्ड्रेन’ संस्था के मुताबिक, विश्व में नवजात शिशुओं की कुल मौतों में से उनतीस फीसद अकेले भारत में होती हैं। गरीब परिवारों के लिए यह सच कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि वे अपने बच्चों के इलाज का खर्च उठाने लायक नहीं रह गए हैं। अस्पतालों में भर्ती बच्चों पर केंद्रित एक अध्ययन से पता चलता है कि प्रति सौ परिवारों में से तेरह को इलाज में आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे ज्यादातर परिवार अगली धार के कार्यकर्ताओं, जैसे आशा, आंगनबाड़ी, सहायक नर्स मिडवाइव्स की पहुंच से भी वंचित हैं। आयुष्मान भारत योजना के साथ भी पहुंच का सवाल जुड़ा है। बेतहाशा महंगे दवा-इलाज ने तेईस फीसद मरीजों को चिकित्सा से वंचित कर दिया है। सत्तर फीसद लोग अपनी जेब से इलाज करा रहे हैं। मेडिकल कालेजों, अस्पतालों, प्रशिक्षित डाक्टरों और नर्सों की कमी के चलते स्वास्थ्य सेवाएं तो पहले से ही चरमराई हुई हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी खर्च एक दशक से ऊंट के मुंह में जीरा की तरह सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 1.3 प्रतिशत पर ही टिका हुआ है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का हाल यह है कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भूटान, श्रीलंका और नेपाल जैसे गरीब देशों का भी सालाना खर्च भारत से ज्यादा है। देश में आबादी सात गुना बढ़ गई, पर स्वास्थ्य सुविधाएं दोगुनी भी नहीं हो सकी हैं। देश के कुल लगभग सत्तर हजार अस्पतालों में से साठ फीसद में तो पर्याप्त बिस्तर तक नहीं हैं। आनुपातिक तौर पर प्रति पैंसठ मरीज पर मात्र एक बिस्तर की उपलब्धता है। चिकित्सा खर्च इस कदर जेब पर भारी पड़ रहा है कि हर साल कर्ज लेकर, संपत्तियां बेचकर इलाज कराने वाली सात-आठ प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे पहुंच जाती है। तेंतालीस फीसद कमाई इलाज पर खर्च हो जा रही है। ऐसे ज्यादातर मरीज कैंसर, हृदय और मानसिक रोगों से पीड़ित होते हैं। आयुष्मान भारत स्वास्थ्य योजना की न तो फिलहाल दस करोड़ परिवारों तक पहुंच बन पाई है, न प्राथमिक उपचार के लिए पूर्व घोषित डेढ़ लाख ‘हेल्थ ऐंड वेलनेस’ केंद्र बन सके हैं। एक तो निजी अस्पताल आयुष्मान योजना की तय सरकारी दरों पर इलाज के लिए सहमत नहीं हैं। दूसरे, पर्वतीय प्रदेशों को छोड़ कर अन्य राज्य इस योजना के तहत चालीस प्रतिशत इलाज का खर्च उठाने से कतराते हैं। बंगाल सरकार ने तो आयुष्मान भारत योजना को राज्य की स्वास्थ्य योजना में मिश्रित कर दिया है। नतीजे स्पष्ट हैं कि योजनाएं कागजी होकर रह गई हैं। देश की सवा अरब से अधिक आबादी के लिए स्वास्थ्य का मौजूदा ढांचा नितांत अपर्याप्त हो चला है। शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर 1990 के बाद से, देश में पता नहीं कितने अभियान, कार्यक्रम, नीतियां और निवेश सामने आ चुके हैं, तब भी स्वास्थ्य क्षेत्र में हालात जस के तस बने हुए हैं। देश में मानव संसाधनों का पारदर्शी इस्तेमाल न हो पाना भी इस विफलता की एक खास वजह है। अन्य क्षेत्रों की तरह स्वास्थ्य क्षेत्र के संसाधन भी मुट्ठी भर शक्तियों के हाथों में सिमट कर रह गए हैं। किसी जमाने में चिकित्सक को धरती का भगवान कहा जाता था, पर अब इस पेशे ने नई तकनीकों से लैस होकर बाजार का बाना ओढ़ लिया है। सरकारें और स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी ध्यान दें तो गरीबों का निजी अस्पतालों में मुफ्त इलाज हो सकता है। ऐसे मरीजों के लिए निजी अस्पतालों में दस फीसद आरक्षित बिस्तर मुहैया कराने का स्पष्ट प्रावधान है। 2007 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने गरीब मरीजों को आरक्षित बिस्तर उपलब्ध न कराने पर अस्पतालों पर भारी जुर्माने का निर्णय दिया था। लगभग एक दशक पहले दिल्ली सरकार भी इस दिशा में पहल कर चुकी है। स्वास्थ्य सेवाओं की स्थितियों के आकलन और उसके आधार पर भारत में चिकित्सा व्यवस्थाएं बनाने के लिए सन 1946 में जोसेफ विलियम भोरे के नेतृत्व में बनाई गई समिति ने प्रति चालीस हजार की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनाने का सुझाव दिया था। प्रत्येक पीएचसी में दो डाक्टर, एक नर्स, चार सार्वजनिक स्वास्थ्य नर्स, चार दाइयां, दो स्वच्छता निरीक्षक, दो स्वास्थ्य सहायक, एक फार्मासिस्ट और पंद्रह अन्य चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को शामिल करने का सुझाव था। इस प्रस्ताव को 1952 में भारत सरकार ने स्वीकार भी कर लिया, लेकिन सभी सिफारिशें लागू नहीं हो सकीं। 1970 के दशक में डब्लूएचओ ने ‘सभी के लिए सेहत’ लक्ष्य निर्धारित किया। देश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, जिला अस्पताल, मेडिकल कालेज विकसित हुए, बड़े-बड़े स्वास्थ्य संस्थान बने, लेकिन दुर्भाग्य है कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को जरूरतों के अनुकूल विकसित नहीं किया जा सका है। आज एम्स, पीजीआई जैसे बड़े संस्थान उसी का खमियाजा भुगत रहे हैं। भारतीय चिकित्सा परिषद के अनुसार, नौ वर्ष पहले देश भर में करीब 9.40 लाख डाक्टर थे, जबकि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को 1.5 लाख, उप-संभागीय अस्पतालों को 1.1 लाख, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों को अस्सी हजार डाक्टरों की आवश्यकता थी। उसके बाद के पांच वर्षों में चार लाख और डाक्टर चाहिए थे। फिर इस दिशा में आगे हुआ क्या? प्रति सत्रह सौ मरीजों पर एक डाक्टर उपलब्ध है। सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में डाक्टरों और नर्सों के बहुत सारे पद रिक्त पड़े हैं। देश में स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या में हो रही वृद्धि की गति बहुत ही धीमी है। भर्ती प्रक्रियाएं बुरी तरह अवरुद्ध हैं। अन्य देशों की तरह हमारे यहां आज भी सभी नागरिकों के लिए कोई राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा प्रणाली नहीं है, जिसका लाभ निजी कंपनियां उठा रही हैं। सार्वजनिक और निजी स्वास्थ्य देखभाल में भारी अंतर है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य गारंटी मिशन का मुख्य लक्ष्य तो प्रत्येक नागरिक को मुफ्त दवाएं, नैदानिक उपचार और गंभीर बीमारियों के लिए बीमा उपलब्ध कराना है, लेकिन इसकी भी अंतर्गत कथा हाथी के दांत जैसी है। शहरी और ग्रामीण भारत के बीच स्वास्थ्य सेवाओं के बुनियादी ढांचे में ही भारी अंतर है। (विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधान शैक्षिक स्तंभकार मलौत पंजाब) .../ 2 जून 2023