लेख
07-Jun-2023
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भारत में लोकतंत्र चाहे 75 साल का बूढ़ा हो गया हो किंतु इसके अपना चुनावी रेवड़ियां बांटने का फैसला बदला नहीं है, ...और भारत के वोटर...? वे तो इसी संस्कृति के आदी हो गए हैं। राजनीतिक दल व उसके नेता जनता के सामने लोकलुभावन वादों की सूची के साथ आते हैं और नतीजे आने के बाद यह विश्लेषण होने लगता है कि जीत-हार में किन वाद की क्या भूमिका रही। कर्नाटक जीत से उत्साहित कांग्रेस ने राजस्थान और मध्य प्रदेश में आगामी चुनाव से 6 महीने पहले ही एसे वादों की फेहरिस्त जारी कर दी है। दुविधा यह है कि इन वादों को किसी कसौटी पर परखने की व्यवस्था ही नहीं है वादों में लक्षित वर्ग को जितना लाभ मिल पाता है इसकी कोई पड़ताल नहीं है चुनावी जीत के लिए ऐसे वादे कर दिए जाते हैं जिनकी गवाही राज्य की अर्थव्यवस्था कभी नहीं दे सकती, लेकिन दल धड़ल्ले से वादे करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि वादों की जिम्मेदारी उठाने की उन पर कोई बाध्यता नहीं है, राजनीतिक दलों द्वारा किए जाने वाले वादे और उन्हें पूरा करने की दिशा में उठाए गए कदमों की पड़ताल आज हम सभी के लिए बड़ा मुद्दा है। पिछले दिनों नीति आयोग की बैठक में प्रधानमंत्री जी ने राज्यों को जन कल्याण के साथ वित्तीय अनुशासन का ध्यान रखने की नसीहत भी दी प्रधानमंत्री की यह नसीहत मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में बहुत अहम है। अब धीरे-धीरे देश में यही माहौल बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं, क्योंकि 4 महीनों बाद 3 राज्यों के विधानसभा चुनाव और 10 महीने बाद लोकसभा के चुनाव सामने है। अब भारतीय प्रजातंत्र में केवल व केवल चुनावी अहम रह गया है, राष्ट्र सेवा, जन सेवा की कोई अहमियत नहीं रह गई है और चूंकि राजनीति का प्रथम व अंतिम ध्येय सत्ता प्राप्ति ही रह गया है, इसलिए बाकी अहम मुद्दों का जिक्र करना तो इनके सामने व्यर्थ ही हैं। .... इस उद्देश्य के सामने राष्ट्र संविधान कानून आदि कोई महत्व नहीं रखते, सत्ता... सत्ता... और सिर्फ सत्ता आज की राजनीति का अंतिम लक्ष्य बनकर रह गया है। हमारे संविधान ने चाहे धर्म व जाति पाती को राजनीति से दूर रखने की बात कही हो, किंतु अब तो हमारी राजनीति इन्हीं में उलझ कर रह गई है और इन्हीं धार्मिक आस्थाओं को भूनाकर राजनेता अपना उल्लू सीधा करने में जुट गए हैं। चुनावी राज्य मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान में कहीं भी यह दृश्य देखे जा सकते हैं, मध्यप्रदेश में महाकाल लोक जैसे लोकों की स्थापना का वादा अब हो गया है। हिंदुत्व और सनातन कार्ड की भी इन्टरी हो गई है, जिन्हें चुनाव के दौरान जमकर भुनाया जाएगा। कांग्रेस में जहां सुंदरकांड व भागवत कथा का सहारा लिया है वहीं भाजपा अपनी सरकार की 9 सालों की कथित उपलब्धियां त्याग कर वह भी धर्म के रास्ते चल पड़ी है। अब तो पता नहीं कि भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों की सरकारों द्वारा किए गए कार्यों की अपेक्षा वादों पर ज्यादा ध्यान क्यों दिया जाता है? या तो यह दल स्वयं अपने दल की सरकार के कार्यों से संतुष्ट नहीं है या फिर इन्हें अपनी जनता पर भरोसा नहीं है, किंतु यह सही है कि चुनाव के पहले चुनावी वादों की स्पर्धा अवश्य शुरू हो जाती है और यह वादे करने वाले स्वयं यह जानकर वादे करते हैं कि यह कभी भी पूरे होने वाले नहीं है। अब चूंकि मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा की दिशा तय करने वाले होंगे या यूं कहे की रिहर्सल होंगे तो इन तीनों राज्यों के विधानसभा चुनावों पर भाजपा तथा कांग्रेस दोनों ही प्रमुख दलों ने विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया है और प्रधानमंत्री जी स्वयं इनकी रीति-नीति तय करने में व्यस्त हो गए हैं। अब इन तीनों राज्यों की सरकारों से किसी भी जन हितकारी योजना के क्रियान्वयन की अपेक्षा करना ही व्यर्थ होगा क्योंकि अब सत्तारूढ़ दल जहां अपनी सत्ता को दीर्घ जीवी की दिशा में प्रयासरत रहेगा वही प्रतिपक्ष दल कांग्रेस उसके पंजे से सत्ता को छीनने की कोशिश करेंगे इन स्पर्धाओं में चूंकि आम वोटरों की अहम भूमिका होने के बावजूद कोई उन्हें अहमियत नहीं दे रहा है, इसलिए अब यूं ही और ऐसा ही चलता रहेगा, वह भी तब तक... जब तक कि देश का आम वोटर अपने वोट की असली कीमत नहीं जान लेता? ईएमएस / 07 जून 23