लेख
08-Jun-2023
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एक बार भगवान बुद्ध से किसी भिक्षु ने पूछा-भगवान! ईश्वर है या नहीं है? बुद्ध ने इसका सीधा उत्तर न देकर प्रश्नकर्ता भिक्षु से कहा-मनुष्य की समस्या ईश्वर के होने या न होने की नहीं है। मनुष्य की मुख्य समस्या है उसके जीवन में आने वाले दुखों की। भगवान बुद्ध ने अपने कथन को स्पष्ट करते हुए तब कहा कि तुम स्वयं देखो। जन्म दुख है, जीवन दुखों का समूह है। जिसे वृद्धावस्था कहते हैं वह दुख है और मरण दुख है। इस रूप में मनुष्य का जन्म, वृद्धावस्था और मरण सभी दुख स्वरूप ही हैं। उन्होंने कहा कि मनुष्य जो चाहता है वह उसे कभी नहीं मिलता। यह उसके जीवन का दुख है। जिसे वह कभी नहीं चाहता वह उसे अवश्य मिलता है-यह इसका दुख है। अपने परम प्रिय का वियोग इसके जीवन का दुख है और जो अप्रिय है, उसका संयोग इसके जीवन का परम दुख है। उस प्रश्नकर्ता भिक्षु को संबोधित करते हुए भगवान ने कहा कि भिक्षु! अधिक विस्तार में न जाकर तुम संक्षेप में इतना ही जानो कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये सभी के सभी दुख स्वरूप ही हैं। रूप यानी जो संसार में दिख रहा है, यह रूप है और दुखात्मक है। वेदना यानी अनुभूति, दुख की अनुभूति दुखात्मक है। तथाकथित सुखात्मक अनुभूति भी अंतत: दुख ही देती है। संज्ञा अर्थात् नाम। यह भी अच्छे, बुरे, स्मरणीय और अविस्मरणीय के रूप में दुखात्मक है। संस्कार, जो पिछले अनेक जन्मों से चला आ रहा है, वर्तमान जन्म में हमारी आदत के रूप में दुख देता है। विज्ञान यहां आशय यानी विशेष ज्ञान, जो अहंकार आदि के रूप में प्रकट होकर हमारे दुख का कारण बनता है। इसलिए उन्होंने कहा कि भिक्षु! मनुष्य की समस्या ईश्वर के अस्तित्व या अनस्तित्व की नहीं है, उसकी समस्या है, उसके जीवन में व्याप्त दुखों की और इसका उपाय जानने के लिए मार्ग है, जीवन में प्राप्त होने वाले दुखों को सत्य रूप में देखना। यानी अपने अज्ञान को ज्ञान से नष्ट करने का प्रयास करना। यही दुख-निवृत्ति का सहज, सरल और सार्वकालिक मार्ग है। इसी मार्ग पर चलकर हमारी ऋषि-परंपरा के दार्शनिकों ने दुख-निवृत्ति का मार्ग पाया है। भौतिक वस्तुओं के पीछे भागने से आनंद की प्राप्ति नहीं होगी, यह परम सत्य है। भौतिक पदार्र्थो से अंत में दुख ही मिलता है। इस सत्य को जानकर व्यक्ति दुखों से निवृत्त हो जाता है। ईएमएस फीचर/08 जून2023