लेख
29-Mar-2024
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क्या भारत में एक दशक के शासन के बाद शासक पर ‘गुरूर’ सवार हो जाता है? क्या फिर सत्ता के शासन को बदनाम या लज्जित करने के लिए नही, बल्कि सत्यता पर आधारित है, आजादी के बाद सत्रह साल पं. जवाहर लाल नेहरू की सरकार रही, जिसने कई विवादित फैसले लिए, जिनसे देश कई दृष्टि से प्रभावित हुआ, उसके बाद इंदिरा जी आई, उन्होंने भी करीब एक युग अर्थात बारह साल राज किया, जिसमें आपातकाल के बीस महीनें शामिल थे, इनके बाद कुछ अल्पकालिक प्रधानमंत्री आए और इस शताब्दी के प्रारंभ में डॉ. मनमोहन सिंह की ‘रिमोर्ट कंट्रोल’ वाली सरकार आई, जिसने कई विवादित फैसले लिए और एक वरिष्ठ अर्थशास्त्री के राज में देश अपने अर्थशास्त्र में फिसल गया, इनके बाद पिछले करीब एक दशक से भी ज्यादा समय से श्री नरेन्द्र कुमार दामोदरदास मोदी देश के प्रधानमंत्री है, जिनके इरादे देश पर हावी होने का प्रयास कर रहे है। यह सब मैंने आज इसलिए याद दिलाया क्योंकि आगे जो मैं बताना चाहता हूँ, वह किसी भी देश के प्रजातंत्र के लिए सुखद नहीं कहा जा सकता। हमारा भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्री देश माना जाता रहा है, यद्यपि हमने इस विश्वव्यापी विश्वास को कई बार खण्डित करने का प्रयास किया, किंतु वह इसके बावजूद अभी भी कायम है। लेकिन अब ऐसा कुछ होने के आसार नजर आ रहे हैं, जिससे विश्व का यह विश्वास खण्डित होता नजर आने लगा है। यह सर्वज्ञात है कि प्रजातंत्र की परिभाषा जहां ‘‘जनता के लिए, जनता के द्वारा और जनता का शासन’’ है, वहीं प्रजातंत्र के घोषित रूप से चार और अघोषित रूप से तीन अंग है, घोषित रूप से कार्यपालिका, न्यायपालिका, जनपालिका और खबरपालिका है, लेकिन समय ने खबरपालिका को इससे बाहर कर दिया क्योंकि खबरपालिका ने अपने दायित्व का सही तरीके से पालन नही किया, इसलिए अब प्रजातंत्र के शेष तीन ही अंग शेष रहे, हमारा इतिहास गवाह है कि आजादी के बाद से अब तक इंदिरा जी जैसे चंद शासक आये जिन्होंने प्रजातंत्र के सभी अंगों पर अवैध रूप से कब्जा करने की कौशिशें की और अब पुनः देश मौजूदा शासनकाल के दौरान भी उन्हीं प्रयासों की पुनर्रावत्ति देखने को मजबूर है। मेरे इस आरोप का गवाह वह पत्र है जो देश के वरिष्ठतक छः सौ वकीलों ने देश के मुख्य न्यायाधिपति को लिखा है, जिसमें स्पष्ट रूप से मौजूदा केन्द्र सरकार पर यह आरोप लगाया गया है कि वह देश के प्रजातंत्र की एकमात्र स्वतंत्र इकाई न्यायपालिका पर कब्जा करने का असंवैधानिक प्रयास कर रही है। यद्यपि मोदी सरकार ने देश की न्यायपालिका के इस विवाद को राजनीतिक दायरे में लाने का प्रयास कर वकीलों के इस प्रयास को कांग्रेस के साथ जोड़ने का प्रयास किया है, किंतु देश में चल रहे कथित ‘अमृतकाल’ की समीक्षा के दायरे में न्यायपालिका के इस विवाद को किस श्रेणी में रखा जाएगा? यह एक विचारणीय सवाल है, यद्यपि देश का अब तक का इतिहास गवाह है कि जब-जब सरकार ने न्यायपालिका पर कब्जे का प्रयास किया, तब-तब उसका अंत निकट आया है और आज भी इसी माहौल में यही आसार दिखाई दे रहे है, जिसका अहसास मगरूर सत्ताधीशों को नही हो रहा है, किंतु यहां यह भी सत्य है कि देश का आम वोटर अब 1952 का वोटर नही रहा, जिसे सत्ता गुमराह कर देती थी, आज का वोटर जागरूक है और वह सब जानता है, इसलिए इस पूरे घटनाक्रम को अतीत से जोड़कर देखना ठीक नही होगा, पुरातनकाल और आज की स्थिति-परिस्थिति में काफी फर्क है। अब वकीलों का यह गंभीर आरोप की देश की न्यायपालिका सत्ता के राजनीतिक दबाव में काम कर रही है, गंभीर जांच का विषय है, जिसे गंभीरता से लेकर जनता की अदालत को इस चुनावी बेला में चिंतन करना चाहिए और इस आरोप का फैसला भी होना चाहिए, क्योंकि इस पर देश की आस्था व विश्वास आधारित है। इसलिए सर्वप्रथम देश की जागरूक जनता यह सोचे कि चुनावी बेला में यह गंभीर आरोप सामने क्यों आया? और इसका उत्तर क्या हो सकता है? ईएमएस / 29 मार्च 24