शिव ही सत्य है मुख्य शब्द-अश्वत्थ ((फल रूप में पिप्पल), शाखा, ऊर्ध्व-अधः, अव्यय (सनातन), छन्द-छन्दांसि, पर्ण, वेद। १. वृक्ष प्रतीक - (१) दारु ब्रह्म- ब्रह्म के क्रियात्मक रूप को कई अर्थों में वृक्ष कहा है। यह पुरुष रूप चेतन भी है, काष्ठ रूप निर्माण सामग्री या प्रकृति भी। अतः विष्णु के जाग्रत रूप जगन्नाथ को दारु ब्रह्म कहा गया है। वह ६ अर्थों में दारु ब्रह्म हैं-(१) चेतन तत्त्व, (२) निरपेक्ष द्रष्टा, (३) निर्माण क्रम, (४) निर्माण सामग्री और आधार, (५) सदा बढ़ने वाला, (६) संकल्प-क्रिया फल का अनन्त क्रम। निर्माण सामग्री और आधार-ब्रह्म वनं ब्रह्म स वृक्ष आसीत् यतो द्यावा पृथिवी निष्टतक्षुः। मनीषिणो मनसा विब्रवीमि वो ब्रह्माध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/९/१६) निर्माण का अधिष्ठान, आरम्भ और विधि- किं स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत्स्वित् कथासीत्। यतो भूमि जनयन् विश्वकर्मा वि द्यामौर्णोन् मह्ना विश्वचक्षाः॥ (ऋक्, १०/८१/२, तैत्तिरीय संहिता, ४/६/२/११) सर्वोच्च द्रष्टा-यस्मात् परं नापरमस्ति किञ्चित्, यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित्। वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३/९) गुण, वासना, कर्म, फल का अनन्त क्रम- अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः। अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥ (गीता, १५/२) प्राण, चित्त, वासना-द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने। एकस्मिँश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः (मुक्तिकोपनिषद्, २/२७) ब्रह्म के ३ रूपों का निर्देश गायत्री मन्त्र के ३ पादों में है-सृष्टि रूप ब्रह्मा, क्रिया रूप विष्णु, ज्ञान रूप शिव। इनके प्रतीक हैं-पलास, अश्वत्थ, वट। अश्वत्थरूपो भगवान् विष्णुरेव न संशयः। रुद्ररूपो वटस्तद्वत् पलाशो ब्रह्मरूपधृक्॥ (पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, ११५/२२) (२) विष्णु रूप अश्वत्थ- अश्वत्थः सर्व वृक्षाणां (गीता, १०/२६)-कई रूप में अश्वत्थ विष्णु रूप है-(१) इस पर अनेक पक्षी आश्रय लेते हैं, जैसे पूर्थ्वी पर जीव गण, (२) इसके गोल बीजों में कण समान छोटे बीज हैं, जैसे ब्रह्माण्ड में कण रूप तारा आदि। (३) सूक्ष्म बीज से बड़ा अश्वत्थ बन जाता है, जैसे सूक्ष्म सङ्कल्प से अनन्त विश्व, (४) पिप्पल का छोटा बीज पत्थर, दीवाल आदि में भी जम जाता है, जैसे हर स्थिति में जीव हो जाते हैं। (५) वृक्ष नष्ट होने पर उसी के काष्ठ से अन्य पीपल उगने लगता है, एक कल्प के अन्त होने पर अन्य कल्प। (६) रोग नाशक। अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता। (ऋक्, १०/९७/५)। यस्मिन् वृक्षे मध्वदः सुपर्णा निविशन्ते चाधिविश्वे। तस्येदाहुः पिप्पलं स्वाद्वग्रे तन्नोन्नशद्यः पितरं न वेद॥ (ऋक्, १/१६४/२२) अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता। गो भाज इत् किलासथ यत् सनवथ पूरुषम्॥ (ऋक्, १०/९७/५) अश्वत्थो देवसदनस्तृतीयस्यामितो दिवि। तत्राम्तस्य चक्षणं ततः कुष्ठो अजायत॥ (अथर्व, १९/३९/६), कुष्ठः = कु अर्थात् पृथ्वी पर स्थित। अलाबूनि पृषत्कान्यश्वत्थ पलाशम्। पिपीलिका वटश्वसो विद्युत् स्वापर्णशफो। गोशफो जरिततरोऽथामो दैव॥(अथर्व, २०/१३५/३) अथ यदनाशकायनमित्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव तदेष ह्यात्मा न नश्यति यं ब्रह्मचर्येणानुविन्दते। अथ यदरण्यायनमित्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव तदरश्च ह वैण्यश्चर्णवौ ब्रह्मलोके तृतीयस्यामितो दिवि। तदैरं मदीयं सरस्तदश्वत्थः सोमसवनः। तदपराजिता पूः ब्रह्मण। प्रभु विमितं हिरण्मयम्। (छान्दोग्य उपनिषद्, ८/५/३) (३) ब्रह्मा रूप पलास- पलास के हर शाखा से ३ पत्र निकलते हैं-शाखा भी बची रहती है। अतः ब्रह्मा रूप सृष्टि को समझने के लिए वेद में कई प्रकार से (प्रायः ६० वैदिक उल्लेख) त्रिविध विभाजन हैं। हर विभाजन में कुछ छूट जाता है जिससे त्रयी का अर्थ ४ वेद होता है। अविभक्त को अज्ञेय ब्रह्म कहा है (अविभक्तं विभक्तेषु - गीता, १३/१६, १८/२०) । अतः ब्रह्मा को पलास जैसा कहा है और व्रतारम्भ संस्कार में मूल ब्रह्म रूप पलास दण्ड धारण करते हैं। यस्मिन् वृक्षे सुपलाशे देवैः संपिबते यमः। अत्रा नो विश्पतिः पिता पुराणां अनु वेनति॥ (ऋक्, १०/१३५/१) सर्वेषां वा एष वनस्पतीनां योनिर्यत् पलासः। (स्वायम्भुव ब्रह्मरूपत्त्वात्) तेजो वै ब्रह्मवर्चसं वनस्पतीनां पलाशः-ऐतरेय ब्राह्मण, २/१) ब्रह्म वै पलाशस्य पलाशम् (= पर्णम्)। (शतपथ ब्राह्मण, २/६/२/८) ब्रह्म वै पलाशः। (शतपथ ब्राह्मण, १/३/३/१९) (४) शिव रूप वट- शिव का प्रतीक वट है। शिव परम ज्ञान रूप हैं, गुरु-शिष्य परम्परा का आरम्भ शिव से ही हुआ है। वट शिव का प्रतीक है। इसकी हवाई जड़ भूमि से मिल कर अन्य वृक्ष को जन्म देती है। इसी प्रकार गुरु शिष्य को ज्ञान दे कर अपने जैसा मनुष्य बना देता है। ऋग्वेद में मूल वृक्ष की शाखा से उत्पन्न वृक्ष को द्रुघण या प्रघण (द्वितीय, मिले हुए घने वृक्ष) कहा गया है। यज्ञ रूप शिव का प्रतीक या वाहन वृषभ है, जिसके शृङ्ग, सिर, पाद, हाथ आदि यज्ञ के अङ्ग रूप में वर्णित हैं। लोकभाषा में द्रुघन का दुमदुमा (द्रुम से द्रुम) हो गया है जो हर शिव पीठ में है। न्यक्रन्दयन्नुपयन्त एन ममेहयन् वृषभं मध्य आजेः। तेन सूभर्वं शतवत् सहस्रं गवां मुद्गलः प्रघने जिगाय॥५॥ शुनमष्ट्राव्यचरत् कपर्दी वरत्रायां दार्वानह्यमानः॥८॥ इमं तं पश्य वृषभस्य युञ्जं काष्ठाया मध्ये द्रुघणं शयानम्॥९॥ (ऋक्, १०/१०२/५-८) चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य। त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति, महोदेवो मर्त्यां आविवेश॥ (ऋक् ४/५८/३) ४ शृङ्ग (सींग) = ४ वेद, ३ पाद = ३ सवन-प्रातः, मध्याह्न, सायं। २ सिर = ब्रह्म-ओदन (भोग्य), प्रवर्ग्य (अतिरिक्त बचा हुआ)। ७ हाथ = अग्नि की ७ जिह्वा, ७ छन्द। ३ प्रकार से बद्ध = मन्त्र, ब्राह्मण, कल्प। वट की शाखा नीचे आकर पुनः उठती है, इस अर्थ में इसे वेद में न्यग्रोध कहा है- ते यत् न्यञ्चो अरोहन्, तस्मात् न्यङ् रोहति न्यग्रोहः, न्यग्रोहः वै नाम तत् न्यग्रोहं सन्तं न्यग्रोध इति आचक्षते। (ऐतरेय ब्राह्मण, ७/३०) न्यञ्चो न्यग्रोधा रोहन्ति। (शतपथ ब्राह्मण, १३/२/७/३) अथर्व वेद में अश्वत्थ, न्यग्रोध आदि का रोगनाशक रूप में वर्णन है- यत्रा अश्वत्था न्यग्रोधा महावृक्षाः शिखण्डिनः। तत्परेत अप्सरसः प्रतिबुद्धा अभूतन॥ (अथर्व, ४/३७/४) ’प्रतिबुद्धा अभूतन’ जानने, स्मरण रखने अर्थ में है। इस पर सिद्धार्थ की कथा बनी कि उनको पिप्पल के नीचे बैठने से ज्ञान मिला। मस्तिष्क में जो ज्ञान रूपी वृक्ष है, उसके नीचे बैठने से ज्ञान मिलता है। ज्ञान के लिए गुरु रूपी वट के नीचे बैठते हैं, वह वटु (छात्र) या वटुक (छोटा छात्र) है। वट-विटप समीपे भूमिभागे निषण्णं, सकल मुनि जनानां ज्ञान-दातारमारात्। त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं, जनन-मरण दुःख-च्छेद दक्षं नमामि॥ चित्रं वट-तरोर्मूले, वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा। गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं, शिष्यास्तु छिन्न-संशयाः॥ (दक्षिणामूर्ति उपनिषद्) बट-वृक्ष की शाखाओं से नये वृक्षों का निर्माण सृष्टि के एक कल्प के बाद नये कल्प के निर्माण जैसा है। निर्माण क्रम शिव हैं, उसके पत्र पर कर्त्ता रूपी बीज श्रीकृष्ण हैं- करारविन्देन पदारविन्दं, मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्। वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं, बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि॥ (ब्रह्म पुराण, ५३/२७-३३, भागवत पुराण, १२/९/२०-२५, विष्णु धर्मोत्तर पुराण, १/७८/१०-२०, स्कन्द पुराण, २/२/३/५-१४ के आधार पर बिल्वमङ्गल रचित बालमुकुन्दाष्टकम्, १) सृष्टि-प्रलय चक्रों को अहोरात्र कहा गया है-न रात्र्या अह्न आसीत् प्रकेतः। (नासदीय सूक्त, ऋक्, १०/१२९/२)। अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वे प्रभवन्त्यहरागमे। रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त संज्ञके॥ (गीता, ८/१८) २. ऊर्ध्व मूल - (१) मूल और शाखा-ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥ ((गीता, १५/१) = ऊपर मूल तथा नीचे की शाखा वाले अश्वत्थ को अव्यय कहते हैं, छन्द इसके पत्ते हैं। इस अश्वत्थ को जो जानता है, वही वेद को जानता है। ऊर्ध्वमूलोऽवाक् शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते। तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन एतद्वै तत्॥ (कठोपनिषद्, २/३/१) = यह सनातन अश्वत्थ है जिसका मूल ऊपर तथा शाखा नीचे है। वही शुक्र, ब्रह्म तथा अमृत कहा जाता है। (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 25 फरवरी /2025