हाल ही में इंदौर हाईकोर्ट के जस्टिस सुबोध अभ्यंकर की विदाई के अवसर पर जस्टिस रमना की भावुक प्रतिक्रिया ने न्यायपालिका की कॉलेजियम को लेकर एक बड़े सवाल को जन्म दे दिया है। क्या ईमानदार और निष्पक्ष न्यायाधीश कॉलेजियम प्रणाली की आंतरिक राजनीति और न्यायपालिका के सत्ता संघर्ष का शिकार हो रहे हैं? दरअसल जस्टिस रमना ने विदाई समारोह में कहा, कि जब उनकी पत्नी गंभीर रूप से बीमार थीं। तब उन्हें आंध्रा से मध्य प्रदेश स्थानांतरित कर दिया गया। उन्होंने कहा कि यह तबादला वरिष्ठताक्रम एवं तंग करने के उद्देश्य से किया गया था। एक वरिष्ठ न्यायाधीश की ओर से कॉलेजियम के लिए इस तरह की प्रतिक्रिया आना केवल व्यक्तिगत पीड़ा का प्रकटीकरण नहीं हो सकता है, बल्कि यह न्यायिक व्यवस्था की आंतरिक कार्यप्रणाली की सियासत को भी उजागर करता है। कॉलेजियम प्रणाली का उद्देश्य न्यायपालिका को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाए रखना है। हाल के वर्षों में कॉलेजियम की व्यवस्था विवादों में घिरी है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की वरिष्ठता मे अनदेखी, नए जजों की नियुक्ति में सरकार और कॉलेजियम के बीच का संघर्ष, ट्रांसफर और पोस्टिंग के जरिए चहेते जजों को आगे करने के लिए कॉलेजियम के साथ-साथ सरकार की पारदर्शिता एवं राजनीतिक कारणों से नए जजों की नियुक्ति में विचारधारा के आधार पर निर्णय लेने, व्यक्तिगत पूर्वाग्रह जैसी शिकायतें आम हो गई हैं। जस्टिस रमना का अनुभव यह दर्शाता है, कैसे एक ईमानदार न्यायाधीश, जो अपने काम में ईमानदारी और न्यायप्रियता के साथ अपने कर्तव्य का निर्वहन करने के लिए जाने जाते हैं, वह कॉलेजियम और सरकार की संस्थागत राजनीति का शिकार हो रहे हैं। जिसके कारण न्यायपालिका में लगातार विश्वास की कमी पैदा हो रही है। न्यायमूर्ति रमना की यह प्रतिक्रिया न्यायिक जवाबदेही की आवश्यकता को रेखांकित करती है। एक न्यायाधीश को तंग करने अथवा उसके जायज हकों को प्रभावित करने के लिए उसे स्थानांतरित किया जा सकता है। यह कृत्य न्यायपालिका की साख को नुकसान पहुंचाता है। आम नागरिकों के भरोसे को भी डगमगाता है। सरकार भी इसका फायदा उठाती है। जजों की इस लड़ाई की बंदर-बाँट में पिछले कुछ वर्षों से सरकार ने न्यायाधीशों की नियुक्ति, ट्रांसफर, पोस्टिंग में जिस तरह की ताकत दिखाना शुरू कर दी है, कॉलेजियम की अनुशंसा को नजर अंदाज करते हुए या तो जजों की नियुक्ति नहीं की है या जिन जजों की नियुक्ति सरकार ने चाही है, वह सरकार ने की है, इससे कॉलेजियम की साख में भी धब्बा लगा है। भारत की न्यायपालिका को कॉलेजियम और जजों के काम करने के तौर तरीके को लेकर आत्म निरीक्षण की आवश्यकता है। कॉलेजियम को अपनी प्रक्रिया पारदर्शिता के साथ जवाबदेही को प्राथमिकता देनी होगी। न्यायाधीशों के स्थानांतरण और पदोन्नति के निर्णयों में न्यायाधीशों की आंतरिक राजनीति, अहंकार या गुटबंदी अथवा सरकार हावी हो जाएगी। इससे न्यायपालिका की संस्थागत विश्वसनीयता को गहरा आघात पहुंचना तय है। अब समय आ गया है जबकि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और कॉलेजियम लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप स्वयं को ढालें। जब न्यायपालिका के ही जज पीड़ा और अन्याय की बात करेंगे तो सवाल उठेंगे और यह मामला किसी एक जज का नहीं है। पिछले एक दशक में कई बार जज सार्वजनिक रूप से सामने आकर कार्य प्रणाली को लेकर अपनी नाराजगी जता चुके हैं। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की बार एसोसिएशन भी समय-समय पर अपनी पीड़ा व्यक्त कर चुके हैं। यह स्थिति समूची न्यायपालिका की साख पर चोट पहुंचाने वाली है। न्यायपालिका का काम न्याय देना ही नहीं है, न्याय व्यवस्था पर आम आदमी का विश्वास भी हो, न्याय पालिका के लिए यह सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में एक धारणा यह भी बनने लगी है, कानून के नाम पर जिस तरह से आम आदमियों को प्रताड़ित किया जा रहा है उसे रोक पाने में न्याय पालिका की भूमिका देखने को नहीं मिल रही है। जो कुछ वर्षों पहले तक देखने को मिलती थी। न्याय पालिका अब सरकार के दबाव में काम करती हुई दिख रही है। आम लोगों को न्याय पालिका से जो न्याय मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा है। लोग कई वर्षों से जेलों में बंद पड़े हुए हैं। कई वर्षों तक उनकी चार्जशीट न्यायालय में पेश नहीं की जा रही है। इसके बाद भी न्यायालय से उन्हें जमानत नहीं मिल रही है। इसको लेकर आम जनमानस के बीच में यह धारणा बनने लगी है। न्याय पालिका भी सरकार का एक अंग बन गई है? इस निराशा और अविश्वास को खत्म करने के लिए न्यायपालिका को ही आगे आना होगा। जो अविश्वास बना है, उसको दूर करने की जरूरत है। एसजे/ 21 मई /2025