राज्य
16-Jun-2025


योग अभ्यास में आपकी लगन और नियमितता आपके अंदर शक्ति, आत्मबल और विश्वास का सृजन करती है - योग गुरु महेश अग्रवाल भोपाल(ईएमएस)। आदर्श योग आध्यात्मिक केंद्र स्वर्ण जयंती पार्क कोलार रोड़ भोपाल के योग गुरु महेश अग्रवाल कई वर्षो से निःशुल्क योग प्रशिक्षण के द्वारा लोगों को स्वस्थ जीवन जीने की कला सीखा रहें है, वर्तमान में भी ऑनलाइन एवं प्रत्यक्ष माध्यम से यह क्रम अनवरत चल रहा है । योग प्रशिक्षण के दौरान केंद्र पर योग साधकों को सेवा कार्यों के लिए हमेशा प्रेरित किया जाता है एवं योग आसन प्राणायाम के अभ्यास से कैसे हमारी रक्त संचार प्रणाली सही काम करती है रक्त चाप ठीक रहता है इसके बारे में बताया जाता है। है। प्राण का अभिप्राय ऊर्जा है तथा श्वास लेना, श्वास छोड़ना और श्वास रोकना - इन तीनों क्रियाओं का सम्मिलित रूप प्राणायाम है। साधारणतः मनुष्य प्राणायाम के नाम से डरते हैं। इसके विषय में कुछ गलत धारणायें प्रचलित हैं, उदाहरणार्थ- प्राणायाम के अभ्यास में ताकत के साथ श्वास जिन अंगों में खींची जाती है वे अंग किसी भी क्षण फट सकते हैं और व्यक्ति की मृत्यु सम्भव है। यह बात वास्तविकता से बहुत दूर है। हम यहाँ पर जीवन के लिए खतरा उत्पन्न करने वाली किसी भी बात का पक्ष नहीं ले रहे हैं। योग का यह उद्देश्य नहीं है और न इसमें ऐसी बातों का स्थान है। प्राणायाम विज्ञान के अभ्यास द्वारा पूरा लाभ प्राप्त करने हेतु प्राणायाम का अभ्यास प्रारम्भ करने के पूर्व साधक को किसी अनुभवी एवं योग्य योग शिक्षक से मार्गदर्शन अवश्य प्राप्त करना चाहिए, केवल तभी इस दिशा में प्रगति सुनिश्चित हो सकती है। योग गुरु अग्रवाल नें प्राणायाम के निर्देशक सिद्धान्त सुझाव एवं सावधानियाँ के बारें में बताया कि प्राणायाम का अभ्यास हर कोई कर सकता है। इसमें धैर्यपूर्वक धीरे-धीरे आगे बढ़ने की आवश्यकता है। जल्दबाजी में कठिन अभ्यासों को करने से लाभ के बदले हानि की अधिक संभावना होती है। किसी भी अभ्यास में आगे बढ़ने के लिये कुछ पूर्व तैयारी की आवश्यकता होती है। आपके शरीर में फेफड़े, हृदय, नाड़ियाँ आदि सामान्यतया सशक्त होती हैं, और प्राणायाम के नियमित एवं उचित अभ्यास द्वारा इन्हें अतिरिक्त शक्ति प्राप्त होती है। इसके विपरीत यदि अति उत्साहवश आप क्षमता से अधिक अभ्यास करें, तो शरीर तथा उसके आंतरिक अंगों को थका देंगे, जिससे वे कमजोर हो जायेंगे तथा सम्भवतः क्षतिग्रस्त भी। इसलिये अतिरिक्त सावधानी तथा ध्यानपूर्वक अपनी सीमा के अन्दर अभ्यास करने की हम अनुशंसा करते हैं। बलपूर्वक रेचक न करें, आरामदायक सीमा से अधिक लम्बा कुम्भक न करें। श्वास, शरीर और मन पर अनावश्यक बल प्रयोग से बचें और अपनी वर्तमान क्षमता से बाहर कठिन प्राणायाम को सिद्ध करने की भूल कतई न करें। धैर्य और लगन आध्यात्मिक जीवन की अनिवार्यताएँ भी हैं। प्राणायाम भी इसी में आता है। यह तो निश्चित है कि आपको अपनी मंजिल अवश्य मिलेगी। किन्तु यह उपलब्धि समय साध्य होती है। अस्तु, हताश या निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है, भले ही आज आप एक निश्चित अवधि तक कुम्भक न कर पाएँ अथवा एक निर्धारित संख्या तक प्राणायाम का अभ्यास न कर पाएँ। मात्र एक प्राणायाम में निपुणता प्राप्त करने में महीनों, कभी-कभी वर्षों का समय लग जाता है। यह तो निश्चित है कि हर अभ्यास के साथ आप प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते हैं। किन्तु चूँकि आपको इसका प्रत्यक्ष आभास नहीं होता, आप यह समझ लेने की भूल कर बैठते हैं कि कुछ भी नहीं हो रहा है। याद रखिये कि प्रगति स्थूल और सूक्ष्म, दोनों तलों पर एक साथ होती है। आसन - प्राणायाम के लिये उपयुक्त आसन आवश्यक होता है। उचित आसन में बैठने से अभ्यास के दौरान आराम से श्वास लेने और शरीर को एक आरामदेह स्थिति में बनाए रखने में सहायता मिलती है। प्रारम्भिक अवस्था में ही प्राणायाम के साधक को बैठने की किसी एक स्थिति की क्षमता विकसित करनी चाहिए। आसन सिद्ध नहीं होने से अभ्यास में एकाग्रता और तकनीक, दोनों में व्यवधान होगा। प्राथमिक आवश्यकता अरामपूर्वक सीधे बैठने की है, ताकि श्वास का मुक्त, सुगम प्रवाह अवरुद्ध न हो तथा प्राण ऊर्जा सरलता से मुक्त हो। प्राणायाम में बैठने के अनेक आसन हैं। स्थान - खुले कमरे में, जहाँ वायु का निर्बाध प्रवाह (किन्तु तेज झोंका नहीं) तथा स्वच्छता हो, वातावरण सुखद हो, प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। कभी दुर्गन्धयुक्त, धूल या धुँए वाले स्थान में अभ्यास न करें। यदि आप खुले स्थान में अभ्यास करें, तो यह अवश्य देख लें कि वहाँ पर्याप्त साफ-सफाई हो तथा कम-से-कम प्रदूषण हो। यदि स्थान एकान्त में, जनता से दूर, शोरगुल एवं बाधा रहित तथा स्वच्छ एवं सुखद हो, तो अभ्यास सही होगा। धूप अथवा तेज हवादार स्थान में अभ्यास से बचें। सुबह के समय बाल सूर्य की सुखद किरणें अवश्य लाभदायक होती हैं। किन्तु विलम्ब से अभ्यास शुरू किया जाय, तो प्रखर किरणें शरीर को जरूरत से अधिक गरम कर उसे नुकसान पहुँचा सकती हैं। अधिक ठण्ढे अथवा तेज हवादार स्थान में अभ्यास करने से शीत लग सकती है और शरीर का निर्धारित तापमान बिगड़ने की अधिक संभावना होती है। प्राणायाम जैसे सूक्ष्म अनुकूलन लाने वाले अभ्यासों के समय अधिक ताप एवं तेज हवा से आन्तरिक सन्तुलन आसानी से गड़बड़ा सकता है। स्वच्छता - किसी आध्यात्मिक साधना के लिये व्यक्तिगत स्वच्छता प्रथम वांछनीय आवश्यकता होती है। यदि किसी कारणवश अभ्यास के पूर्व पूर्ण स्नान संभव न हो, तो चेहरा, हाथ, पैर, आदि पानी से अच्छी तरह धो लें। साधना प्रारम्भ करने के पूर्व स्वयं को पूरी तरह जाग्रत कर लें। यह कहा गया है कि विधि के अनुसार सफाई मन को भी स्वच्छ करती है। समय - प्राणायाम की साधना के लिये प्रातःकाल का समय सर्वोत्तम समय है। सूर्योदय के दो तीन घण्टा पूर्व के समय को शास्त्रों में ब्रह्ममुहूर्त कहा गया है, जो प्राणायाम तथा आध्यात्मिक साधना के लिये सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि इस अवधि में वातावरण का स्पन्दन शुद्धतम स्थिति में होता है। शरीर और मन दोनों दिन के अवसान के समय की तुलना में अधिक विश्रान्त और तनाव रहित होते हैं। यदि इस समय अभ्यास संभव न हो, तो सूर्यास्त के बाद का समय भी श्रेष्ठ माना जाता है। रात्रि में शयन के पूर्व प्रशांतक के रूप में हल्के प्राणायाम का अभ्यास कर सकते हैं। किन्तु, इस समय शक्तिवर्द्धक अभ्यासों से बचना चाहिए, जो निद्रा लाने में सहायक न हों। दोपहर की गरमी में प्राणायाम के अभ्यास न करें, तो हितकर होगा। किन्तु यदि गुरुदेव ने इस समय पर कुछ अभ्यास का निर्देश दिया हो तो उन्हें अवश्य करना चाहिए। कुछ पारम्परिक ग्रन्थों में प्राणायाम के अभ्यास सूर्योदय, मध्याह्न, संध्याकाल और मध्यरात्रि में करने का उल्लेख मिलता है, किन्तु ये निर्देश उन्नत साधकों के लिये होते हैं, सबके लिये नहीं। भोजन के तुरंत बाद प्राणायाम का अभ्यास कभी नहीं कीजिये। भोजन के पश्चात् तीन-चार घण्टे रुक कर अभ्यास करें। प्रतिदिन निर्धारित समय तथा स्थान पर ही अभ्यास करें, तो उत्तम होगा। इससे सकारात्मक तथा सहायक तरंगें निर्मित होती हैं तथा आपकी लगन और नियमितता आपके अंदर शक्ति, आत्मबल और विश्वास का सृजन करती है। क्रम - प्राणायाम का अभ्यास आसनों के अभ्यास के बाद तथा ध्यान के अभ्यासों के पूर्व किया जाना चाहिए। शारीरिक अवस्था - यदि आपने वर्षों तक शरीर की पूर्णतः उपेक्षा की है, तो प्रारम्भ में कुछ अभ्यासों को करने में कठिनाई हो सकती है। किन्तु फिर भी यदि आप धीरे-धीरे प्राणायाम के पूर्व आसनों के अभ्यास क्रम को नियमित रूप से करते जायें तथा संतुलित जीवन शैली को अपनाएँ, तो अपार लाभ होगा। प्राणायाम करने के पूर्व मलाशय और मूत्राशय पूरी तरह खाली होना चाहिए। पेट भी प्रायः खाली ही हो। यदि आप कब्जियत से ग्रस्त हों, तो परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। कुछ समय तक निर्धारित आसन एवं प्राणायाम का नियमित अभ्यास करते रहें, तो यह शिकायत लुप्त हो जाएगी। कभी-कभी प्राणायाम के नये अभ्यासियों को कुछ कोष्ठबद्धता तथा मूत्र के परिमाण में कमी का अनुभव होता है। मल सूख जाने की स्थिति में भोजन में नमक तथा मसालों को बंद कर अधिक-से-अधिक मात्रा में शीतल ताजा जल पीयें। इसके विपरीत यदि पतले दस्तों की शिकायत होती है, तो कुछ दिनों के लिये प्राणायाम का अभ्यास रोक कर दही-चावल का ही सेवन कीजिये। इस बात का अवश्य ख्याल रखें कि प्राणायाम के अभ्यासों में अनावश्यक बल प्रयोग कतई न करें। कुम्भक भी उतनी ही देर करें, जब तक कि वह आसानी से सम्भव हो। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे फेफड़े अत्यंत नाजुक होते हैं और कुम्भक में किया गया बल प्रयोग उन्हें क्षतिग्रस्त कर सकता है। जाड़े के दिनों में अभ्यास के पूर्व शरीर को चादर अथवा शॉल से अच्छी तरह ढँक लें। मक्खी, मच्छरों जैसे बाह्य विक्षेपों से भी बचाव की व्यवस्था कर लें। कृत्रिम रेशों से निर्मित वस्त्र न तो पहनें और न ही उनसे बने आसन पर बैठकर अभ्यास करें। सूती, ऊनी वस्त्र और ऐसे ही बिछावन का प्रयोग करें। कृत्रिम रेशों से निर्मित वस्त्र ऋणात्मक आयनों को प्रतिकर्षित करते हैं और प्राणायाम के अभ्यास द्वारा इन्हीं आयनों को संग्रहित करना हमारा प्रयोजन होता है। इसके विपरीत कृत्रिम रेशे वाले वस्त्र धनात्मक आयनों को आकृष्ट करते हैं, जो अच्छे स्वास्थ्य और प्राणायाम के लिये उपयुक्त नहीं होते और शरीर में ऋणात्मक आयनों के प्रवाह को अवरुद्ध करते हैं। नासिका - चूँकि श्वसन क्रिया नासिका से आरम्भ होती है, और नासिका में श्वास के प्रवाह का शरीर/मन को संतुलित करने वाली व्यवस्थाओं से सीधा सम्बन्ध होता है, इसलिए नासिका की दक्षतापूर्वक कार्य संपादन की अवस्था पर पूरा ध्यान देना आवश्यक होता है। बंद, क्षतिग्रस्त अथवा रुग्ण नासिका से प्राणायाम करने के प्रयास से असफलता और हताशा के सिवाय और कुछ उपलब्ध नहीं होगा। प्राणायाम के दौरान श्वसन नासिका से ही होना चाहिए, कुछ अपवादों को छोड़कर जहाँ इसके लिए विशेष निर्देश दिये गये हों। नासिका कोटर की सफाई नियमित रूप से षट्कर्मों, जल नेति या सूत्र नेति द्वारा होनी चाहिए, जिनकी विधि इस ग्रंथ के अंत में परिशिष्ट खण्ड में बताई गई है। इससे दोनों नासिका रंध्र पूरी दक्षता से कार्य करेंगे तथा श्वास और प्राण ऊर्जा के कार्यों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ेगी। सर्दी-जुकाम एवं परागज-ज्वर जैसी बीमारियों के कारण नासिका रंध्रों में जो अवरोध आता है, वह नियमित सफाई से दूर हो जाता है। किन्तु किसी बीमारी के समय प्राणायाम का अभ्यास नहीं करने का परामर्श दिया जाता है। ऐसे समय में अपनी साधना रोक दें तथा पुनः स्वस्थ होने तक विश्राम करें। प्राणायाम के अभ्यास में अनेक लोगों का यह अनुभव है कि उनका एक नासारंध्र प्रायः बंद रहता है अथवा उसमें वायु का प्रवाह क्षीण होता है। इसका संभावित कारण यह है कि दोनों नासारंध्रों को पृथक् करने वाली हड्डी की बाढ़ किसी एक तरफ अधिक होती है, जिससे वह नासिका रंध्र कुछ सकरा हो जाता है, जिससे श्वास में रुकावट का अनुभव होता है। इस समस्या से मुक्ति नासिका रंध्र की एक सरल शल्य चिकित्सा द्वारा संभव होती है। नासारंध्रों का फैलाव - प्राणायाम के अभ्यासों में नासारंध्रों का सजग नियंत्रण, उनमें वायु का प्रवाह बढ़ाता तथा निर्बाध बनाता है। इससे श्वास के संतुलन और अनुपात को स्थिर करने में सहायता मिलती है। अस्तु, पूरे अभ्यास के दौरान इनके प्रति पर्याप्त सजगता और नियंत्रण की आवश्यकता होती है। पूरे अभ्यास के दौरान आपको अपने नासारंध्रों के प्रति बहुत अधिक सजग रहना चाहिए। । नासारंध्रों को मात्र छिद्र अथवा वायु का प्रवेश द्वार मानने की अपेक्षा, उन पर सजग नियंत्रण के द्वारा सम्पूर्ण श्वसन संस्थान की ग्रहणशीलता में वृद्धि की जा सकती है। यदि आप पशुाओं के नासारंध्रों का अवधानपूर्वक अवलोकन करें तो देखेंगे कि श्वास प्रक्रिया में उनकी कितनी अहम् भूमिका होती है। अर्वाचीन मानव ने तो श्वसन प्रक्रिया में नासारंध्रों का काफी हद तक नियंत्रण खोया है, जिसका सम्बन्ध पशु जगत् के उसके बन्धुओं की तुलना में उसकी मोटी घ्राण शक्ति से भी है। समुचित अभ्यास से नथनों पर चेतन नियंत्रण हो सकता है, क्योंकि सामान्यतया नथने शायद ही कभी गतिशील होते हैं, कभी होते भी हैं तो केवल श्वसन क्रिया के समय। आदर्श स्थिति तो यही है कि श्वास अन्दर लेते समय इन्हें बाहर की ओर फूलना चाहिए और श्वास छोड़ते समय शिथिल होकर इन्हें पुनः अपनी सामान्य अवस्था में आ जाना चाहिए। प्राणायाम में नथनों को फुलाना एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है, विशेषकर भ्रामरी, समावृत्ति तथा नाड़ी शोधन प्राणायामों में। मात्र यह सरल सहज अभ्यास शरीर में प्राण ऊर्जा का अवशोषण भली-भाँति करा सकता है और साथ ही शरीर के अन्दर जाने वाले वायु की मात्रा में भी कम-से-कम दस प्रतिशत वृद्धि करा सकता है। आहार - जो आहार एक व्यक्ति के लिये अमृत है, दूसरे के लिये विषतुल्य हो सकता है। कोई एक ऐसा आहार नहीं है जो एकदम उचित अथवा अनुचित हो। आमतौर पर भोजन को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है: तामसिक - जिससे शरीर में आलस्य, सुस्ती और बीमारियाँ पैदा होती हैं; राजसिक इस प्रकार के भोजन से वासना तथा उत्तेजना में वृद्धि होती है; और सात्विक - जिससे शरीर में संतुलन तथा दीर्घायु, अर्थात् अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। प्राणायाम के साधकों के लिये ऐसा आहार आदर्श माना जाता है, जिसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन तथा खनिज लवण संतुलित अनुपात में पाये जाते हैं। ताजा भोजन सबसे उत्तम माना जाता है। डिब्बा बंद, परिष्कृत भोज्य पदार्थ जहाँ तक संभव हो टाले जायँ तो उत्तम होगा, क्योंकि ऐसे भोज्य पदार्थों में प्राण ऊर्जा का प्रायः पूर्ण रूप से अभाव पाया जाता है। अन्न, ताजे फल, सब्जियाँ तथा आवश्यक हो तो थोड़ा दूध युक्त आहार बड़ा हितकर माना जाता है। सामिष आहार लेने वाले यदि थोड़ा मांस, मछली और अण्डे लें, तो इसमें कोई हानि नहीं है। ऐसे व्यक्ति जिन्हें श्वास सम्बन्धी तकलीफें, जैसे दमा एवं ब्रोंकाइटिस की शिकायत हो, भोजन के विषय में अतिरिक्त सावधानी बरतें तो यह उनके हित में होगा। यदि वे भोजन में कार्बोहाइड्रेट (विशेषकर चावल और चीनी) एवं दुग्ध उत्पादों की मात्रा यथासंभव घटा दें, तो यह उनकी समस्या में सुधार की दृष्टि से बड़ा उत्तम होगा। प्राणायाम की कठिन और अहम् साधना के दरम्यान विशेष प्रकार का आहार लेने की अनुशंसा की जाती है, क्योंकि इस समय वायुमण्डल से बड़ी मात्रा में प्राण ऊर्जा का शरीर में प्रवेश होता है। अस्तु, भोजन द्वारा प्राण ऊर्जा की अत्यल्प आवश्यकता होती है। प्राणायाम की सघन साधना के दौरान फल और दूध तथा कभी-कभी खीर के आहार को आदर्श माना जाता है। चूँकि ऐसी साधना अनुभवी एवं योग्य व्यक्ति के मार्गदर्शन में की जाती है, बेहतर होगा यदि आहार सम्बन्धी हिदायतें भी उन्हीं से ली जायें। प्राणायाम के साधकों को सदा मिताहारी होना चाहिए। सर्वमान्य यौगिक नियम तो यह है कि आधा पेट भोजन से, चौथाई भाग जल से भरें तथा अंतिम चौथाई भाग हवा के लिये खाली छोड़ दें। किन्तु होता इसका एकदम उल्टा है। अवसर मिले तो अधिकतर लोग अति आहार लेते हैं, जबकि केवल एक बार भरपूर संतुलित आहार मिल जाय तो भी काम चल सकता है। अंति आहार से केवल मन और इन्द्रियों की संतुष्टि होती है। इसके अतिरिक्त, पेट में भरा भोजन फेफड़ों और श्वास पटल पर दबाव डालता है, जिसके फलस्वरूप गहरी श्वास-प्रश्वास में कठिनाई का अनुभव होता है। खाली पेट प्राणायाम का अभ्यास करने का एक लाभ यह है कि प्राण वायु पाचन संस्थान में केन्द्रित नहीं होतीं तथा इनका सूक्ष्मतर कायों में प्रयोग किया जा सकता है। प्राणायाम की तीव्र साधना करने वाले साधकों के अपने हित में यह सलाह दी जाती है कि वे साधना के दरम्यान तम्बाकू, धूम्रपान, गांजा, भांग, शराब तथा चेतना में उथल-पुथल उत्पन्न करने वाले मादक द्रव्यों के सेवन से अवश्य बचें। गर्भकाल में - गर्भकाल में प्राणायाम से अनेक लाभ होंगे। गर्भकाल में, जब महिलाओं की कोख में एक नया जीव पनप रहा होता है, वे प्राण ऊर्जा के प्रति बड़ी संवेदनशील और ग्रहणशील होती हैं। अतः इस समय किसी भी प्राणायाम का अभ्यास लाभदायक होगा। बढ़े हुए श्वसन से बीजाण्डासन को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन की आपूर्ति होती है। इसके अतिरिक्त प्रसव पीड़ा के समय कपालभाती और भस्त्रिका के अभ्यास भी बड़े लाभदायक माने जाते हैं। संतुलनकारी प्राणायामों से महिला को अपनी तथा भ्रूण, दोनों की आवश्यकताओं के बीच सामंजस्य तथा संतुलन स्थापित करने में मदद मिलती है। कभी किसी प्रकार के जोर अथवा जबरदस्ती की कतई आवश्यकता नहीं है। सारा अभ्यास गर्भवती महिला की क्षमता के भीतर ही किया जाय तो उत्तम होगा। इस काल में कुम्भक की अवधि अवश्य घटा देनी चाहिए, उड्डियान बंध बिल्कुल नहीं करना है। अभ्यास में नैरन्तर्य - किसी अभ्यास को करने में सबसे अधिक महत्त्व नियमितता और नैरन्तर्य का होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जीवन शैली को यथासंभव सहज और सरल रखें और अपने अभ्यास में नियमित रहें। यदि आप रात में देर तक जागते, सुबह विलम्ब से उठते तथा खान-पान में अनियमित हैं, तो जीवनशैली में कुछ समायोजन करना आवश्यक होगा। यदि प्राणायाम के अभ्यास सही ढंग से सिखाए जायें, तो समय के साथ इनमें प्रगति होगी। प्रारम्भिक साधकों को शुरू में कुछ समय तक सरल अभ्यास करने के बाद ही उन्नत तथा कठिन अभ्यासों की ओर अग्रसर होना चाहिए और तब अभ्यास में नियमितता और नैरन्तर्य अत्यन्त आवश्यक हो जाते हैं, न केवल शरीर की क्षमताओं में वृद्धि हेतु, अपितु प्राण शक्ति की बढ़ी हुई मात्रा से अनुकूलन स्थापित करने की दृष्टि से भी। यह समूची प्रक्रिया धीमी और स्थिर गति से चलने वाली होती है। अस्तु, साधक को कभी जल्दबाजी का प्रयास नहीं करना चाहिए। अस्वस्थता अथवा किन्हीं अन्य अपरिहार्य कारणों से यदि अभ्यास छूट जाय, तो कभी उस बिन्दु से पुनः आरम्भ न करें जिस बिन्दु पर आपका अभ्यास छूटा था। अस्तु, साधकों को यह परामर्श दिया जाता है कि अपने अभ्यास का प्रारम्भ उस पूर्व अभ्यास से करें जहाँ से आराम के साथ उसे धीरे-धीरे आगे बढ़ाया जा सके। संभावित पार्श्व प्रभाव - यदि आपको कोई विशेष व्याधि हो, तो प्राणायाम की साधना प्रारम्भ करने के पूर्व अपने योग शिक्षक को इससे अवगत करा दें। यदि आप पहले पहल प्राणायाम का अभ्यास कर रहे हैं, तो कुछ संभावित लक्षण प्रकट होंगे, भले ही आप भले चंगे क्यों न हों। जैसे, खुजली, झुनझुनी, जलन, गर्मी या सर्दी, और अजीब तरह की संवेदनाओं, जैसे, हल्कापन, भारीपन आदि का अनुभव होना संभव है। कभी नाड़ी की गति बढ़ती है, तो कभी चक्कर, पीड़ा और मितली का अनुभव होता है। परन्तु ये सबके सब मात्र अल्पकालिक अनुभव होते हैं। पुनः यदि ये लम्बे समय तक बने रहें, तो आपको अपनी समग्र साधना पद्धति की नये सिरे से जाँच करनी होगी। यदि अभ्यास नहीं करते समय भी दर्द बना रहता है, तो योग शिक्षक और चिकित्सक की सहायता लेना ठीक रहेगा। पाम्परिक सलाह - अनेक पारम्परिक ग्रंथों में साधना के विघ्न और उनके निराकरण के उपाय सुझाए गए हैं। महर्षि पतंजलि के योग सूत्रों (अध्याय 1, सूत्र 30-35) में योग साधना के विघ्नों की विशद् व्याख्या दी गई है, जिसमें प्राणायाम के अभ्यास के समय उपस्थित होने वाले विघ्नों का भी समावेश है। उसमें चेतना के नौ प्रकार के विघ्नों तथा बाधाओं का उल्लेख किया गया है - व्याधि, आलस्य, संशय, प्रमाद, अकर्मण्यता, भोग की इच्छा, भ्रान्ति, चेतना की सूक्ष्म एवं शुद्ध अवस्थाओं को प्राप्त करने की अक्षमता, मानसिक अस्थिरता। इनके अपने अलग लक्षण होते हैं, जैसे, पीड़ा, उदासी, शरीर में कम्पन तथा लय विहीन श्वसन। उपर्युक्त बाधाओं और उनके लक्षणों के निराकरण के लिये आवश्यक है एक तत्त्व पर एकाग्रता; मित्रता, करुणा, प्रसन्नता और उदासीनता जैसे सकारात्मक गुणों को बढ़ाना; प्रश्वास और कुम्भक को दीर्घ बनाना। इनके माध्यम से मन पर नियंत्रण किया जा सकता है। महर्षि पंतजलि ने राजयोग के आठ अंगों यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का भी वर्णन किया है। यम के अन्तर्गत - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का समावेश है तथा नियम के अन्तर्गत शौच, संतोष, तपस्या, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान आते हैं। आसनों का तात्पर्य शरीर को लम्बे समय तक किसी शारीरिक भंगिमा में आरामपूर्वक रखने से है। अष्टांगों के प्रथम तीन सोपानों - यम, नियम और आसन को प्राणायाम के सूक्ष्म अभ्यासों को प्राथमिक आवश्यकता और तैयारी माना जाता है। योगी स्वात्माराम की हठ योग प्रदीपिका में प्राणायाम के सन्दर्भ में नाड़ी शोधन, अर्थात् शरीर में प्रवाहित होने वाली नाड़ियों के शुद्धिकरण के सम्बन्ध में निम्नलिखित परामर्श दिया गया है, अभ्यास के प्रारंभ में योगी को घी और दूध के सेवन द्वारा शरीर को पोषण पहुँचाना चाहिए। जब उसमें पर्याप्त बल और पुष्टता आ जाय तो इस प्रकार के प्रतिबंधों की आवश्यकता नहीं रह जाती। (सूत्र 14 14); प्राणायाम के अभ्यासों द्वारा हम स्वयं को अन्यान्य व्याधियों से मुक्त करते हैं। किन्तु त्रुटिपूर्ण अभ्यासों द्वारा योगी अनगिनत व्याधियों को न्योता देता है। (सूत्र 16); इसके पश्चात् श्वास त्रुटिपूर्ण हो जाती है तथा दमा, ब्रोंकाइटिस, सिरदर्द, नेत्र और कानों की पीड़ा एवं अन्य अनेक बीमारियों का बिन बुलाए आगमन होने लगता है। (सूत्र 17); जिनकी शारीरिक संरचना कमजोर हो, जिन्हें कफ की शिकायत हो, उन्हें प्रारम्भ में षट्कर्म का अभ्यास करना चाहिए। किन्तु जो वात, पित्त एवं कफ, इन तीनों दोषों से मुक्त हों, उन्हें षट्कर्मों के अभ्यास की आवश्यकता नहीं है। (सूत्र 21)। हठ योग प्रदीपिका में यम और नियम के साथ अन्य योगाभ्यासों के लिये कुछ पूर्व तैयारियों का उल्लेख मिलता है। संतुलित रूप में कुछ तपस्या की भी अनुशंसा की गई है, जैसे, अति भोजन तथा अधिक उपवास से बचना। सफलता बहुत कुछ मानसिक प्रफुल्लता, लगन, धैर्य, साहस, स्व-ज्ञान, गुरु के वचनों पर अटल विश्वास और अधिक लोगों के सान्निध्य से बचने पर भी निर्भर रहती है। शिव संहिता (अध्याय 3 के सूत्र 33-37) में भी साधना के बाधक तत्त्वों तथा उनके निराकरण की चर्चा की गई है। जिन चीजों के त्याग की सलाह दी गई वे हैं - अम्ल, कड़वे तीखे मसाले, नमक, सरसों, कसैले पदार्थ, आदि। अधिक चलने, बातें करने, खाने, उपवास करने आदि से बचने का परामर्श दिया गया है। इन सबमें साधक को मध्यम मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। यम, नियम धैर्य, स्थिरता, क्षमाशीलता और गुरु की सेवा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता प्रतिपादित की गई है। भोजन के तुरंत बाद अथवा अधिक भूख की अवस्था में प्राणायाम का अभ्यास नहीं करना चाहिए। पारम्परिक ग्रंथों में योग अभ्यास के संदर्भ में अनगिनत नियम, कायदे तथा अनुशासन का उल्लेख मिलता है, और ऐसा प्रतीत होता है मानो अभ्यास के पूर्व साधक को एक पूर्ण योगी या योगिनी होना चाहिए। किन्तु इन्हें शब्दशः स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा भी न सोचें कि यदि आपमें अहंकार (जो हम सभी में हैं), या संशय या भोग की इच्छा है, तो आप योगाभ्यास के पात्र नहीं हैं। आपके आन्तरिक एवं बाह्य विचारों एवं जीवन के सन्दर्भ में संतुलन, मध्यम मार्ग और सामान्य सूझबूझ ही आवश्यक हैं। शास्त्रों में परामर्श तो बहुतेरे हैं, किन्तु अपने गुरु की सलाह से बढ़कर कुछ नहीं है। हरि प्रसाद पाल / 16 जून, 2025