25-Jun-2025
...


जल, नारीत्व और प्रतीक्षा के माध्यम से एक नृत्य-यात्रा भोपाल(ईएमएस)। जल गंगा संवर्धन अभियान अंतर्गत सदानीरा समागम के अंतिम दिन भारत भवन के अंतरंग सभागार में बिम्बावती देवी द्वारा निर्देशित मणिपुरी शैली में नृत्‍य नाटिका जीवनम् की प्रस्‍तुति हुई। जीवनम् संस्कृत के जीवन मूल से लिया गया एक दो-खंडीय नृत्य अभिनय है, जो स्त्री के माध्यम से इस सार्वभौमिक तत्‍व जल की अनुभूति कराता है। यह प्रस्तुति इच्छा, दुःख, बलिदान और आकांक्षा के भावों में स्त्री की उपस्थिति को अनुभव कराती है। इसमें दो नायिकाएँ हैं, दो अवस्थाएँ हैं एक पवित्र नदी के रूप में, दूसरी प्रतीक्षारत पृथ्वी के रूप में। यमी जिसे हम यमुना के रूप में जानते हैं एक शांत लेकिन भीतर से ज्वालामुखी-सी नायिका है। पौराणिक आख्यानों में वह श्रीकृष्ण की सहगामिनी, एक शांत पृष्ठभूमि मात्र बन जाती है। पर जीवनम् में वह परछाइयों से बाहर आती है अब वह केवल नदी देवी या निष्क्रिय पत्नी नहीं, बल्कि एक स्त्री है जिसमें स्वर है, आँसू हैं, ज्वाला है। यमुना की कथा सहस्राब्दियों की परतों में लिपटी है वह केवल जलधारा नहीं, स्त्री है। यमी यमराज की जुड़वां बहन। सूर्य से उत्पन्न, तेजस्विनी, परंतु जब उसने अपने ही भाई के प्रति प्रेम की इच्छा की, तो उसकी अग्नि को अपवित्र कहा गया। उसे वर्जना मिली, और वह पाप के बोझ से दब गई। अपने जुड़वां के लिए उसकी लालसा ब्रह्मांडीय नियमों के विरुद्ध थी। उसने मौन साधा, शर्म को पी लिया, और उसके आँसू बनकर एक नदी प्रवाहित हुई। किंवदंती कहती है कि एक रात, जब वासुदेव नवजात श्रीकृष्ण को लेकर गोकुल की ओर भाग रहे थे, यमुना ने अपना जल दो भागों में बाँट दिया, ताकि वह सुरक्षित निकल सकें। यह उसका पूर्ण समर्पण था प्रेम की वह गहराई, जिसे कोई देख नहीं सका। आगे चलकर वह श्रीकृष्ण के निकट रही, किंतु उसका प्रेम मौन रहा अदृश्य। वह मूक दृष्टा बनी रही, राधा और गोपियों की रासलीला की साक्षी। जबकि राधा को शाश्वत प्रेमिका का स्थान मिला, यमी सदा की साक्षिणी बन गई। श्रीकृष्ण वृंदावन छोड़कर मथुरा चले गए। उनके पीछे रह गया सन्नाटा। राधा यमुना के तट पर रोई, और यमुना ने दोनों स्त्रियों का दुःख समेट लिया। दो स्त्रियाँ एक प्रिय, एक अदृश्य समानांतर पीड़ा में बहती रहीं। एक दृश्य में बलराम, मदिरा के प्रभाव में, यमुना से आदेशात्मक स्वर में कहते हैं कि वह उनके पास आए। जब वह इंकार करती है, तो बलराम पृथ्वी पर हल प्रहार करते हैं, और यमुना की धारा बलपूर्वक मोड़ दी जाती है। कुछ ग्रंथों में इसे दिव्य लीला या प्रजनन संस्कार कहा गया है, परंतु जीवनम् में यह वह क्षण है जब धर्म के नाम पर स्त्री पर हिंसा होती है वह स्त्रियाँ जो सदियों से रीति, परंपरा और कामना के नाम पर जोती जाती रहीं, मोड़ी जाती रहीं, झुकाई जाती रहीं। यमी सूर्य की पुत्री जल की अग्निरूपिणी अपने भीतर जलन, क्रोध, तड़प और प्रेम सब समेटे हुए, आज भी प्रतीक्षारत है। यह नृत्य उसी मौन वेदना का रूपांतरण है। उसका शरीर, नदी की भाँति बहता है, उसकी चुप्पी, लय, मुद्राओं और निःशब्द भंगिमाओं में स्वर पकड़ती है। यह प्रेरणा जयदेव के गीत गोविंद के उस कम चर्चित खंड से ली गई है, जिसमें ‘यमी हे’ का आर्तनाद गूंजता है। और फिर दृश्यांतरण होता है। नदी से रेगिस्तान की ओर, मिथक से प्रतीक की ओर। अब मंच पर एक और स्त्री है जिसका नाम नहीं, चेहरा नहीं पर जिसकी आत्मा प्यासी है। वह स्त्री पृथ्वी है सूखी, प्रतीक्षारत, जल के लिए, प्रेम के लिए, पुनर्जन्म के लिए। वारी वर्षा की आकांक्षा उसका आलंब बनती है। वह हर दिन आकाश की ओर देखती है, हवा की सरसराहटों में वर्षा का संकेत खोजती है। उसकी प्रार्थनाएँ उत्सव नहीं हैं, वे जल के लिए आर्त पुकार हैं। उसकी त्वचा सूख चुकी है, पर भीतर एक गर्भ है जो भीगने की प्रतीक्षा में है। वह स्त्री स्वयं पृथ्वी बन जाती है उसकी आत्मा धरती बन जाती है। और जब वर्षा आती है पहले हल्की, फिर मूसलधार वह केवल भीगती नहीं, पुनर्जाग्रत होती है। उसके भीतर फिर से हरियाली उगती है, वह फिर से जीवन बन जाती है। वह जल से एक हो जाती है। वह जीवनम् है। यह प्रस्तुति केवल यमुना या वर्षा की कथा नहीं है। यह उन स्त्रियों की कथा है जो तत्व बन जाती हैं। वे स्त्रियाँ जो नदियाँ हैं, जो वर्षा हैं, जो प्रतीक्षा हैं जिन्हें विस्मृत किया गया, तोड़ा गया, मोड़ा गया, पर फिर भी जो देती रहीं, बहती रहीं, जीवन को रूपांतरित करती रहीं। यमी हे और वारी के माध्यम से यह संपूर्ण प्रस्तुति एक प्रार्थना बन जाती है जल के पौराणिक और भावनात्मक परिदृश्य में स्त्री की मौन, गहन और अनसुनी उपस्थिति की पुनर्प्राप्ति। यह नृत्य, पीड़ा की पवित्रता, मौन की शक्ति और स्त्रीत्व के समर्पण का जश्न है उन स्त्रियों का जो जल भी हैं और घाव भी। हरि प्रसाद पाल / 25 जून, 2025