लेख
26-Jun-2025
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25 जून 1975 रायसीना हिल्स का नज़ारा देखने लायक था तब शायद ही किसी ने कल्पना की हो इसी रायसीना हिल्स से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का काफिला यहां से गुजरेगा तब तक किसी को पता नहीं था कि इसके बाद भारत के राजनीतिक इतिहास पर एक कलंक लगने वाला है। एक ऐसा धब्बा जो कभी न मिटाई जा सकने वाली याद के रूप में इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो जाएगा। उसका नाम आपातकाल था और आज भी उस आपातकाल के 50 बरस पूर्ण होने की याद जेहन में एक सिहरन पैदा करती है। उस दौर को जिसने जिया है वो आपातकाल को आज भी नहीं भुला पाता है। भारत के इतिहास में 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का समय एक अंधेरे दौर के रूप में जाना जाता है, जिसे आपातकाल के नाम से याद किया जाता है। इस काल में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की थी। यह निर्णय देश के लोकतांत्रिक ढांचे पर एक गहरा आघात था, जिसके परिणामस्वरूप नागरिक स्वतंत्रता का हनन, प्रेस की आजादी पर अंकुश और राजनीतिक विरोधियों का दमन हुआ। 25 जून 1975 की रात को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा गांधी की सलाह पर आपातकाल की घोषणा की। इसके तहत संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निलंबित कर दिया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर भय, आतंक और दहशत का माहौल बना दिया। नागरिकों के मूल अधिकारों को सीमित कर दिया गया। समाचार पत्रों और मीडिया पर सख्त सेंसरशिप लागू की गई। सरकार के खिलाफ कोई भी आलोचनात्मक लेख या समाचार प्रकाशित करने पर प्रतिबंध था। कई समाचार पत्रों ने विरोध में खाली पन्ने छापे।जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, लालकृष्ण आडवाणी जैसे प्रमुख विपक्षी नेताओं को मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया। हजारों कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया।आपातकाल के दौरान सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए जबरन नसबंदी अभियान चलाया, विशेष रूप से संजय गांधी के नेतृत्व में। यह नीति विशेष रूप से ग्रामीण और गरीब वर्गों के लिए उत्पीड़न का कारण बनी। 42वां संविधान संशोधन लागू किया गया, जिसने संसद की शक्तियों को बढ़ाया और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर किया।19 महीनों तक चले आपातकाल के काले बादल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी छाए और इंदिरा गांधी ने प्रेस पर भी सेंसरशिप थोप दी। आपातकाल के चलते प्रेस के स्वरूप में बड़ा बदलाव देखा गया और लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया तानाशाही का पहली बार शिकार हुआ। वर्ष 1974 तक पत्रकारिता के माध्यम से सत्ता और सरकार की सर्वत्र आलोचना हो रही थी। देश में भ्रष्टाचार, शैक्षणिक अराजकता, महंगाई और कुव्यवस्था के विरोध में समाचार-पत्रों में बढ़-चढ़ कर लिखा जा रहा था। गुजरात और बिहार में छात्र-आंदोलन ने जनांदोलन का रूप ले लिया था जिसके नेतृत्व का भार लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने अपने कंधों पर ले लिया। उन्होंने पूरे देश में संपूर्ण क्रांति आंदोलन का आह्वान कर दिया था। दूसरी ओर लंबे समय तक सत्ता में बने रहने, सत्ता का केंद्रीयकरण करने, अपने विरोधियो को मात देने और बांग्लादेश बनाने में अपनी अहम भूमिका के कारण इंदिरा गांधी में अधिनायकवादी प्रवृत्तियां बढ़ती चली गईं और जब इलाहबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद अपने-आपको सत्ता से बेदखल होते पाया तो उन्होंने अपने कुछ चापलूसों के परामर्श से आपातकाल की घोषणा का निर्णय ले लिया। 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी नेताओं की जनसभा से श्रीमती गांधी घबरा गई और उन्होंने आपातकाल की घोषणा कर दी। आपातकाल के दौरान एक ओर जहां सत्ता और सरकार की चापलूसी करने वाले पत्रकार थे, वहीं दूसरी ओर प्रेस की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले पत्रकारों की भी कमी नहीं थी। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर, देवेंद्र स्वरूप, श्याम खोसला, सूर्यकांत बाली, के.आर. मलकानी जैसे पत्रकारों ने तो जेल की यातनाएं भी भोगीं। इसके विपरीत ऐसे पत्रकारों की भी कमी नहीं थी, जिन्होंने सेंसरशिप को स्वीकार किया और रोजी-रोटी के लिए नौकरी को प्राथमिकता दी। यही स्थिति साहित्यकारों के साथ भी थी। स्वतंत्र भारत में वर्ष 1975 में आपातकाल की घोषणा के साथ ही पत्र-पत्रिकाओं पर सेंसरशिप लगा दी गई लेकिन तमाम प्रतिबंधों के बावजूद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पूरी तरह ग्रहण नहीं लग सका। पत्र-पत्रिकाओं पर सेंसर लगा तो भूमिगत बुलेटिनों ने कुछ हद तक इसकी क्षतिपूर्ति की। कुछ संपादकों ने संपादकीय का स्थान खाली छोड़कर तो कुछ ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में महापुरूषों की उक्तियों को छापकर सरकार का विरोध किया। सेंसरशिप और अन्य प्रतिबंधों के कारण सरकार और समाज के बीच सूचनाओं का प्रसारण इकतरफा हो रहा था। सरकार की घोषणाओं और तानाशाही रवैये की खबर तो किसी न किसी रूप में जनता तक पहुंच जाती थी, किंतु जनता द्वारा आपातकाल के विरोध और सरकारी नीतियों की आलोचना की खबर सरकार तक नहीं पहुंच पाती थी। सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों के सहारे ही अखबारों में अधिकतर समाचार छप रहे थे। इकतरफा पक्ष की बार-बार प्रस्तुति से पत्र-पत्रिकाओं की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया था। इसलिए इकतरफा संचार के कारण आपातकाल के 19 महीनों तक सरकार गलतफहमी में रही जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। सेंसरशिप के कड़े प्रतिबंधों और भय के वातावरण के कारण अनेक पत्र-पत्रिकाओं को अपने प्रकाशन बंद करने पड़े। आपातकाल के दौरान 3801 समाचार-पत्रों के डिक्लेरेशन जब्त कर लिए गए। 327 पत्रकारों को मीसा में बंद कर दिया गया। 290 अखबारों के विज्ञापन बंद कर दिए गए। विदेशी पत्रकारों को भी काफी प्रताड़ना का सामना करना पड़ा। आपातकाल के दौरान सैकड़ों पत्रकारों के अधिस्वीकरण रद्द कर दिए गए। आपातकाल के पूर्व देश में चार समाचार-समितियां थीं पी.टी.आई., यू.एन.आई., हिंदुस्थान समाचार और समाचार भारती जिन्हें मिलाकर एक समिति समाचार का गठन किया गया था जिससे यह पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में रहे। आपातकाल के दौरान आकाशवाणी और दूरदर्शन पर से जनता का विश्वास उठ चुका था। भारत के लोगों ने उस समय बी.बी.सी. और वायस आफ अमेरिका सुनना शुरू कर दिया था। आपातकाल की घोषणा के बाद प्रधानमंत्री के द्वारा ली गई पहली ही बैठक में प्रस्ताव आया कि प्रेस-परिषद् को खत्म किया जाए। 18 दिसंबर, 1975 को अध्यादेश द्वारा प्रेस-परिषद् समाप्त कर दी गई। आपातकाल के दौरान भूमिगत पत्रकारों ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया था। भूमिगत संचार-व्यवस्था के द्वारा एक समानांतर प्रचार-तंत्र खड़ा किया गया था। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो जन-जीवन को एकपक्षीय समाचार ही मिल पाता और सच्ची खबरों से वह वंचित रह जाते। संचार अवरोध का कितना बड़ा खामियाजा सत्ता को उठाना पड़ सकता है, यह वर्ष 1977 के चुनाव परिणाम से सामने आया।संपादकों का एक समूह चापलूसी की हद किस तरह पार कर रहा था, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दिल्ली के 47 संपादकों ने 9 जुलाई 1975 को श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा उठाए गए सभी कदमों में अपनी आस्था व्यक्त की, जिसमें समाचार-पत्रों पर लगाया गया सेंसर भी शामिल है। सेंसरशिप के कारण दिनमान एकपक्षीय खबर छापने को बाध्य हुई। दिनमान ने सेंसरशिप लगाए जाने का विरोध भले ही न किया हो किंतु सेंसरशिप हटाए जाने पर संपादकीय अवश्य लिखा। उस दौर में लोकप्रिय पत्रिका साप्ताहिक हिन्दुस्तान भी सरकार की पक्षधर हो गई। सेंसरशिप थोपे जाने और सत्ता के तानाशाही रवैये के कारण सरिता ने 6 महीनों मे संपादकीय कालम लिखना छोड़ दिया। सारिका का जुलाई 1975 का अंक सेंसरशिप का पालन कड़ाई से किए जाने का जीवंत दस्तावेज बन गया है। पृष्ठ संख्या 27-28 को तो लगभग पूरी तरह काला कर दिया गया था। सेंसरशिप की कैंची ने पत्रकारिता के स्वरूप को ही बिगाड़ दिया था। दहशत और आतंक के माहौल में अधिकतर पत्र-पत्रिकाओं ने संपादकीय खाली छोड़ने और काले अंश को हू-ब-हू छापा। कुल मिलाकर आपातकाल ने भारत के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचे पर गहरा प्रभाव डाला। आपातकाल ने भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों को गहरी चोट पहुंचाई। नागरिकों के अधिकारों का हनन और प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश ने लोकतंत्र के प्रति लोगों का विश्वास डगमगाया।आपातकाल के दमनकारी नीतियों के खिलाफ जनता में असंतोष बढ़ा। 1977 के आम चुनाव में जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस को हराकर सत्ता हासिल की। यह भारत में पहली बार था जब गैर-कांग्रेसी सरकार सत्ता में आई।जबरन नसबंदी और अन्य दमनकारी नीतियों ने विशेष रूप से गरीब और हाशिए पर रहने वाले समुदायों में सरकार के प्रति गुस्सा पैदा किया।आपातकाल के बाद 44वां संविधान संशोधन (1978) लाया गया जिसने आपातकाल के दुरुपयोग को रोकने के लिए कई प्रावधानों को संशोधित किया। उन्नीस माह के बाद कांग्रेस पार्टी की तानाशाही के विरुध्द भारत की जनता के गौरवशाली संघर्ष के परिणामस्वरूप यह ग्रहण छँटा। यदि आपातकाल स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक अंधकारमय अवधि थी तो लोकतंत्र की बहाली के लिए किया गया विजयी संघर्ष सबसे दैदीप्यमान घटना थी। सभी राजनीतिक विश्लेषकों को अचंभे में डालते हुए गुजरात विधानसभा चुनावों में इंदिरा कांग्रेस की भारी पराजय हुई। दूसरा, उसी दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रायबरेली से इंदिरा गांधी के लोकसभा में चुने जाने को निरस्त कर दिया और इसके साथ ही चुनावों में भ्रष्टाचार फैलाने के आधार पर उन्हें छह वर्षों के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया। आपातकाल का काला अध्याय भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक दुखद प्रकरण है। यह दौर हमें सिखाता है कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए नागरिक जागरूकता, स्वतंत्र प्रेस और निष्पक्ष न्यायपालिका का महत्व कितना अधिक है। आपातकाल ने यह भी दिखाया कि सत्ता का दुरुपयोग कितना खतरनाक हो सकता है और जनता की एकजुटता किस तरह तानाशाही प्रवृत्तियों को परास्त कर सकती है। आज भी यह घटना हमें सतर्क रहने और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने की प्रेरणा देती है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ) (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 26 जून /2025