- गरीबों का मताधिकार खतरे में बिहार से शुरू हुई चुनाव आयोग की नई मतदाता सूची पुनरीक्षण प्रक्रिया ने देश की लोकतांत्रिक नींव को हिला दिया है। इस प्रक्रिया के तहत राज्य के बाहर से आने वाले नागरिकों को यह शपथ पत्र देना होगा। उनका जन्म 1 जुलाई 1987 से पहले भारत में हुआ था। साथ ही प्रमाणित करने वाले दस्तावेज भी प्रस्तुत करने होंगे। चुनाव आयोग की इस कार्रवाई से मतदाता सूची में नाम शामिल कराने के लिए न केवल पुराने और दुर्लभ दस्तावेज मतदाताओं को देना होगा। आम आदमी, खासकर गरीब, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों को मतदाता सूची से बाहर निकालने का यह एक सुनियोजित प्रयास का आरोप विपक्षी दल लगा रहे हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे एनआरसी से भी खतरनाक बताते हुए चुनाव आयोग और केंद्र सरकार को चेतावनी दी है। उन्होंने इसे भारत के लोकतंत्र पर एक घातक हमला बताया है। उनका आरोप है चुनाव आयोग की इस कार्यवाही से गरीबों और प्रवासी मजदूरों को मतदान अधिकार से वंचित करने की यह एक साजिश है। असदुद्दीन ओवैसी ने भी इसे गुप्त एनआरसी बताते हुए विरोध दर्ज कराया है। बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने इसे सीधा गरीबों और वंचित तबकों के मत के अधिकार को छीनने का कृत्य बताया है। चुनाव आयोग इस कार्यवाही के पीछे जो तर्क दे रही है। उसके अनुसार, मतदाता सूची की शुद्धता के लिये संविधान की मूल भावना को ही दरकिनार करने जैसा कदम माना जा रहा है। वोट डालना हर नागरिक का अधिकार है। मतदाता से ऐसे साक्ष्य की मांग करना, जो अधिकांश नागरिकों के पास नहीं है। गरीबों और मजदूरों के परिवारों की स्थिति इस तरीके की नहीं है। वह इस तरीके के दस्तावेज संभाल कर रख सकें। एक तरह से मत के अधिकार से इस प्रक्रिया से करोड़ों लोग वंचित हो सकते हैं। अगर यह कवायद सचमुच निष्पक्षता के नाम पर है तो ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार जाति जनगणना जैसे अहम सामाजिक उपायों से सरकार पीछे क्यों हट रही है। क्यों दस्तावेजों के नाम पर उन्हीं तबकों को निशाना बनाया जा रहा है। जो गरीब है, मजदूर हैं, लगातार जीवन यापन के लिए यहां से वहां भागते रहते हैं। जो बड़ी संख्या में मतदाता के रूप में दर्ज हैं। जिनके पास संसाधनों की सबसे ज्यादा कमी है। इस कार्यवाही से चुनाव आयोग की भूमिका और निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। इसके विरोध में सभी राजनीतिक विपक्षी दलों द्वारा एकजुट होकर विरोध करना शुरू कर दिया गया है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए यह पहला और आवश्यक कदम है। चुनाव आयोग के इस निर्णय का अभी विरोध नहीं किया गया तो ऐसी स्थिति में भविष्य में हर नागरिक के मौलिक अधिकारों पर सबसे बड़ा खतरा उत्पन्न होगा। चुनाव आयोग की यह सिर्फ एक दस्तावेज़ी प्रक्रिया नहीं है। चुनाव आयोग द्वारा किया गया यह संविधान की आत्मा पर प्रहार है। जिस देश में करोड़ों लोग नदी के किनारे रहते हों, हर साल बाढ़ आती हो, रोजगार के लिए उन्हें अपना घर छोड़कर सैकड़ों और हजारों किलोमीटर दूर जाना पड़ता हो, जहां घर में जन्म हो जाते हैं, जिन्होंने कभी अस्पताल का मुंह नहीं देखा हो, जो कभी स्कूल नहीं गए हैं, उन्हें कागजों की समझ नहीं है। समझ है भी तो वह संभाल कर नहीं रख पाते हैं क्योंकि उनके पास उन कागजों की कोई अहमियत नहीं है। एकाएक चुनाव आयोग ने जिस तरह से बिना राजनीतिक दलों के साथ सलाह-मशविरा किए हुए बिहार की मतदाता सूची का शुद्धिकरण करने की बात कही है यह शायद ही किसी को स्वीकार हो। अभी काम शुरू भी नहीं हुआ है, और विरोध शुरू हो गया है। चुनाव आयोग जब चुनाव के नियमों में कोई परिवर्तन करता है, कोई नई व्यवस्था लागू करता है उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह सभी राजनीतिक दलों को विश्वास में लेकर निर्णय करे। जिस तरह से चुनाव आयोग विपक्षी दलों के निशाने पर है, ऐसे समय में लाखों मतदाताओं को मतदाता सूची से बाहर करने का जो प्रयास चुनाव आयोग द्वारा किया जा रहा है उसकी तीव्र प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। चुनाव आयोग को समय रहते इस पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। ईएमएस / 28 जून 25