देशभर में मानसून की दस्तक इस बार राहत के साथ-साथ तबाही लेकर आई है। उत्तर भारत के कई राज्य—हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, दिल्ली, यूपी और बिहार मे भारी बारिश, बादल फटने और भूस्खलन जैसी आपदाओं से जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। मध्य प्रदेश, ओडिशा और महाराष्ट्र जैसे राज्य भी बारिश के कहर से अछूते नहीं हैं। मौसम विभाग ने कई राज्यों में रेड और ऑरेंज अलर्ट जारी किया है। मानसून के इस मौसम में जितना प्रकृति का प्रकोप है, उससे ज्यादा प्रकोप मानवीय और सरकारी लापरवाही का है। ज़मीनी हकीकत यह है, कि सरकार की योजनाएं और नगरीय निकायों की लापरवाही मानसून के पहले की तैयारियों का अभाव हर साल इस आपदा को और भी भयावह बना देता है। हिमाचल प्रदेश में अब तक दर्जनों लोगों की मौत हो चुकी है, सड़कें बंद हैं। पहाड़ी नदियों का जलस्तर खतरनाक हद तक बढ़ गया है। हिमाचल में बाढ़ जैसे हालात बन गए हैं। हजारों पर्यटक और वाहन यहां फंसे हुए हैं। गांव के गांव इस मानसून की बारिश में और भू स्वखलन में बह गए हैं। उत्तराखंड में चारधाम यात्रा को रोकना पड़ा है। भूस्खलन और पुल टूटने से रास्ते अवरुद्ध हैं। हजारों तीर्थ यात्री फंसे हुए हैं। उन्हें खाना-पीना भी सही से नहीं मिल पा रहा है। मैदानी इलाकों की स्थिति भी चिंताजनक बनी हुई है। गांवों में पानी भरा है, फसलें नष्ट हो रही हैं। जनजीवन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त है। दुर्भाग्य की बात यह है, कि यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। हर साल जून-जुलाई में ऐसे ही दृश्य सामने आते हैं। हर साल इसी तरह की विभीषिका से लोगों को जूझना पड़ता है। हजारों करोड़ों रुपए का नुकसान हर साल होता है। पिछले कई वर्षों से सभी नगरों में बारिश के दौरान जल प्लावन की स्थिति देखने को मिलती है। सीवर लाइन जिस तरीके से शहरों में बिछाई गई है, उसमें पानी की निकासी और ढलान का कोई ध्यान नहीं रखा गया। इस कारण थोड़ी सी भी बारिश में शहरों के कई हिस्से जल मग्न हो जाते हैं। जगह-जगह नावें चलने लगती हैं। गुजरात जैसे राज्य में हर साल बारिश के दौरान बड़े पैमाने पर विनाश लीला होती है। केंद्र एवं राज्य सरकारें सतर्क और गंभीर हों, ऐसा दिखता नहीं है। केंद्र की आपदा प्रबंधन प्रणाली जब आपदा आती है तो उसे दूर करने के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च कर देती है। स्थाई समाधान के प्रयास नहीं किए जाते हैं। जिसके कारण हर साल और वह रुपए का नुकसान केंद्र एवं राज्य सरकारों के साथ-साथ आम लोगों को उठाना पड़ता है। शहरी विकास योजनाएं बिना पर्यावरणीय संतुलन को समझे लागू हो जाती हैं। नगरी विकास योजनाओं में यह ध्यान नहीं रखा जाता है। सीवर लाइन और नालों में पानी का ढलान है, या नहीं है। पानी बाहर निकालने के लिए कितने इन्च की पाइप लाइन की जरूरत है। इस सबका ध्यान नहीं रखा जा रहा है। जिसके कारण हर शहर के कई इलाके बारिश के मौसम में पानी में डूब जाते हैं। यह हाल दिल्ली मुंबई जैसे बड़े-बड़े महानगरों के भी हैं, छोटे नगरों की भी यही हालत है। पहाड़ी क्षेत्रों में अंधाधुंध निर्माण व जंगलों की कटाई ने पहाड़ों को खोखला कर दिया है। पहाड़ी इलाकों में पहाड़ दरकने की घटनाएं बड़ी तेजी के साथ बढ़ती चली जा रही हैं। जिसने हालात को और भी भयावह बना दिया है। ऐसे में जब मानसून आता है, तो वह सिर्फ पानी ही नहीं लाता। सरकारी लापरवाही और विकास की गलत योजनाओं की विफलता के कारण प्राकृतिक आपदा से ज्यादा मानवीय आपदा झेलनी पड़ रही है। अब समय आ गया है, केंद्र और राज्य सरकारें आपदा को मौसम की दुर्घटना नहीं, बल्कि सुनयोजित विकास मे नीति विफलता के रूप में देखें। जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव को ध्यान में रखते हुए दीर्घकालिक रणनीति केंद्र एवं राज्य सरकारों को बनानी होगी। पहाड़ी राज्यों में निर्माण कार्यों की सख्त निगरानी, नदियों के बहाव में हस्तक्षेप पर नियंत्रण, शहरी जल निकासी तंत्र को मजबूत बनाते हुए दीर्घकालीन विकास को भी ध्यान में रखना होगा। वरना हर मानसून में इसी तरह का मातम और हर साल अरबो रुपए की बर्बादी देखने को मिलती रहेगी। मानसून सिर्फ पानी नहीं बरसाता है। मानसून की बारिश विकास, नीतियों और नगरीय संस्थाओं के विकास और भ्रष्टाचार की पोल खोल रही हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। वहीं योजनाओं का क्रियान्वय करने वाली एजेंसियों पर सख्त नियंत्रण रखना होगा। अधिकारियों की जवाबदेही तय करनी होगी। तभी इस विनाशलीला से राहत मिलेगी। जब भी आपदा आती है, नेताओं और अधिकारियों के लिए यह किसी दिवाली से कम नहीं होती है। नेताओं और अधिकारियों के लिए आपदा अवसर होता है जिसके कारण आम जनता साल दर साल नुकसान उठती रहती है। इस पर नियंत्रण करने की जरूरत है। ईएमएस / 30 जून 25