- कर्ज के कारण परिवार सहित आत्महत्या, चिंताजनक भारत जैसे विकासशील देश में आर्थिक असमानता और सामाजिक दबाव के बीच एक नई खतरनाक प्रवृत्ति उभर रही है। कर्ज के कारण परिवार सहित आत्महत्या करने की प्रवृत्ति दिनों दिन बढ़ती चली जा रही है। देश में यह ना केवल वित्तीय विफलता है।बल्कि हमारी सामाजिक संरचना, मानसिक, स्वास्थ्य व्यवस्था और उपभोक्तावादी सोच की करुणामय त्रासदी भी है। पहले आम आदमी कर्ज मजबूरी के कारण लेता था। यह मजबूरी भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा या विवाह शादी जैसे कार्यक्रम के लिए कर्ज लिया जाता था। व्यवसायिक विस्तार के लिए भी छोटे-मोटे कारोबारी कर्ज लेते थे। भारतीय संस्कृति में कर्ज लेना सबसे बुरा माना जाता था। पहले सामाजिक व्यवस्था में कर्जदार व्यक्ति को सम्मान भी नहीं मिलता था। कर्ज भी व्यक्ति को उसकी आर्थिक स्थिति को देखते हुए साहूकार से मिलता था। 2003 के बाद आसानी से बैंकों के माध्यम से कर्ज उपलब्ध होने लगा। बैंक और एनएफसी कंपनियां घर-घर जाकर लोन देने लगी। लोगों को मोबाइल, फोन, टीवी, फ्रिज, मोटर साइकिल, कार, पढ़ाई के लिए आसानी से कर्ज मिलने लगा। पिछले कुछ वर्षों में ऑनलाइन लॉटरी, ऑनलाइन गेम और जुए के लिए भी लोग कर्ज लेने लगे हैं। आमदनी चवन्नी और खर्चा रुपैया की प्रवत्ती बढ़ती जा रही है। जिसके कारण निम्न और मध्यम वर्ग कर्ज के बोझ से दब गया है। जब उसे कर्ज से उभरने का कोई रास्ता नहीं दिखता है। ऐसी स्थिति में परिवार के सभी सदस्यों को मारकर खुद आत्महत्या कर लेता है। ऐसे मामले लगातार बढ़ते चले जा रहे हैं। क्रेडिट कार्ड, ईएमआई, माइक्रो फाइनेंस, बाय नाउ-पे लेटर जैसी कर्ज की स्कीमें, जरूरत और विलासिता के बीच का अंतर मिटा चुकी हैं। आम आदमी सुविधाओं, भौतिक सुविधाओं और बाजारवाद के चंगुल में फंसकर कर्ज के मकड़ जाल में फंस जाता है। जिससे निकल पाना उसके लिए लगभग असंभव हो जाता है। किश्तों का बोझ, आय का अभाव, समाज का दिखावटी दबाव, आपसी प्रतिस्पर्धा यह सब मिलकर सामाजिक व्यवस्था मे कर्जदार को मानसिक रूप से तोड़ देता है। दिखावे की प्रवत्ति के कारण भारतीय समाज बड़े दबाव में है। 2003 के पहले यह दबाव देखने को नहीं मिलता था। बाजारवाद और दिखावे ने भारतीय समाज को आत्महत्या जैसे कृत्य के लिए मजबूर कर दिया है। अब हालात इतने विकट हो चुके हैं। व्यक्ति अकेले आत्महत्या नहीं कर रहा है। अपने छोटे-छोटे बच्चों, पत्नी और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ आत्मघात की प्रवत्ती दिनों दिन बढ़ती जा रही है। यह केवल आर्थिक असफलता नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक और सामाजिक दबाव का संकेत है। भौतिक आवश्यकताओं की मांग बढ़ने से भारत में यह परिवर्तन पिछले 20 वर्षों में देखने को मिल रहा है। व्यक्ति को जब लगता है, कर्ज से निकलने का कोई रास्ता नहीं है। समाज उसे विफलता की नजर से देखेगा। ऐसी स्थिति में वह स्व्यं और परिवार को कष्ट से “मुक्त” करने के लिए परिवार के सदस्यों की हत्या एवं स्वयं आत्महत्या जैसा कदम उठाने लगा है। यह स्थिति बेहद चिंताजनक है। इसके पीछे का मनोविज्ञान समझना समय की जरूरत है। पिछले एक दशक में जिस तरह से आम आदमी पर जुर्माने और टैक्स बढ़ाए गए हैं। उसने लोगों की पूरी सोच को बदल दिया है। वास्तविक जरूरत से चार गुना खर्च बाजारवाद का दबाव है, जो दिखावे के कारण होता है। जिसके कारण लोग परेशान हैं। सरकार को चाहिए वह कर्ज माफी या स्कीमों तक सीमित ना रहे। व्यापक स्तर पर सामाजिक सोच में बदलाव, वित्तीय साक्षरता, मानसिक स्वास्थ्य, परामर्श और कर्ज के बोझ से दबे हुए लोगों को बाहर निकालने में सहायता देने का रास्ता विकसित करे। स्कूलों से लेकर पंचायतों तक लोगों को सिखाया जाए, कर्ज एक सुविधा है। जिसे जरूरत होने पर ही उपयोग करना चाहिए। कर्ज लेते समय यह ध्यान रखना होगा, कर्ज चुकाना भी उसकी जिम्मेदारी है। समाज को ऐसे लोगों की मदद करने की मानसिकता विकसित करनी होगी। उन्हें तिरस्कार की दृष्टि अथवा अपेक्षित करने से काम नहीं चलेगा। जब तक सरकार कर्ज को सिर्फ आंकड़ों तक सीमित रखेगी। उससे समस्या का समाधान नहीं होगा। उल्टे यह त्रासदी के रूप में समस्या गहराती जाएगी। जरूरत है, इंसान को इंसान समझने की। गलतियों से समाज और व्यक्ति सीखता है। 2003 के पहले भारतीय समाज कर्ज को बुरा मानती थी। 2003 के बाद से कर्ज स्टेटस सिंबल बन गया है। इन दोनों के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है। कर्ज के कारण आत्महत्या और सामूहिक आत्महत्या की जो प्रवृत्ति बनी है, वह आगे चलकर और भी बढ़ेगी। यह स्थिति सामाजिक एवं कानून व्यवस्था के लिए भी बड़ी खतरनाक होगी। सामाजिक व्यवस्था में चोरी-डकैती और कई तरह के अपराध बढ़ेंगे। सरकार और सामाजिक संस्थाओं का इस समस्या पर चिंतन जरूरी है। ईएमएस / 07 जुलाई 25