09-Jul-2025
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गुरु पूर्णिमा पर प्रातः7 बजे से 55 मिनट की वृहद शांतिधारा भोपाल(ईएमएस)। मौज मजा मस्ती की सोच भौतिक सोच कहलाती है,ऐसे व्यक्ति धन को ही प्रमुखता देते है। उनका उद्देश्य रहता है,जब तक जिओ सुख से जिओ,कर्जा लो और घी पिओ की ओर रहता है। उनका मन भोग विलास की ओर भागता है तथा लालसा और आसक्ति में वह हमेशा पागल रहते है। उपरोक्त उदगार मुनि श्री प्रमाण सागर महाराज ने भौतिक सोच के व्यक्तित्व की चर्चा करते हुये व्यक्त किये। प्रवक्ता अविनाश जैन विद्यावाणी ने बताया आज मुनिसंध ने चातुर्मास की नैमित्तिक क्रिआओं को संपन्न किया तथा मुनिसंध का उपवास रहा। 10 जुलाई गुरुपूर्णिमा के अवसर पर प्रातः7 बजे से विद्या प्रमाण गुरुकुलम् के श्री पारसनाथ दि. जैन मंदिर में 55 मिनट की वृहद शांतिधारा ऋद्धि मंत्रों के साथ संपन्न होगी। तत्पश्चात मुनि श्री संधान सागर महाराज का दीक्षा दिवस मनाया जाऐगा। मुनि श्री ने चार प्रकार की सोच भौतिक सोच,व्यवसाईक सोच, व्यव्हारिक सोच, तथा आध्यात्मिक सोच की विवेचना करते हुये कहा कि अपने वाह्य जीवन को समृद्धशाली बनाना बुरा नहीं है, लेकिन सिर्फ मौज मजा मस्ती की ओर यदि आपकी दृष्टि है तो आपका मन हमेशा भोग विलास की ओर भागेगा। मुनि श्री ने कहा कि इस चातुर्मास में मेरी कोशिश रहेगी कि आपके मन की दशा और दिशा बदल जाये तथा मनुष्य जीवन की वास्तविकता को समझ मन की शक्ती को सही दिशा में मोड़ लें, मुनि श्री ने कहा वृति से ही प्रवत्ती बनती है तथा प्रवत्ती से ही परिणाम सामने आते है,भौतिक सोच के वाद व्यापारिक सोच पर चर्चा करते हुये कहा जिनकी सोच सिर्फ लाभ हांनी पर टिकी होती है वह व्यक्ती समाज में हो या घर परिवार में अपने सम्वंधों को लाभ हांनी की तराजु से ही तौलता है। यंहा तक कि वह हम लोगों के पास भी आते है तो उनका गुणा भाग यही चलता है, कि इससे नफा होगा या नुकसान। वंही व्यव्हारिक सोच एक दूसरे का सम्मान करना सिखाता है, उसका व्यवहार सभी के साथ सदा हुआ होता है। मुनि श्री ने कहा कि लोक जीवन चलाने के लिये व्यवहारिक सोच बहुत आवश्यक है। ऐसा व्यक्ति कभी किसी को निराश नहीं करता, लेकिन ध्यान रखना अपनी हस्ती, हैसियत,योग्यता और क्षमता का उलंघन करके यदि कोई काम करोगे तो वह बहूत बड़े नुकसान में आ सकते हो। यह सही है कि व्यव्हारिक सोच में व्यक्ति स्व हित के साथ परहित का भी ख्याल रखता है। जबकि आध्यात्मिक सोच में उसके देखने का नजरिया ही बदल जाता है। उसका दृष्टिकोण आत्म रुपांतरण की ओर हो दृष्टि आत्महित की ओर हो जाती है। वह राग से वैराग्य की ओर तथा पदार्थ से परमार्थ की ओर अपनी दृष्टि कर लेता है। उन्होंने सुकुमाल मुनि का उदाहरण दिया जब वह महलों में थे तो उनको राई का दाना भी चुभता था। लेकिन जब दृष्टि राग से बैराग्य की ओर गई और तपस्या में ऐसे लीन हुये कि उनका शरीर स्यालनी भक्षण करती रही और उन्होंने इसका अहसास भी नहीं किया। मुनि श्री ने कहा कि अपने सोच के लेवल को देखो महान व्यक्ति वही होता है, जिनकी सोच सकरात्मक होती है। अविनाश जैन विद्यावाणी / 09 जुलाई, 2025