लेख
12-Jul-2025
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(लेखक: सौरभ जैन अंकित/ईएमएस) जब कोई गर्भवती महिला सड़क की मांग करे और जवाब में एक निर्वाचित सांसद यह कहे कि “प्रेग्नेंसी की डेट बता दो, एक हफ्ता पहले उठा लेंगे, अस्पताल में भर्ती कराने के लिए।”, तो समझ लीजिए कि राजनीति अब सेवा नहीं, तमाशा बन चुकी है। ये कथन किसी फिल्म की स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं, बल्कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के सांसद डॉ. राजेश मिश्रा का वास्तविक बयान है, जो सीधी जिले की गर्भवती महिला लीला साहू के सड़क निर्माण की मांग पर आया। लीला की पीड़ा पर सियासी बेहिसी का तमाचा है। लीला साहू कोई नेता नहीं, न ही किसी आंदोलन की अनुभवी कार्यकर्ता हैं। वह एक आम ग्रामीण महिला हैं, जिनकी मां बनने की घड़ी नज़दीक है और जिनका गांव आज़ादी के 77 साल बाद भी 10 किलोमीटर की सड़क से वंचित है। उन्होंने एक साल पहले एक वीडियो बनाकर सड़क की गुहार लगाई थी, लेकिन सरकार की संवेदनाएं तो उस सड़क से भी ज्यादा गुम हैं। एक बार फिर उन्होंने वीडियो बनाकर नेताओं को जगाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें जवाब मिला जो शायद किसी लोकतांत्रिक देश की राजनीति पर सवालिया निशान लगाता है। सांसद राजेश मिश्रा का यह बयान, कि “डिलिवरी की संभावित तारीख बता दें, हम एक हफ्ता पहले अस्पताल में भर्ती करा देंगे... सड़क तो इंजीनियर बनाते हैं, हम नहीं।” गांव के गरीब के लिए सांसद के इस बयान में छुपी संवेदनहीनता ही नहीं, बल्कि राजनीतिक गैरजवाबदेही भी झलकती है। अगर सांसद सड़क नहीं बनाता, तो चुनावी वादों में “सड़क लाएंगे, विकास करेंगे” का नारा क्यों दिया जाता है? और अगर किसी नागरिक ने आपको वोट दिया है, तो उसका ये बुनियादी हक नहीं कि वह कम से कम अस्पताल तक पहुंच सके? मध्यप्रदेश सरकार “डबल इंजन” की सरकार कहकर खुद की तारीफ करती नहीं थकती, लेकिन गांव-गांव की सड़कें आज भी एकलाहट और उपेक्षा का नमूना हैं। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना का नाम तो है, पर बहुत से गांव आज भी कच्चे रास्तों और कीचड़ भरी पगडंडियों से जुड़े हैं। वहीं नेता टीवी स्टूडियो में “विकास” के पुल बांधते हैं और ज़मीन पर बच्चे कंधों पर लादकर अस्पताल ले जाए जाते हैं। कई बार प्रसूताएं खेतों में, रास्तों में और कभी-कभी एंबुलेंस के इंतज़ार में दम तोड़ देती हैं। लीला साहू ने सांसद से पूछा है कि “मैंने आपको वोट दिया है। अब मेरी जिम्मेदारी आपकी है या नहीं? गांव में छह महिलाएं गर्भवती हैं, कोई हादसा हुआ तो कौन जिम्मेदार होगा?” इस सवाल का जवाब राजेश मिश्रा ही नहीं, पूरे सत्ता तंत्र को देना होगा। क्या अब लोकतंत्र में जनता को अपने हक के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेकर वीडियो बनाना पड़ेगा? क्या अब प्रतिनिधि केवल टीवी कैमरों के सामने जिम्मेदार होते हैं? यह गर्भवती लीला की गुहार पर सियासत की तानाशाही है। यहाँ सड़क नहीं, सलाह मिली! लीला की मांग सिर्फ एक सड़क की नहीं है, वह सरकार की संवेदना, उसकी जवाबदेही और उसकी ईमानदारी की भी मांग कर रही हैं। लेकिन जवाब में मिला व्यंग्य, उपहास और कर्तव्य से पल्ला झाड़ने वाला रवैया। राजेश मिश्रा का यह बयान कोई मामूली चूक नहीं, यह उस राजनीतिक सोच का आईना है जो सत्ता को सेवा नहीं, सुविधा समझता है और जनता को केवल चुनावी गणना का हिस्सा। लीला की लड़ाई सिर्फ उनके गांव के लिए नहीं, ये पूरे प्रदेश की उन अनगिनत आवाज़ों की लड़ाई है, जो आज भी सड़क, स्वास्थ्य और सम्मान के लिए तरस रही हैं। अब देखना ये है कि सियासी गलियारों में यह आवाज़ गूंजती है या सड़कों के अभाव में फिर एक और प्रसव खेतों में होता है।