लेख
05-Sep-2025
...


अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हमेशा से ही राजनीति और सत्ता को कारोबार और सौदेबाज़ी की नज़र से देखते और उसी के लिहाज से फैसले लेते रहे हैं। यही वजह है कि वे आज अपने ही देश में घिरते नजर आ रहे हैं। रिपब्लिकन पार्टी के भीतर बढ़ती नाराज़गी और मीडिया की आलोचना ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या ट्रंप राष्ट्रीय नीति चला रहे हैं या अपने निजी कारोबारी सपनों की इमारत खड़ी करने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं। नेतन्याहू और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं से उनकी निकटता को भी इसी संदर्भ में देखा जा रहा है। राष्ट्रपति ट्रंप का मानना है कि इन रिश्तों के सहारे वे अमेरिका के साथ-साथ अपने निजी कारोबारी हितों को भी मज़बूती दे सकते हैं। इससे हटकर यदि जमीनी सत्यता को सामने रखकर बात की जाए तो नेतन्याहू और मोदी की राजनीति अपने-अपने घरेलू संकटों से उलझी हुई नजर आती है। ऐसे में इन पर अत्याधिक भरोसा करना न केवल अमेरिका की विदेश नीति को कमजोर करने वाला फैसला साबित हो सकता है, बल्कि ट्रंप की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को भी बोझ बना सकता है। यही नहीं बल्कि गाजा में ट्रंप सिटी को दुबई की तरह बनाने का राष्ट्रपति ट्रंप का सपना भी इसी अवास्तविक सोच का हिस्सा है। दुबई का विकास मॉडल स्थिरता, निवेश और खुली नीतियों की बुनियाद पर खड़ा हुआ, जबकि गाजा आज भी संघर्ष, आतंक और अस्थिरता का प्रतीक है। जब तक शांति और भरोसे का माहौल नहीं बनेगा, तब तक वहां किसी भी विकास की कल्पना करना खोखली बयानबाज़ी ही साबित होगी। भारत और पाकिस्तान के मामले में भी राष्ट्रपति ट्रंप ने कारोबार का चश्मा पहन रखा है। वे मानते हैं कि पीएम मोदी के जरिए दोनों देशों में व्यापारिक अवसर तलाशे जा सकते हैं। लेकिन दशकों से चले आ रहे अविश्वास, कश्मीर विवाद और सीमा पार आतंकवाद ने इस संभावना को लगभग असंभव बना दिया है। भारत निवेश और विकास का केंद्र है, जबकि पाकिस्तान अभी भी राजनीतिक और आर्थिक संकट से जूझ रहा है। दोनों को एक ही तराजू पर तौलना गंभीर रणनीतिक भूल होगी। ऐसे में ट्रंप का भारत पर 50 फीसदी टैरिफ लगाना और रुस से तेल खरीदी न करने के लिए दबाव बनाना कहीं न कहीं रिश्तों में खटास पैदा करने जैसा कदम ही है। यह वह दौर है जबकि वैश्विक स्तर पर किसी भी निर्णय को एकतरफा नहीं लिया जा सकता है, देश की नीतियों और उसके प्रभाव को सामने रखना ही होता है। ऐसे में अब असल चुनौती यही है कि ट्रंप हर मुद्दे को “डील” के रूप में देखते हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति सौदों और निजी महत्वाकांक्षाओं से कहीं गहरी है। इसमें भरोसा, स्थिरता और संतुलित दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है। ट्रंप के सपनों की सूची लंबी है, अमेरिका में अपनों से घिरे होने की मजबूरी भी है, नेतन्याहू और मोदी पर टिका निजी कारोबार, गाज़ा को दुबई बनाने की कल्पना और भारत-पाकिस्तान में कारोबार का ख्वाब, यह सब काग़ज़ी दुनियां में सुंदर लग सकते हैं, पर वास्तविकता में बेहद कमजोर और विरोधाभासी हैं। दुनिया को आज ऐसे नेताओं की ज़रूरत है जो रिश्तों को व्यापारिक बोली में नहीं, बल्कि शांति और मानवता के आधार पर परिभाषित करें। वरना ट्रंप जैसे सपनों के सौदागर अंततः अपने ही जाल में उलझने वाले ही हैं। ईएमएस / 05 सितम्बर 25