राष्ट्रीय
21-Oct-2025
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अयोध्या से देर पहुँची खबर पर मनाया गया पर्व, मशालों से रोशन होती हैं घाटियां नई दिल्ली,(ईएमएस)। देशभर में जहां छोटी दिवाली और बड़ी दिवाली हर्षोल्लास से मनाई जाती है, वहीं हिमाचल प्रदेश में इन दोनों के लगभग एक माह बाद मनाई जाती है ‘बूढ़ी दिवाली’। यह लोक-परंपरागत पर्व आज भी सिरमौर, कुल्लू, शिमला और लाहौल-स्पीति जैसे जिलों में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। लोककथा के अनुसार, जब भगवान राम के अयोध्या लौटने और दिवाली मनाए जाने की खबर हिमालय की ऊंची पहाड़ियों तक पहुंची, तब तक एक महीना बीत चुका था। इस देरी से मिली खुशी को लोगों ने मशालें जलाकर, नाच-गाकर और मिठाइयां बांटकर मनाया। तभी से यह पर्व “बूढ़ी दिवाली” कहलाया। यह पर्व मार्गशीर्ष महीने की अमावस्या को मनाया जाता है, जो दिवाली के लगभग एक माह बाद आती है। इसे देरी से प्राप्त दिवाली की खुशियों का प्रतीक माना जाता है। मुख्य परंपराएं और रीति-रिवाज बूढ़ी दिवाली की सबसे प्रमुख परंपरा मशाल जुलूस है। ग्रामीण लोग हाथों में मशालें लेकर गांव-गांव घूमते हैं, जिससे पूरी घाटियां प्रकाश से जगमगा उठती हैं। इस दिन लोक गीत, नृत्य और नाटक प्रस्तुत किए जाते हैं। लोग एक-दूसरे को मूड़ा, चिड़वा, शाकुली और अखरोट जैसे पारंपरिक व्यंजन बांटकर शुभकामनाएं देते हैं। धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व यह त्योहार प्रकृति और देवताओं के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है। इसमें पटाखों की जगह पूजा, भक्ति और सामूहिक उत्सव को महत्व दिया जाता है। पर्व के माध्यम से परिवार, समाज और संस्कृति के प्रति एकजुटता और अपनापन प्रकट होता है। दिवाली की जगमग रोशनी के एक माह बाद, जब हिमालय की ठंडी वादियों में मशालें जलती हैं, तो ऐसा लगता है मानो दिवाली फिर से लौट आई हो, इस बार परंपरा और लोकसंस्कृति के रंग में रंगी हुई। हिदायत/ईएमएस 21 अक्टूबर 2025