 
                            दीपावली के बाद से दिल्ली में एयर क्वालिटी बहुत खराबबनी हुई है ऐसे में सरकार ने परमाणु बारिश (कृत्रिम बारिश) का समाधान करने के लिए परमाणु ऊर्जा निगम की मदद ली थी, लेकिन इसका मकसद बारिश को खत्म करना था। सरकार की ओर से इस प्रोजेक्ट में 1 करोड़ रूपये से ज्यादा की लागत आई है, जबकि कानपुर के निदेशक मणींद्र अग्रवाल ने बताया कि अभी हाल ही में दिल्ली में हुई क्लाउड सीडिंग प्रक्रिया पर ही करीब 60 लाख रूपये का खर्च आया। आपको बता दें दिल्ली सरकार ने मंगलवार को बढ़ते प्रदूषण स्तर से निपटने के लिए कृत्रिम वर्षा (आर्टिफिशियल रेन) कराने की दिशा में दो क्लाउड सीडिंग के परीक्षण किए। इसके तहत नमक आधारित और सिल्वर आयोडाइड फ्लेयर से लैस एक विमान का उपयोग किया गया। हालांकि, मंगलवार शाम तक कानपुर और मेरठ से उड़ान भरने वाले दोनों विमानों के प्रयास असफल रहे और कहीं भी बारिश नहीं हुई। आईआईटी कानपुर के निदेशक मनीन्द्र अग्रवाल ने बताया कि दिल्ली में कृत्रिम वर्षा के प्रयास “पूरी तरह सफल” नहीं रहे। उन्होंने बताया कि मंगलवार को दो उड़ानें भरी गईं- एक दोपहर में और दूसरी शाम के समय। इन उड़ानों के दौरान कुल 14 फ्लेयर दागे गए, लेकिन इसके बावजूद बारिश नहीं हुई। अग्रवाल ने कहा, “विमान फ्लेयर दागने के बाद मेरठ लौट आया, लेकिन अब तक कोई वर्षा नहीं हुई है। इस लिहाज से यह प्रयास पूरी तरह सफल नहीं कहा जा सकता।” आप जानते हैं कि लंबे समय से दिल्ली को प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए विकल्प के बड़े दावे के रूप में प्रचारित किया गया है। दिल्ली में यह बहु-प्रचारित प्रयोग स्थगित करना पड़ा। बल्कि बारिश की फुहारों के बजाय राजनीतिक घमासान और सवालों की बारिश के रूप में इसकी परिणति हुई। राष्ट्रीय राजधानी के आकाश में छाये जहरीले धुएं को धोने के लिए जो करीब सवा तीन करोड़ रुपये खर्च किए गए, वे बूंदाबांदी भी नहीं नहीं ला सके। इसके बाद न केवल आसमान सूखा रहा बल्कि दिल्ली की उम्मीदें भी सूखी रहीं। इसके इतर प्रदूषण के समाधान के लिए बहुप्रचारित इस प्रयोग के असफल होने के तुरंत बाद आम आदमी पार्टी और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी में राजनीतिक घमासान शुरू हो गया। इसमें दो राय नहीं कि वैज्ञानिक परीक्षण तार्किकता और अनुकूल परिवेश में ही सिरे चढ़ता है। इसी तरह क्लाउड सीडिंग के लिए जरूरी अनुकूल परिस्थितियों के न होने के तथ्य को गंभीरता से नहीं लिया गया। दरअसल, कृत्रिम बारिश केवल उन्ही परिस्थितियों में फलीभूत होती है जब वातावरण में पर्याप्त नमी हो, आसमान में घने बादल छाए हों तथा हवा का रुख स्थिर बना रहे। दुनिया के कई देशों, मसलन चीन, थाईलैंड और संयुक्त अरब अमीरात में कृत्रिम बारिश के प्रयोग इसलिए सफल हो सके क्योंकि उन्होंने इस प्रयोग को सिरे चढ़ाने के लिये सही समय को चुना था। दिल्ली के शासन-प्रशासन ने इस प्रयोग को अमली जामा पहनाने से पहले इस बात को नजरअंदाज किया कि दिल्ली का आसमान शुष्क है और वातावरण में नमी की कमी है। ऐसे में पर्याप्त आर्द्रता यानी बादलों के पर्याप्त घनत्व के बिना सिल्वर आयोडाइड की लपटें बारिश पैदा नहीं कर सकतीं। ऐसा नहीं हो सकता कि इस विकल्प को सिरे चढ़ाने वाले योजनाकारों को विज्ञान की यह सीमा ज्ञात नहीं थी। फिर भी यदि सरकार आगे बढ़ी तो निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सरकार की प्राथमिकता परिणामों के बजाय इससे मिलने वाले प्रचार को लेकर ज्यादा रही। ऐसे में एक सवाल यह भी उठता है कि क्या दिल्ली सरकार समस्या के वास्तविक समाधानों की अनदेखी करते हुए कृत्रिम बारिश को सिरे चढ़ाने वाले महंगे विकल्पों पर दांव लगा सकती है? वास्तव में हमें प्रदूषण की जड़ों पर प्रहार करने की जरूरत है। कृत्रिम बारिश एक फौरी विकल्प तो हो सकता है, लेकिन समस्या का अंतिम समाधान नहीं हो सकता। वास्तव में आज जरूरत प्रदूषण उत्सर्जन के स्रोतों को बंद करने की है। यहां पता रहे कि दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को दुरुस्त करने की आवश्यकता है ताकि लोग निजी वाहनों का उपयोग कम करें। सरकार की प्राथमिकता वाहनों से होने वाले उत्सर्जन को कम करने, साल भर चलने वाले निर्माण कार्य से उत्पन्न धूल को नियंत्रित करने तथा पर्यावरण अनुकूल मानदंडों को सख्ती से लागू करने की होनी चाहिए। सरकार को चाहिए था कि खर्चीली कृत्रिम बारिश की योजना को सिरे चढ़ाने के बजाय हवा को अधिक प्रभावी ढंग से साफ करने को तरजीह दी जाती। निर्विवाद रूप से यह असफल प्रयोग सत्ताधीशों की एक बड़ी बीमारी को भी दर्शाता है, जो प्रदूषण नियंत्रण को बतौर कारगर नीति लागू करने के बजाय उसके समाधान के प्रयासों को प्रचारित करने की प्रवृत्ति से ग्रसित हैं। दिल्ली की कई सरकारों के कार्यकाल में प्रदूषण नियंत्रण कार्य में प्रगति कम हुई है और विज्ञापनों पर करोड़ों रुपये खर्च करके लोक लुभावनी योजनाओं का ज्यादा प्रचार होता रहा है। ऐसी नीतियों को सिरे चढ़ाने में सख्त अनुशासन की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि प्रदूषण के संकट का समाधान हेलीकॉप्टरों के जरिये आकाश में रसायन बिखेरने से नहीं, बल्कि जमीनी स्तर पर सुशासन, निरंतर योजना को क्रियान्वित करने और वैज्ञानिक उपायों को सिरे चढ़ाने में दृढ़ता दिखाने से होगा। कृत्रिम बारिश के इस प्रयोग की विफलता के बावजूद भविष्य में ऐसे प्रयोगों से हाथ पीछे खींचना भी उचित नहीं होगा। भले ही इस बार बादलों ने साथ नहीं दिया, लेकिन भविष्य में अनुकूल परिस्थितियां बन सकती हैं। इस प्रयोग का सबक है कि दिल्ली के लाखों लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिये वैज्ञानिक संस्थानों और नागरिक एजेंसियों के बीच बेहतर समन्वय के साथ ऐसी योजनाओं को सिरे चढ़ाना चाहिए। पिछले कुछ समय से उन वैज्ञानिक अनुसंधान से जुड़े महती क्रियाकलापों को भी राजनीतिक उद्देश्यों से प्रचारित करने का सिलसिला चल निकला है लेकिन यह उचित नहीं है जिन योजनाओं के क्रियान्वयन में गंभीरता और परिणामों की उपयोगिता की समीक्षा की जरूरत है उन्हें हवाबाजी और शोशेबाजी का मुद्दा बनाना निरा मूर्खता भरा है। चाहे सामरिक परीक्षण हो या उपग्रह प्रक्षेपण अथवा कृत्रिम बारिश इन्हें यथेष्ट प्रयोगवाद गंभीरता से अंजाम देने की जरूरत है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं पिछले 38 वर्ष से लेखन और पत्रकारिता से जुड़े हैं) ईएमएस / 31 अक्टूबर 25