लेख
25-Nov-2025
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ठंड हल्की फुल्की ही है। शीशे की खिड़कियों से आम के पेड़ों पर चिड़िया बैठी दिखाई दे रही है। सूरज उग कर पूरब क्षितिज पर दस्तक दे रहा है। जहां मैं हर सुबह टहलता हूं, उस मैदान के बीचोंबीच एक आम का पेड़ है। पिछले वर्ष से ही वह सूखने लगा था। पहले सिर सूखा यानी ऊपर का हिस्सा। नीचे वाले चारों तरफ की टहनियां हरी भरी थीं। वसंत में मंजरियां भी चुपके से आ गई थीं। सावन- भादो में भी वे कायम रहीं, मगर अब देख रहा हूं कि पूरी तरह काल कवलित हो चुकी हैं। आम का यह पूरा पेड़ ठूंठ बन चुका है - चेतनहीन और निस्पंद। निराला ने एक कविता लिखी थी स्नेह निर्झर बह गया है।’ कविता मर्म को छूती है। बूढ़े को ही नहीं, युवाओं के ह्रदय को भी उद्वेलित करती है-स्नेह-निर्झर बह गया है रेत ज्यों तन रह गया है ।’ इसके आगे की पंक्तियां हैं -‘आम की यह डाल जो सूखी दिखी,कह रही है-अब यहाँ पिक या शिखी नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी नहीं जिसका अर्थ- जीवन दह गया है । आम के पेड़ की यह दशा देखकर मुझे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार याद आते हैं। निराला ने कितनी सटीक पंक्तियां लिखी हैं - दिये हैं मैने जगत को फूल-फल, किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल; पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल-- ठाट जीवन का वही जो ढह गया है मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जीवन का ठाट ढह गया है। मैं अगर उनके परिवार का रहता तो उनसे कहता- ‘ठाट से जीया है, हुकर - हुकर कर कुर्सी से मत चिपके रहिए। हरेक की यह नियति है, इसे स्वीकार कीजिए। सेवानिवृत्ति लीजिए और बची जिंदगी का उपभोग कीजिए। आपका यह करुण अवसान देखा नहीं जाता।’ बुढ़ापा किसके पास नहीं आता। चिग्घाड़ने वाले जार्ज फर्नांडिस को अंतिम दिनों में अपनी याद नहीं रही। शब्दों के जादू से आत्ममुग्ध करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी भी उसी राह से गुजर गये। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उसी राह के राही हैं। सार्वजनिक जगहों पर उनके अप्रत्याशित व्यवहार बहुत कचोटते हैं। प्रधानमंत्री को देख कर तो उनकी स्थिति अजीबोगरीब हो जाती है। बार बार पांव छूना किसी को अच्छा नहीं लगता। पेड़ों में पत्ते नहीं रहे तो यह सोच लेना चाहिए कि मिटने का वक्त आ गया। महादेवी वर्मा ने एक कविता लिखी -’ मैं नीर भरी दुःख की बदली। उस कविता की पंक्तियां हैं - “ विस्तृत नभ का कोई कोना; मेरा न कभी अपना होना, परिचय इतना इतिहास यही उमड़ी कल थी मिट आज चली!” जो उमड़ता है, एक दिन मिट जाता है। इतनी बड़ी दुनिया का कोई कोना अपना नहीं होता। अक्सर बुढ़ापा परेशान करता है। आशाएं मरती नहीं। आकांक्षाओं पर कोई नियंत्रण नहीं होता। आज भी नीतीश कुमार के अंदर इच्छाएं जोर मारती हैं, लेकिन शरीर उस काबिल नहीं रहा। चेतना भी दूर होती जा रही है। अपने स्वार्थ के लिए कुछ लोग अपना कंधा लगाये हुए हैं। सम्मान सहित कुर्सी से उतरना ज्यादा सारगर्भित होता, धक्के मार कर कुर्सी से हटाना बहुत बुरा होगा। हटाने की कार्रवाई हो रही है। गृह मंत्रालय उनके पास नहीं रहा। शासन की धड़कन है गृह मंत्रालय। उसके बिना वे क्या रहेंगे? गृह मंत्रालय उनके पास रहे ही क्यों, जब चेतना स्थिर नहीं है। अब मुख्यमंत्री का दीपक मधुर मधुर नहीं जलता। हवाएं जिधर ले चले, उन्हें चलना पड़ेगा। निस्पंदता बुढ़ापे का श्रृंगार है, मुख्यमंत्री की कुर्सी का नहीं। बिहार के लिए बहुत ही कारुणिक दृश्य है। महात्मा बुद्ध ने कहा था- इच्छा ही दुःख का कारण है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की इच्छा उन्हें घसीटने लगी है। लोथ होती देह और मन के लिए बेहतर है कि वे मुक्त हो जाएं - मदमाते दीपक की तरह। ईएमएस/25नवम्बर2025