लेख
28-Nov-2025
...


- अस्थिर मुद्राओं की सूची में शामिल होगी भारतीय मुद्रा भारत की अर्थव्यवस्था पिछले एक दशक में दुनिया की तेज़ी से उभरती हुई शक्तियों में शामिल रही है। हाल ही में जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान (आईएफएम) ने भारत की मुद्रा स्थिति को लेकर कड़ी चेतावनी जारी की है, वह भारत की अर्थव्यवस्था के लिए एक चिंताजनक संकेत हैं। आईएफएम ने चेतावनी जारी करते हुए कहा है, भारतीय रुपया जल्द ही “अस्थिर मुद्राओं की सूची” में शामिल किया जा सकता है। यह स्थिति भारत की अर्थव्यवस्था और अर्थ प्रबंधन पर घंभीर सवाल उठाता है। भारत सरकार के आर्थिक नीति-निर्माताओं के सामने एक नई चुनौती खड़ी हो गई है। रुपये की कमजोरी कोई नई बात नहीं है, लेकिन पिछले कुछ महीनों में इसकी गिरावट लगातार तेज़ हो रही है। वैश्विक बाज़ार में डॉलर की मजबूती, कच्चे तेल की बढ़ती क़ीमतें और विदेशी निवेश का भारत से पलायन यह तीनों ऐसे कारण हैं जो रुपये पर भारी दबाव डाल रहे हैं। बाहरी कारणों के साथ-साथ घरेलू बाजारों मे भी चुनौतियाँ लगातार बढ़ रही हैं। बढ़ती महंगाई, नौकरी में छटनी और नई नौकरी नहीं मिलना, रोजगार के अवसरों में ठहराव, औद्योगिक उत्पादन में कमी से आर्थिक असंतुलन बुरी तरह से गड़बड़ाता जा रहा है। आईएफएम की चेतावनी का सबसे अहम कारण जिस तरह से डॉलर की खरीद और बिक्री करके रिजर्व बैंक और अन्य कारोबारी, रुपए की स्थिति को संभालने का प्रयास कर रहे हैं, आईएफएम ने इसको सबसे ज्यादा चिंताजनक माना है। यदि आईएफएम ने रुपया को अस्थिर मुद्रा की श्रेणी में डाल दिया, तो इसका सीधा असर आम भारतीय और भारतीय अर्थ व्यवस्था पर बड़ा गहरा असर पड़ेगा। आयात महंगा होगा, पेट्रोल-डीजल से लेकर इलेक्ट्रॉनिक सामान तक की कीमतें उसी हिसाब से बढ़ेंगी। महंगाई तेजी के साथ बढ़ेगी। सरकार, कारोबारी और आम जनता के सामने आर्थिक मुश्किलें और भी बढ़ेंगी। यह स्थिति निवेशकों के विश्वास को शेयर बाजार से हटा सकती है, जिससे शेयर बाज़ार और विदेशी निवेश पर बड़ा नकारात्मक असर पड़ना तय है। अभी भी विदेशी निवेशक शेयर बाजार से अपना निवेश निकालकर भाग रहे हैं। सोमवार से गुरुवार तक सरकार और भारत की वित्तीय संस्थाएं शेयर बाजार को संभालने की कोशिश करती हैं। शुक्रवार आते-आते मार्केट टूट कर मुनाफा वसूली करने लगता है। इसमें भारत की वित्तीय संस्थाएं लगातार खोखली होती चली जा रहे हैं। इस स्थिति के लिए सबसे बड़ी जिम्मेदारी सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक की बनती है। रिजर्व बैंक और आर्थिक नीतियों पर सरकार की दखलंदाजी 2019 के बाद से लगातार बढ़ती जा रही है। रिजर्व बैंक में अब अर्थशास्त्रियों का स्थान प्रशासनिक अधिकारियों और सरकार के उन लोगों ने ले लिया है जो अर्थ का अ, ब, स, द भी नहीं जानते हैं। वर्तमान स्थिति में केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक को तत्काल ठोस कदम उठाने होंगे। विदेशी मुद्रा भंडार को मजबूत करना होगा, सरकार को वित्तीय घाटे को नियंत्रित करना होगा। उद्योग एवं निर्यात से जुड़े क्षेत्रों को राहत पैकेज देना होगा। गैर जरूरी आयात और भारत से विदेशी मुद्रा को विदेश जाने से रोकने के लिए पर्यटन और घूमने-फिरने जैसे उपायों पर रोक लगानी होगी। ऐसे उपाय करने होंगे, जो रुपये को स्थिर करने में मदद कर सकते हों। सरकार और रिजर्व बैंक को महंगाई पर नियंत्रण रखने की नीतियां बनानी होंगी। नीति-निर्माण में पारदर्शिता के साथ काम करना होगा। भारत के पास संभावनाएँ बहुत हैं। इसके लिए सरकार को स्वयं अर्थव्यवस्था के सत्य को समझने की जरूरत है। सरकार की जिम्मेदारी है कि वह अर्थव्यवस्था को लेकर आम आदमी को भी सही स्थितियां बताए। आर्थिक प्रबंधन के मोर्चे पर जो स्थिति देखने को मिल रही है, यदि इसे समय रहते संभाला नहीं गया, तो यह चूक देश को भारी महँगी पड़ सकती है। आईएफएम की चेतावनी को एक तकनीकी रिपोर्ट मानकर अनदेखा करना इस समय की सबसे बड़ी भूल होगी। अर्थव्यवस्था के बारे में भारत के लिए यह एक स्पष्ट संकेत है। भारतीय अर्थव्यवस्था को त्वरित और निर्णायक सुधारों की जरूरत है। सही समय पर सही कदम न उठाए गए, तो रुपया केवल अस्थिर मुद्रा नहीं, बल्कि आर्थिक जोखिम का बड़ा कारण बन सकता है। सरकार ने पिछले 12 वर्षों में बड़े-बड़े सपने दिखाए हैं, भारतीय अर्थव्यवस्था में डॉलर 90 रूपये पार कर चुका है। भारत के आयात और निर्यात में असंतुलन बना हुआ है, जिसके कारण विदेशी मुद्रा कम आ रही है। आयात करने के लिए हमें ज्यादा विदेशी मुद्रा खर्च करना पड़ रही है। सारे उद्योग और व्यापार इस समय वैश्विक कारोबार कर रहे हैं। इसका असर भारत के आम आदमी और भारतीय अर्थ व्यवस्था में पड़ना तय है। अर्थव्यवस्था को लेकर सरकार को 4 और 5 ट्रिलियन डॉलर के सपने देखने के स्थान पर आंखें खोलकर भारत की अर्थव्यवस्था को देखना होगा। अच्छे अर्थशास्त्रियों की सहायता लेनी होगी। राजनेता और नौकरशाह मिलकर भी अर्थव्यवस्था को संभाल नहीं सकते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधार को लेकर 93 से 96 तक उसके बाद 2004 से लेकर 2014 तक जो कमाया था। भारत की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाया था। पिछले 10 से 11 वर्षों में भारत सरकार की गलत नीतियां और ओवर कॉन्फिडेंस ने सब कुछ खतरे में डाल दिया है। समय रहते सरकार को अपनी नीतियों में सुधार करना पड़ेगा। भारत में कारोबार बढे इस ओर ध्यान देना पड़ेगा। असंगठित क्षेत्र को पुनः जीवित करना पड़ेगा। भारत का असंगठित क्षेत्र सबसे ज्यादा कारोबार करता है। सबसे ज्यादा रोजगार के अवसर उपलब्ध कराता है। यही भारत की अर्थव्यवस्था की रीड़ की हड्डी है। इस बात को सरकार, उसके नीति निर्धारकों और वित्तीय संस्थानों को समझना होगा। अन्यथा भारत की स्थिति 2008 में जिस तरह से अमेरिका की अर्थव्यवस्था तबाह हुई थी, भारत भी उसी दिशा की ओर बढ़ता चला जा रहा है। अभी डॉलर 90 के आसपास है, जल्द ही 100 रूपये तक पहुंचने की भविष्यवाणी अर्थशास्त्री करने लगे हैं। इस तथ्य का, सरकार को ध्यान मे रखना होगा। अब आंख बंद करके नहीं बैठा जा सकता है, ना ही नोसिखियों के भरोसे अर्थव्यवस्था को छोडा जा सकता है। ईएमएस / 28 नवम्बर 25