भारत में नशीले पदार्थों का कारोबार दवा के नाम पर होना कोई नया विषय नहीं है। हॉं यह जरुर है कि बीते कुछ दशकों में इसका स्वरूप तेजी से बदला है। पहले जहां नशा मुख्यतः शराब, अफीम, गांजा या भांग जैसे पारंपरिक माध्यमों तक सीमित था, वहीं अब यह दवाइयों की आड़ में नशे का व्यापार खुलेआम फैलता जा रहा है। आयुर्वेदिक और एलोपैथी—दोनों ही चिकित्सा पद्धतियों में दवाओं के नाम पर नशीले उत्पादों की बिक्री एक गंभीर सामाजिक, आर्थिक, और युवा पीढ़ी के लिये संकट का रूप ले चुकी है। लगभग तीन दशक पहले तक अल्कोहल युक्त आयुर्वेदिक ‘रिष्ट’ बड़ी मात्रा में बाजार में उपलब्ध थे, जिनमें 26 से 35 प्रतिशत तक अल्कोहल होता था। रिष्ट की दवाइयां मेडिकल स्टोरों से बिना किसी रोक-टोक के बिकती थीं, जो नसेड़ियों के लिये वस्तुतः नशे का साधन बन चुकी थीं। इसी तरह भांग से बने उत्पाद भी आयुर्वेदिक औषधियों के नाम पर बेचे जाते रहे। इंदौर का प्रसिद्ध ‘गटागट’, जो भांग से तैयार होता था, देश के लगभग सभी राज्यों में बड़े पैमाने पर बिकता था। समय के साथ नशे का यह कारोबार आयुर्वेद से निकलकर एलोपैथी में तेजी से शिफ्ट हो गया। नींद की गोलियों का उपयोग नशे के रूप में दुरुपयोग की समस्या वर्षों से चली आ रही है। हाल के वर्षों में कफ सिरप के रूप में नशे का चलन बेहद खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। कोडीन युक्त कफ सिरप इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यह दवा, जो मूलतः खांसी के इलाज के लिए बनाई जाती है, नशे के रूप में इस्तेमाल की जा रही है। इसका नशा कई घंटों तक बना रहता है। शराब की तुलना में सस्ता होने के कारण यह गांव-गांव और हर मोहल्ले में आसानी से उपलब्ध है। कफ सिरप अब शराब की तरह नसेड़ियों द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है। सरकारों द्वारा देसी और विदेशी शराब पर टैक्स बढ़ाए जाने से नशे के लिए कफ सिरप की बिक्री को बढ़ा रहा है। पारंपरिक शराब पीने वाले लोग अब सस्ते और आसानी से मिलने वाले नशीले विकल्पों की ओर रुख कर रहे हैं। कफ सिरप के नशे की खास बात यह है कि इसे पीने वालों की सामाजिक छवि भी खराब नहीं होती, क्योंकि यह “दवा” के रूप में ली जाती है। यही कारण है कि इसका प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। बिहार जैसे राज्यों में जहां नशाबंदी है, वहीं सबसे ज्यादा यह बिक रहा है। यह समस्या केवल भारत तक सीमित नहीं है। भारत में तैयार कोडीन युक्त कफ सिरप बड़ी मात्रा में बांग्लादेश, पाकिस्तान और अन्य पड़ोसी देशों में दवा के रूप में निर्यात किया जा रहा है। इसके कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की छवि प्रभावित हो रही है। सूत्रों के अनुसार, यह पूरा धंधा 25 से 30 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है, जो इसकी भयावहता को दर्शाता है। इस पूरे तंत्र में दवा कंपनियों, केमिस्टों, पुलिस, नारकोटिक्स और एक्साइज विभाग की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं। आरोप है, केंद्र और राज्य सरकारों में बैठे कुछ नीति-निर्माताओं को भी इससे आर्थिक लाभ और राजनीतिक चंदा मिलता है। यही कारण है कि कोडीन युक्त कफ सिरप बनाने वाली कंपनियां अधिक मात्रा में नशीले रसायनों का उपयोग दवा निर्माण में कर रही हैं। सरकार की ओर से की जाने वाली कार्रवाई नाममात्र की रह गई है। दवाओं के रूप में नशा उत्पाद बिकने के चलते सरकार को टैक्स का भी नुकसान उठाना पड़ रहा है। सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि युवा पीढ़ी तेजी से नशे की चपेट में आ रही है। नशा अब बीमारी के “इलाज” की शक्ल में घर-घर पहुंच रहा है। यह स्थिति समाज के लिए बेहद खतरनाक है। आवश्यकता है कि सरकारें दवा नियंत्रण कानूनों को सख्ती से लागू करें। राजनैतिक दलों को पिछले वर्षों में दवा कंपनियों से करोड़ों रूपयों का चंदा मिला है। वहीं राजनेताओं को भी दवा कंपिनयां उपकृत कर रही हैं। इस कारण अब नशे का कारोबार दवाईयों के नाम पर बढ़ता जा रहा है। बिना दवा के अब लोगों का उसी तरह की परेशानी हो रही है, जिस तरह नशा नहीं मिलने पर नसेड़ियों की होती है। दवा कंपनियाँ दवाइयों को नशे के रूप में पहुंचाकर लोगों को अपनी दवाई के नशे में फंसा रही हैं। ऐसी दोषी दवा कंपनियों पर सरकार कड़ी कार्रवाई करें। समाज को इस छिपे हुए नशे के खिलाफ जागरूक करें। अन्यथा दवाइयों के नाम पर नशे का यह कारोबार आने वाले समय में एक राष्ट्रीय आपदा बन सकता है। ईएमएस / 24 दिसम्बर 25