लेख
26-Dec-2025
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जल ही जीवन का आधार है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण दुनियां की तमाम सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ। भारतीय संस्कृति में तो जल को देवतुल्य माना गया है। बावजूद इसके विडंबना देखिए कि आज वही पानी बाज़ार की वस्तु बन चुका है। भारत में पिछले तीन दशकों के भीतर पानी का जिस तरह से बाजारीकरण हुआ है, उसने सामाजिक असमानता को और गहरा कर दिया है। हालिया अनुमानों के अनुसार देश में बोतलबंद पानी, निजी टैंकर सप्लाई, आरओ संयंत्र, जल शुद्धिकरण और वितरण से जुड़ा कारोबार लगभग 7 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच चुका है। सवाल यह नहीं है कि जल से जुड़ी अर्थव्यवस्था बढ़ रही है, बल्कि असली सवाल यही है कि इसकी कीमत आखिर कौन चुका रहा है? तेज़ी से गिरता भूजल स्तर, सूखती नदियाँ, अनियमित मानसून, बढ़ता प्रदूषण और अव्यवस्थित शहरीकरण ने प्राकृतिक जल स्रोतों को या तो समाप्त कर दिया है या उन्हें पीने योग्य नहीं छोड़ा। इस संकट का लाभ निजी कंपनियों ने अवसर के रूप में उठाया है। शुद्ध पेयजल के नाम पर बोतलबंद पानी, निजी आरओ प्लांट, टैंकरों से जलापूर्ति और निजी वितरण नेटवर्क तेज़ी से फैलते चले गए हैं। परिणामस्वरूप पानी, जो कभी सार्वजनिक संसाधन था, अब मुनाफ़े की वस्तु बन गया है। आज स्थिति यह है कि आम नागरिक को हर महीने पानी के लिए सैकड़ों रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं। शहरों में नगर निगम और नगर पालिकाएँ पहले से ही जलकर वसूल रही हैं, वहीं अब नल-जल योजना के तहत गाँव-गाँव में भी पानी उपलब्ध कराने के नाम पर शुल्क वसूला जाने लगा है। ग्राम पंचायतों और नगरीय निकायों द्वारा वसूले जाने वाले कर का बड़ा हिस्सा जलापूर्ति और शुद्धिकरण में खर्च होने का दावा किया जाता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि गरीब तबके को न तो पर्याप्त मात्रा में पेयजल मिल पा रहा है और न ही जल की गुणवत्ता संतोषजनक है। हकीकत यही है, कि शहरों और कस्बों की झुग्गी-बस्तियों में रहने वाली बड़ी आबादी आज भी टैंकर के पानी पर निर्भर है। यह पानी न सिर्फ महँगा होता है, बल्कि उसकी गुणवत्ता भी संदिग्ध रहती है। एक ओर संपन्न वर्ग बोतलबंद या आरओ का शुद्ध जल खरीद सकता है, वहीं दूसरी ओर गरीब वर्ग टैंकरों से आने वाला महँगा और असुरक्षित पानी पीने को मजबूर है। इस प्रकार पानी सबसे महँगा सौदा गरीबों के लिए बनता जा रहा है। यहां सबसे गंभीर प्रश्न सरकार की भूमिका को लेकर है। धीरे-धीरे ऐसा प्रतीत होने लगा है कि सरकार अपनी बुनियादी जिम्मेदारियों से पीछे हटती जा रही है। पानी और हवा जैसी मूलभूत आवश्यकताएँ भी अब बाज़ार के भरोसे छोड़ दी गई हैं। जबकि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत नागरिकों को जीवन का मौलिक अधिकार प्राप्त है और स्वच्छ पानी व स्वच्छ हवा जीवन के अभिन्न अंग हैं। ऐसे में पानी का अति-निजीकरण नागरिकों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन जैसा प्रतीत होता है। निस्संदेह, जल प्रबंधन में बेहतर बुनियादी ढाँचे, तकनीक और कुशल संचालन के लिए निजी भागीदारी की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन जब यह भागीदारी जनहित के बजाय मुनाफ़ाखोरी में बदल जाए, तब वह सामाजिक संकट को जन्म देती है। सरकार की नीतियाँ यदि केवल उद्योगपतियों और निजी कंपनियों के हितों को प्राथमिकता देंगी, तो आम नागरिक, विशेषकर गरीब और मध्यम वर्ग, सबसे अधिक प्रभावित होंगे। आज स्थिति यह है, कि देश में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देना पड़ रहा है, क्योंकि उनकी आय इतनी नहीं है कि वे दो वक्त का भोजन जुटा सकें। ऐसे में उनसे पानी के लिए शुल्क वसूलना उनके जीवन पर अतिरिक्त बोझ डालता है। पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छ पर्यावरण को नागरिकों के मौलिक अधिकार के रूप में सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है। न्यूनतम पानी सभी को और गरीबों को मुफ्त उपलब्ध कराना एक अनिवार्य सामाजिक दायित्व होना चाहिए। भारत की परंपरा में प्यासे को पानी पिलाना और भूखे को भोजन कराना पुण्य माना गया है, जबकि औषधि व शिक्षा को सुलभ बनाना मानवीय मूल्यों का हिस्सा रहा है। किंतु पिछले दो दशकों में जिस तरह से हर चीज़ बाज़ार के दायरे में समा गई है, उसने इंसानियत को भी मुनाफ़े के तराजू पर तौलना शुरू कर दिया है। यदि सरकार ने समय रहते जल, पर्यावरण, शिक्षा और स्वास्थ्य को सर्वोच्च प्राथमिकता न दी, तो पूंजीवादी व्यवस्था न केवल नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कमजोर करेगी, बल्कि भारतीय समाज की संवेदनशील आत्मा को भी क्षति पहुँचाएगी। इसलिए ज़रूरत इस बात की है, सरकार जवाबदेही और संवेदनशीलता के साथ अपनी भूमिका निभाए, जल बजट बढ़ाए और यह सुनिश्चित करे कि पानी व्यापार की वस्तु नहीं, बल्कि हर नागरिक का अधिकार बना रहे। तभी यह मानवीय संकट बनने से रोका जा सकेगा। ईएमएस/26/12/2025