लेख
08-Feb-2023
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(९ फरवरी) भगवान श्री सुमतिनाथ जी के निर्माण के सुदीर्घ काल के पश्चात छठे तीर्थन्कर श्री पदमप्रभ जी का जन्म हुआ। कौशाम्बी नरेश महाराज धर की पट्टमहिषी सुसीमा देवी की रत्नकुक्षी से कार्तिक क्रष्णा त्रयोदशी के शुभ दिन प्रभु ने जन्म लिया। पदम लक्षण से युक्त होने से अथवा पदम शैया पर सोने का माता को दोहद होने से प्रभु का नाम पदमप्रभ रखा गया। युवावस्था मे पदमप्रभ विवाहित और राज्यारुढ हुए। निष्काम भाव से उन्होने प्रजा का पालन किया। काल के परिपक्व हो्ने पर अपने पुत्र को राजपद प्रदान करके उन्होने कार्तिक क्रष्णा त्रयोदशी के पावन दिन दीक्षा अन्गीकार की। मात्र छह मास की तपश्चर्या से घाती कर्मो का क्षय कर उन्होने केवलज्ञान – केवलदर्शन प्राप्त किया। प्रथम पीयूष वर्षिणी मे ही चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करके प्रभु ने सन्सार के लिए कल्याण का द्वार उदघाटित किया। जीवन के अन्त मे मार्गशीर्ष क्रष्णा एकादशी के दिन प्रभु ने निर्वाण पद प्राप्त किया। भगवान के धर्म परिवार मे सुव्रत आदि एक सौ सात गणधर ,तीन लाख तीस हजार श्रमण ,चार लाख बीस हजार श्रमणिया ,दो लाख छिहत्तर हजार श्रावक एवम पान्च लाख पान्च हजार श्राविकाए थी। भगवान के चिन्ह का महत्व रक्त कमल – यह भगवान पह्मप्रभु का चिन्ह है। काव्य शास्त्रों में कमल पवित्र प्रेम का प्रतीक माना जाता है। जो मन प्रभु के चरणों से प्रेम करता है , वह कमल की तरह पवित्र बन जाता है। पह्म नाम भी कमल का ही पर्यायवाची है। भगवान पदमप्रभु के शरीर की शोभा रक्त कमल के समान थी। हमें संसार में निर्लिप्त जीवन जीना चाहिए। गीता में भी ‘पह्मपत्र मिवाम्भसि ‘ – जल में कमल की तरह रहने की शिक्षा दी गई है। फागुन-वदी-चतुर्थी को, मोक्ष गये भगवान्। इन्द्र आय पूजा करी, मैं पूजौं धर ध्यानII मोहे राखो हो शरना। श्री पद्मप्रभ जिनराज जी! मोहे राखो हो शरना। ईएमएस / 08 फरवरी 23