राज्य
25-Apr-2023
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झाबुआ (ईएमएस के लिए डॉ. उमेशचन्द्र शर्मा) विश्व हिन्दू परिषद विधि प्रकोष्ठ के दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में सर्वसम्मति से पारित किए गए संकल्प में इस बात पर चिंता जताई गई है कि भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिक व्यक्तियों, ट्रांसजेंडर, समलैंगिकों, आदि के विवाह के अधिकार की मान्यता के मुद्दे को तय करने के लिए तत्परता दिखाई गई है, जबकि देश अभी भी सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों का सामना कर रहा है, ऐसे में समान लिंग विवाह से संबंधित मामले को तय करने और निर्धारित करने की कोई गंभीर आवश्यकता नहीं है। विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) विधि प्रकोष्ठ के 22-23 अप्रैल 2023 को अयोध्या में आयोजित दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में सर्वसम्मति से पारित किए गए संकल्प के बारे में जानकारी देते हुए विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता विनोद बंसल ने ईएमएस संवाददाता डॉ. उमेशचन्द्र शर्मा को बताया कि विहिप के विधि प्रकोष्ठ द्वारा माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जा रही उस जल्दबाजी पर चिंता जताई गई है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिकों के विवाह के अधिकार की मान्यता के मुद्दे को तय करने के लिए तत्परता दिखाई जा रही है। बंसल ने बताया कि पारित संकल्प में जानकारी देते हुए आगे बताया कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उक्त मामले में दिखाई जा रही सक्रियता संसद को समलैंगिक विवाहों के पक्ष में कानून बनाने का निर्देश देने के इरादे से संसद की संप्रभु शक्तियों का अतिक्रमण करने का एक प्रयास है। पारित संकल्प में दर्शाया गया है कि संविधान में दी गई शक्तियों का स्पष्ट पृथक्करण है, जिसके अनुसार विधायी कार्य संसद और राज्य के विधायकों को सौंपा गया है, न कि सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों को। विहिप के राष्ट्रीय प्रवक्ता के अनुसार पारित किए गए संकल्प में इस बात पर चिंता व्यक्त की गई है कि आज जबकि गरीबी उन्मूलन, सभी नागरिकों को बुनियादी और मुफ्त शिक्षा का कार्यान्वयन, प्रदूषण मुक्त पर्यावरण का अधिकार, जनसंख्या नियंत्रण की समस्या पूरे देश को प्रभावित कर रही है, किंतु माननीय सर्वोच्च न्यायालय की ओर से उक्त विषयों पर न तो कोई तत्परता दिखाई गई है और न ही न्यायिक सक्रियता ही दिखाई गई है। विनोद बंसल के अनुसार पारित संकल्प में इस बात की भी अभिव्यक्ति की गई है कि संविधान में दी गई शक्तियों का स्पष्ट पृथक्करण है, जिसके अनुसार विधायी कार्य संसद और राज्य के विधायकों को सौंपा गया है, न कि सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों को, बल्कि वर्तमान का यह मामला स्पष्ट रूप से संसद को समलैंगिक विवाहों के पक्ष में कानून बनाने का निर्देश देने के इरादे से संसद की संप्रभु शक्तियों का अतिक्रमण करने का एक प्रयास है। भारत विभिन्न धर्मों, जातियों, उप-जातियों का देश है, जिन्होंने सदियों से एक साथ जैविक पुरुष और महिला के बीच केवल विवाह को मान्यता दी है। विवाह संस्था न केवल दो विषमलैंगिकों का मिलन है बल्कि इसके द्वारा मानव जाति की उन्नति भी परिलक्षित होती है। विभिन्न लिपियों, लेखन और अधिनियमों में परिभाषित विवाह शब्द, सभी धर्मों में, केवल विपरीत लिंग के दो व्यक्तियों के विवाह को संदर्भित करता है। विवाह को दो विषमलैंगिकों के पवित्र मिलन के रूप में मानते हुए भारत में सामाजिक विकास हुआ है, न कि पश्चिमी देशों में लोकप्रिय विश्वास के अनुसार पार्टियों के बीच एक अनुबंध या समझौता। भारत में विवाह केवल दो व्यक्तियों का मिलन नहीं है, बल्कि यह दो परिवारों का भी मिलन है और परिवारों की प्रतिष्ठा का परीक्षण उनके संबंधित परिवारों में विवाह के आधार पर किया जाता है। भारत में शादियां आदि काल से त्योहारों की तरह मनाई जाती रही हैं, जो कि उन मामलों में संभव नहीं होगा जहां समलैंगिक विवाह की अनुमति दी जाती है। विहिप के राष्ट्रीय प्रवक्ता द्वारा बताया गया कि पारित संकल्प में इस बात पर भी चिंता व्यक्त की गई है कि हाल ही में ईसाई या इस्लाम धर्म अपनाने वाले दलितों के लिए आरक्षण से संबंधित एक अन्य मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संसद को एक विशेष रिपोर्ट की सिफारिशों को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जिसे संसद ने सोलह साल पहले उसी सरकार द्वारा खारिज कर दिया था जिसने उस विशेष आयोग को नियुक्त किया था। बंसल के अनुसार यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि, समुदाय विशेष, विवाह अधिनियम, 1954 के भीतर एक अधिकार बनाने की मांग कर रहा है, जबकि उक्त अधिनियम केवल जैविक पुरुष और महिला पर लागू होता है और इसलिए, अधिनियम के किसी प्रावधान को पढ़ने/हटाने का कोई भी प्रयास और अधिनियम के तहत किसी विशेष प्रावधान को नए सिरे से परिभाषित करना स्पष्ट रूप से अधिनियम को फिर से लिखने और संसद से कानून बनाने की शक्ति लेने के बराबर होगा। विवाह एक सामाजिक-कानूनी संस्था है जिसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत अपनी शक्ति के प्रयोग में केवल सक्षम विधानमंडल द्वारा ही बनाया जाकर कानूनी मान्यता प्रदान की जा सकती है और विनियमित किया जा सकता है। विवाह जैसे मानवीय संबंधों की मान्यता अनिवार्य रूप से एक विधायी कार्य है, और अदालतें न्यायिक व्याख्या के माध्यम से विवाह नामक किसी भी संस्था को न तो बना सकती हैं और न ही मान्यता दे सकती हैं। बंसल के अनुसार पारित संकल्प के अंत मे यह भी कहा गया है कि भारत में विवाह का एक सभ्यतागत महत्व है, और समय की कसौटी पर खरी उतरी संस्था को कमजोर करने के किसी भी प्रयास का समाज द्वारा मुखर विरोध किया जाना चाहिए। सदियों से भारतीय सभ्यता पर लगातार हमले होते रहे हैं लेकिन तमाम बाधाओं के बावजूद वह बची रही। अब स्वतंत्र भारत में इसे अपनी सांस्कृतिक जड़ों पर पश्चिमी विचारों, दर्शनों और प्रथाओं के आरोपण का सामना करना पड़ रहा है जो इस राष्ट्र के लिए व्यवहार्य नहीं हैं।