लेख
08-Dec-2023
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नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल भोपाल ने एक कड़ी टिप्पणी प्रशासन के ऊपर की है। एनजीटी के आदेश के बाद भी भोपाल के बड़े तालाब में स्थित भदभदा में हुए 227 अतिक्रमण जिला प्रशासन नहीं हटा पाया। इस पर न्यायमूर्ति ने गंभीर टिप्पणी करते हुए नाराजी जताई। उन्होंने कहा जिला प्रशासन की इस असक्षमता के लिए क्या कहा जाए। अतिक्रमण धारी बेखोफ होकर सरकारी जमीनों पर कब्जा कर रहे हैं। अतिक्रमण धारियों के सामने कलेक्टर यदि अपने आप को अक्षम असहाय महसूस करता है? कलेक्टर को उस दिन का इंतजार भी कर लेना चाहिए। जब उनके ही कार्यालय पर बेघरों की भीड़ दफ्तर और सरकारी आवासों पर कब्जा कर लेगी। आप कुछ भी नहीं कर पाएंगे।एनजीटी के न्यायमूर्ति ने कहा कि कलेक्टर सरकारी जमीन और संपत्ति का संरक्षक होता है। यदि वही संरक्षण के स्थान पर अतिक्रमण की लूट पर असहाय हो जाए।तो इस स्थिति के लिए क्या कहा जा सकता है। एनजीटी ने अपने आदेश में कहा भोपाल अति विकसित शहर और प्रदेश की राजधानी है। 62 नालों का पानी बिना ट्रीटमेंट किया जल स्रोतों में मिल रहा है। लाखों लोगों को दूशित पेयजल की आपूर्ति हो रही है। एनजीटी के बार-बार आदेश करने के बाद भी 18 नाले सीधे तालाब में जाकर मिल रहे हैं। भोपाल में रोजाना 390 एमएलडी सीवेज निकल रहा है। जबकि सीवेज के ट्रीटमेंट की व्यवस्था केवल 130 एमएलडी की है। एनजीटी ने एक बार फिर से कलेक्टर और नगर निगम के कमिश्नर को अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई करने, और जल स्रोतों में सीवेज मिलने से रोकने के लिए तीन माह का समय दिया है। ऐसा नहीं होने पर कोर्ट जुर्माना लगाने की चेतावनी भी दी है। एनजीटी ने आश्चर्य व्यक्त किया कि कलेक्टर को अतिक्रमण हटाने के लिए संसाधन नहीं मिले। बड़ा सरकारी फोर्स राजधानी में उपलब्ध रहता है। उसके बाद भी बिना अतिक्रमण हटाए कैसे फोर्स लौट जाती है। कलेक्टर इतने अक्षम होंगे, कि उनके पुलिस फोर्स मांगने पर उन्हें पुलिस बल उपलब्ध नहीं कराया जाता। नगर निगम कमिश्नर जिनकी अतिक्रमण हटाने की जिम्मेदारी है। उन्हें भी 4 माह का समय एनजीटी द्वारा दिए जाने के बाद भी अतिक्रमण नहीं हटा पाए। एनजीटी के न्यायमूर्ति ने कहा जब कानून नहीं बने थे, तब प्रशासन, जिसकी लाठी उसकी भैंस के इशारे पर चलता था। सत्ता बंदूक की नोक से निकलती है। भीड़ तंत्र जैसे सिद्धांतों पर आधारित होकर सत्ता चल रही है। भारत में अब लोकतांत्रिक व्यवस्था है। नियम कायदे कानून बने हुए है। कानून का शासन आम जनता से नहीं छीना जा सकता है। यह पहली बार नहीं है, इसके पहले भी कई बार एनजीटी इसी तरीके की टिप्पणियां कर चुकी है। शासन और प्रशासन अतिक्रमण धारियों के सामने बौना साबित हो रहा है। या यूं भी कह सकते हैं कि अतिक्रमण धारी शासन के बड़े-बड़े पदों का संरक्षण पाकर ही अतिक्रमण करते हैं।अतिक्रमण हटाने के नाम पर केवल खाना पूर्ति की जाती है। सरकार चाहे तो 1 दिन के अंदर सारे अतिक्रमण अलग हो सकते हैं। जिन्हें अतिक्रमण हटाना है, अतिक्रमण हटाना ही नहीं चाहते। भीड़ तन्त्र के अपने आप को बोना बताने लगते हैं। एनजीटी के आदेशों का पालन इसलिए भी नहीं हो रहा है। जब हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन, शासन और प्रशासन नहीं कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेशों का पालन किस तरह होगा। इस पर किसी को सहज ही विश्वास नहीं होता है। हाल ही में एनजीटी ने एक आदेश दिया था, जिसमें मुख्य सचिव को न्यायालय में उपस्थित होने के निर्देश दिए थे। मुख्य सचिव तो बने रहे, मुख्य सचिव की नाराजी से एनजीटी के न्यायमूर्ति का ही ट्रांसफर कर दिया गया। इसके बाद भी एनजीटी का यह कहना की जिला प्रशासन 3 महीने के अंदर अतिक्रमण हटाकर उन्हें सूचना दे। पीने के पानी में सीवेज का पानी नहीं मिले। इसके स्पष्ट आदेश होने के बाद भी कहने सुनने का यह खेल पिछले कई सालों से चल रहा है। ऐसा लगता है एनजीटी के दांत खाने वाले ना होकर केवल दिखाने वाले दांत रह गए हैं।आगे भी इसी तरह से चलता रहेगा। न्यायपालिका, शासन और प्रशासन ऐसे ही दिखावा करते रहेंगे। आम जनता का काम ही नियम कायदे कानून में की आड़ में पिसना है। वर्तमान में जनता भी पूरी तरह से भेड की तरह हो गई है। जो अपने अधिकारों के लिए भी लड़ना भूल गई है। जैसे गडरिया भेड़ों को हांकता है। भेड उसी दिशा में चल पड़ती हैं। आम जनता की भी यही स्थिति बन गई है। शासन और प्रशासन जिस हाल में रखेगा उसे हाल में रहने के लिए हमें तैयार रहना होगा। ईएमएस / 08 दिसम्बर 23