‘गठबंधन’ का मतलब ‘समझौता’ या ‘समर्पण’.... और यह नरेन्द्र भाई मोदी के रक्त में है ही नही, इसलिए मौजूदा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में ये ही कयास लगाए जा रहे है कि यदि मोदी जी को मजबूरी में ‘गठबंधन’ सरकार बनानी भी पड़ी तो वह ‘दीर्घजीवी’ नही होगी और फिर देश में मध्यावधि चुनाव सुनिश्चित है। यदि हम भारत की आजादी के बाद से लेकर अब तक की सरकारों के इतिहास पर नजर डालें तो हमें पता चलता है कि भारत में सर्वप्रथम आपातकाल के बाद 1977 में गठबंधन सरकार बनी थी, जो केवल ढाई साल चल पाई थी और 1980 में सरकार पर पुनः इंदिरा जी का कब्जा हो गया था, उसके बाद ही हमारे देश में गठबंधन सरकार का सिलसिला चालू हुआ, जो अवसरवादी राजनीति का मुख्य आधार रहा है, कांग्रेस ने तो स्वयं बहुमत में रहते हुए भी अन्य दलों के साथ सरकारें चलाई है, भाजपा की भी इसमें खास विशेषज्ञता रही है। अब मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में जबकि किसी भी एक राजनीतिक दल को चुनावों में स्पष्ट बहुमत प्राप्त नही हो पाया है, तब पुनः नरेन्द्र भाई मोदी को मजबूरी में गठबंधन सरकार बनानी पड़ रही है और करीब डेढ़ दर्जन दलों को साधकर अपने साथ रखना पड़ रहा है, यद्यपि प्रतिपक्षी इंडिया गठबंधन के साथ भी बीस के करीब राजनीतिक दल है, किंतु उन्होंने सरकार बनाने का दावा पेश नही करने का निर्णय लिया है, अर्थात् अब मोदी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनने की पूरी संभावना है। अब देश में मोदी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनाने की चर्चा तो चल रही है, किंतु प्रत्येक राजनेता को यह आशंका अवश्य है कि यह गठबंधन सरकार आखिर चल कितने दिन पाएगी? क्योंकि गठबंधन का सीधा अर्थ ‘समझौता’ है और मोदी जी को करीब से जानने वाला हर शख्स यह जानता है कि वे न तो अपनी सरकार में किसी भी तरह का भ्रष्टाचार सहन करेगें और न किसी की बेजा महत्वाकांक्षों की पूर्ति में किसी तरह का सहयोग ही प्रदान करेगें और यह भी तय है कि गठबंधन का हर दल व उसका हर नेता अपनी राजनैतिक या निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के प्रयास अवश्य करेगा, जो मोदी जी के लिए असहय होगें, इसलिए यह तय माना जा रहा है कि गठबंधन सरकार मोदी जी के रहते कभी भी ‘दीर्घजीवी’ नही रह पाएगी और उसके बाद देश के सामने ‘मध्यावधि’ के अलावा कोई विकल्प नही रहेगा और देश के सामने ऐसी राजनीतिक परिस्थिति कभी भी निर्मित हो सकती है। ....अर्थात् इस वास्तविकता को झुठलाया नही जा सकता कि देश के सामने एकमात्र ‘गठबंधन सरकार’ ही विकल्प है और यह विकल्प भी स्थाई नही है, देश को कभी भी फिर एक बार ‘मध्यावधि’ चुनाव का सामना करना पड़ सकता है? यद्यपि इस राजनीतिक परिस्थिति के लिए मतदाता सहित किसी को भी सीधे-सीधे दोषी नही ठहराया जा सकता, लेकिन कहा जरूर जा रहा है कि देश के मतदाताओं को खुलकर अपनी स्पष्ट राय जाहिर करनी चाहिए जिससे कि ऐसी राजनीतिक असमंजस की स्थिति पैदा न हो। लेकिन अब जो भी हो, जो स्थिति सामने है, उसका मुकाबला तो करना ही पड़ेगा और मोदी जी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार को ही कुबूल करना पड़ेगा। इस तरह कुल मिलाकर इन चुनावों के बावजूद देश के आकाश में राजनीतिक धुंध छाई हुई है और इसी कारण देशवासी नए सत्ता सूर्य की चमक के दर्शन नहीं कर पा रहे है और इस स्थिति के लिए किसी को भी दोषी नही ठहराया जा सकता, किंतु इसका इलाज सिर्फ और सिर्फ ‘मध्यावधि’ ही है, फिर वे चाहे कभी भी हो? ईएमएस / 07 जून 24