प्रकृति से छेड़छाड़ मानव-समाज के लिए सदा ही भारी पड़ी है। इसलिए विश्व को सुखी देखने की मंशा रखने वाले हमेशा से ही यह संदेश देश और दुनिया को देते आ रहे हैं कि प्रकृति का दोहन करें, लेकिन इतना नहीं कि प्रकृति खुद संतुलन बनाने के लिए बाध्य हो जाए। ऐसे में केरल के वायनाड में हुए भीषण भूस्खलन का असली जिम्मेदार कौन हो सकता है? इसे महज प्राकृतिक आपदा मानना एक और बड़ी भूल होगी? दरअसल देखना होगा कि इस प्राकृतिक आपदा होने से पहले आपदाग्रस्त इलाके में वर्षों से होता क्या आ रहा था। इस सवाल का भी जवाब तलाशा जाना चाहिए कि जहां भूस्खलन हुआ और करीब 250 से ज्यादा लोगों की असमय दर्दनाक मौत हुई क्या वहां वाकई बस्तियां बसाई जा सकतीं थीं? भू-विज्ञानियों की मानें तो यह क्षेत्र लैंडस्लाइड जोन का हिस्सा रहा है और इसमें भविष्य में और खतरे उत्पन्न होने की आशंकाएं आम थीं। बाबजूद इसके चंद चांदी के टुकड़े बटोरने और लोगों को भ्रम में रखने वालों ने मिलकर बस्तियां बसाने का जो दुस्साहस दिखाया उसका भयानक परिणाम देश और दुनियां ने देख लिया है। जरा मस्तिष्क में जोर डालें और खुद से सवाल करें कि केरल में हुए भीषण भूस्खलन के लिए असली जिम्मेदार कौन हो सकता है? क्या वाकई इसे प्राकृतिक आपदा मान और सरकारी आंकड़ों के लिहाज से मौत और मुआवजा का आंकलन कर चंद लोगों की जिम्मेदारी तय कर देने से समस्या का हमेशा के लिए समाधान निकल आएगा? आप स्वयं से विचार करें और बताएं कि क्या इस भयानक प्राकृतिक आपदा को निमंत्रण देकर ढाई सौ से अधिक लोगों को कालकलवित करवाने में आज के अतिभौतिक सुख भोगने की आकांक्षा रखने वाले मानव का हाथ नहीं है? यह एकमात्र सवाल उन तमाम सवालों पर भारी पड़ जाता है, जो शासन-प्रशासन को लेकर उठाए जाते हैं और चंद दिनों में, चंद लोगों को जिम्मेदार ठहराकर लाल रंग के बस्ते में बंद कर दिए जाते हैं। इसका अलग से आंकलन और विश्लेषण इसलिए जरुरी है, क्योंकि वायनाड में जिन जगहों पर भूस्खलन हुआ है वहां मानव जनित बस्तियों का होना अपने आप में गंभीर सवाल है। यह पूरा इलाका लैंडस्लाइड जोन वाला बताया गया है, बावजूद इसके वायनाड में पिछले दो दशक से पर्यटन को बढ़ावा देने कथित खूबसूरती को और खूबसूरत बनाने और उससे पैसा बनाने के लिए जिस तरह से पहाड़ों की कटाई-छटाई करते हुए अंधाधुंध निर्माण कार्य किए गए, उसने प्रकृति को संतुलन बनाने के लिए मजबूर कर दिया। यह तय है कि जब प्रकृति संतुलन बनाती है तो बहुत बेदर्दी के साथ चक्की के दो पाटों के बीच मनुष्य और तमाम जीव-जंतु घुन की तरह पिसते चले जाते हैं। वायनाड भूस्खलन इसका बहुत ही छोटा नमूना है, जिससे न सिर्फ सबक लेने की जरुरत है बल्कि ऐसा आगे न हो अत: भौतिक सुखों से इतर प्रकृतिस्थ हो जाने का रास्ता खोजने का भी समय है। जहां प्रकृति के विपरीत मानवजनित निर्माण कार्य किए गए और इकॉसिस्टम को बिगाड़ने जैसा काम किया गया, वहां प्राकृतिक आपदा आई है। वायनाड की भीषण त्रासदी के बाद जब मामला स्थानीय पुलिस और फायर फोर्स से सम्भाला नहीं जा सका तो सेना, वायुसेना, नौसेना, एनडीआरएफ जैसी तमाम एजेंसियों की टीमों को राहत व बचाव कार्य में लगा दिया गया। सकारात्मकता के साथ दुर्गम इलाके में मानव निर्मित पुल तैयार कर करीब 1000 लोगों को बचा भी लिया गया। गौरतलब है कि वायनाड के चूरलपारा में मंगलवार 30 जुलाई को भीषण भूस्खलन हुआ था। चूंकि भूस्खलन मध्यरात्रि करीब 2 बजे हुआ और घटना स्थल पूरी तरह से कट गया, इससे इसकी भीषणता बढ़ गई। इस दुर्घटना में सबसे ज्यादा प्रभावित चूरलमाला, वेल्लारीमाला, मुंडकाईल और पोथुकालू क्षेत्रों को शामिल किया गया हैं। इन इलाकों में रहने वाले कुछ ऐसे लोग जो इस प्राकृतिक आपदा से किसी तरह बच निकलने में सफल रहे, वो भी तबाही की भयावहता से बुरी तरह टूट गए हैं। ऐसा नहीं है कि इन्हें मदद नहीं पहुंचाई जा रही है या दिलासा देने वालों की कमी है, लेकिन जिन्होंने अपना सब-कुछ खो दिया उसे खुद को समझाना बहुत मुश्किल होता है। ऐसे लोगों को समय रहते ज्यादा से ज्यादा मदद और मानवीय सहायता दी जानी चाहिए। ताकि प्राकृतिक आपदा के दर्द को कुछ कम किया जा सके। वैसे यह भी हकीकत के तौर पर कहा जा रहा है कि यदि शासन-प्रशासन ने केरल राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (केएसडीएमए) की 2020 में दाखिल की गईं सिफारिशों को मान लिया होता तो शायद इस आपदा से काफी कुछ लोगों को बचाया जा सकता था। सवाल वही कि इससे पहले ही क्यों नहीं जागा गया और मौत के मुंह में हजारों लोगों को बसाने का काम तभी बंद क्यों नहीं कर दिया गया? संभवत: तब इतने अधिक लोगों की निरीह जानें नहीं गई होतीं। बताया जाता है कि राज्य के राजस्व विभाग को पश्चिमी घाट के पूर्वी ढलान वाले करीब चार हजार परिवारों को फौरीतौर पर जगह खाली करने के निर्देश देने के लिए चेतावनी भरी समझाइश भी दी गई थी। चूंकि पूरा क्षेत्र ही लैंडस्लाइड जोन में आता है, अत: यह सावधानी तो अवश्य ही ली जानी चाहिए थी, लेकिन सब कहे-सुने को नजरअंदाज करने का परिणाम देश और दुनियां के सामने है। इसे यूं ही प्राकृतिक आपदा कहकर हल्के में नहीं लिया जा सकता, बल्कि जिम्मेदारी तय कर तमाम दोषियों को कानून के दायरे में लाना भी आगामी हादसों को रोकने में एक आवश्यक कदम साबित हो सकता है। ईएमएस / 01 अगस्त 24