(जन्मदिन 9 अगस्त पर विशेष ) बिहार की भूमि पर पत्रकारिता का आगाज शिवपूजन सहाय ने भागलपुर सुल्तानगंज से प्रकाशितगंगा का संपादन कर किया। सन् 1930 में बनैली राज्याधीश कुमार कृष्णानन्द सिंह ने सुलतानगंज से गंगा नामक उच्च कोटि की मासिक पत्रिका प्रकाशित की।इसके मुख्य संपादक आचार्य शिवपूजन सहाय थे। बाद में साहित्याचार्य ‘मग’ भी इसके संपादक-मण्डल में आ गये थे। कुछ समय के लिए पंडित राहुल सांकृत्यायन ने भी इसके संपादन भी योगदान दिया था।बिहार में हिंदी का प्रथम उच्चकोटि का साहित्यिक पत्र ‘गंगा’ था, जिसको शिवपूजन सहाय ने अपनी कलम के स्पर्श से ऐसा चमकाया कि वह हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में अजर-अमर हो गया। हिंदी में इस प्रकार का पत्र पहले कभी नहीं निकला। इस प्रकार ‘गंगा’ को भी उच्चकोटि का साहित्यिक पत्र बनाने में शिवजी ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। हिन्दी की अन्य मासिक पत्रिकाओं के संचालक प्रायः प्रसिद्ध प्रकाशक थे; इसलिए उनके प्रकाशन से उनकी पत्रिकाओं को प्रखंड आदि यों ही, या कहीं कहीं सुलभ मूल्य में मिल जाते थे। गंगा के लिए तो यह सुविधा भी नहीं थी। (गंगा, मासिक, प्रवाह 3, तरंग 15, मई सन 1933 ईस्वी, पृष्ठ 718; हिंदी साहित्य और बिहार, तृतीय खण्ड, पृष्ठ 134) समय-समय पर इसके ‘वेदांक’, ‘गंगांक’, ‘विज्ञानांक’, ‘पुरातत्वांक’, ‘चरितांक’ आदि कई विशेषांक निकले। गंगा के विशेषांकों पर संचालक को काफी व्यय करना पड़ता था, क्योंकि हिन्दी में बिल्कुल नये विषयों पर निकाले जाते थे। अकेले ‘पुरातत्वांक’ निकालने में लगभग चार हजार रुपये खर्च हुए थे। फिर भी गंगा के प्रधान संरक्षक और अध्यक्ष महोदयों का उत्साह कम नहीं हुआ; क्योंकि उनका लक्ष्य गंगा के द्वारा अर्थोपार्जन नहीं; केवल हिन्दी की सेवा थी। बनैली राज के अधीश्वर कृत्यानन्द सिंह ने अंगरेजी में ‘पूर्णिया-ए शिकार लैंड’ नामक एक पुस्तक की रचना की थी, जिसका हिन्दी अनुवाद श्रीलक्ष्मीनारायण सुधांशु ने गंगा में प्रकाशित कराया था।गंगा एक अल्पजीवी पत्रिका थी। महाकवि जयशंकर प्रसाद के कई बार अनुरोध करने पर शिवपूजन सहाय अक्टूबर 1930 में ‘गंगा’ के संपादक होकर सुल्तानगंज, जिला-भागलपुर आए। ‘गंगा’ में नियमित रूप से प्रकाशित करने के लिए चारूचयन, वैज्ञानिक चमत्कार, विनोद-बिन्दु, सामयिक साहित्य, संपादकीय विवेचन आदि शीर्षक चुने गए। इनमें विभिन्न नामों से ‘विनोद बिंदु’ और ‘सामयिक साहित्य’ शिवपूजन सहाय ही लिखते थे। इसके प्रत्येक अंक में कार्टून भी दिए जाते थे, जिसका मसाला वे ही चित्रकार को बताते थे। नवंबर 1930 ई. में ‘गंगांक’ का प्रथम अंक निकला और 6 महीनों के बाद ही 3 मई, 1931 को ‘गंगांक’ निकला। शिवजी की अनवरत चेष्टा, परिश्रम और लिखा-पढ़ी के कारण हिंदी और संस्कृत के दिग्गज विद्वज्जनों के लेखों से अलंकृत ‘गंगा’ प्रकाशित हुआ। साहित्यिक, वैज्ञानिक, धार्मिक, पौराणिक, सामाजिक, भौगोलिक आदि दृष्टियों से हिंदी संसार में इस ‘गंगांक’ का आशातीत स्वागत हुआ। ‘गंगा’ को बिहार की सर्वश्रेष्ठ मासिक पत्रिका बनाने में शिवजी ने कुछ उठा नहीं रखा। ‘गंगा, गौ और गायत्री’ पर शिवजी की अपार श्रद्धा थी। ‘गंगा’ नाम उन्हें बेहद पसंद था। हिंदी पत्रकारिता में ‘गंगा’ और ‘गंगांक’ (विशेषांक) का प्रकाशन एक नया अध्याय जोड़ता है। इससे पता चलता है कि हिंदी की पत्र संपादन-कला कितनी तेजी से प्रगति के सोपानों को पार करती जा रही थी। संपादन-कला के इस कमाल के लिए शिवजी सदा याद किए जायेंगे। वर्ष 1935 में उन्होंने लहेरिया सराय में आचार्य रामलोचन शर्मा के पुस्तक भंडार से प्रकाशित बालक के प्रकाशन की जिम्मेदारी ली। इस दौरान उनकी पुस्तक विभूति व माता का आंचल ने उन्हें साहित्यकारों की जमात की अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा किया। शिव पूजन सहाय द्वारा संचालित ‘हिमालय’ में उन्होंने राजनीति, मनोविज्ञान, समाज विज्ञान, साहित्यिक निबंध, भाषाविज्ञान, संस्मरण, नाटक, काव्य आदि विविध ज्ञान सरणियों एवं शाखाओं को स्थान देकर अपनी सर्वांणीण दृष्टि का प्रमाण दिया है। उनकी संपादन कला की प्रमुख विशेषताएँ हैं- राष्ट्रीय दृष्टि, भारतीय साहित्य में निष्ठा तथा शोध की सहज प्रवृत्ति। इसी समग्र दृष्टि ने उनके पत्रों में नवीन स्तंभों का संयोजन किया। ये स्तंभ पाठकों के लिए विशेष आकर्षण के विषय तो बने ही, उनकी आश्चर्यजनक शक्ति और ज्ञान संपदा के भी प्रत्यायक बने। उनके द्वारा संपादित मतवाला, गंगा, जागरण, हिमालय और साहित्य आदि पत्रिकाएँ इसके प्रमाण हैं। वे अपने पत्रों को एक योजना के अंतर्गत संचालित करते दिखाई देते ।वे लेखक की मौलिकता को महत्त्वपूर्ण मानते हुए उनकी निजी विशेषता को सर्वथा अक्षुण्ण बनाए रखने के हिमायती थे। संपादन क्रम में सर्वत्र लोकतांत्रिक व्यवस्था को कायम रखना उनका उद्देश्य होता था। उनकी पैनी दृष्टि और सचेष्ट लेखनी से कुछ भी ओझल नहीं हो पाता था, किंतु उसे अपना बनाकर भी स्वतः अपने नेपथ्य में रहकर अपनी सहज उदारता का परिचय उन्होंने इस प्रकार दिया, जिसके लिए द्विवेदीजी कठोर संपादक माने गए। आचार्य शिवपूजन सहाय ने संपादक के कर्तव्य को तत्वार्थ में धारण कर पत्र-पत्रिकाओं में शिवतत्त्व की स्थापना की। आवश्यकता पड़ने पर तीव्र प्रहार करने से भी वे पीछे नहीं हटे। समस्त समकालीन मासिक-साहित्यिक पत्रों का सर्वेक्षण प्रस्तुत करते रहे और उनके विवेचन पर किसी प्रकार का पक्षपात हावी नहीं हुआ। उनके विस्तृत अध्ययन ने उनकी संपादन कला को जागरूक, व्यापक और सजग बनाया। रूढ़ियों से पृथक् वे संपादन-कला को विकासशील प्रभविष्णुता सहित नवीन तथ्यों, शैलियों और नव्य विधाओं को सरल शैली में लिखने के पक्षपाती थे। उन्होंने प्रौढ़ों के साथ बच्चों के लिए भी काम किया। बच्चों में साहित्यिक अभिरूचि उत्पन्न करने के लिए ‘बालक’ का उन्होंने शुभारंभ किया। ‘बालक’ के जिन अंकों का उन्होंने संपादन किया है, उससे आज भी हमारी दृष्टि आगे नहीं गई है। बालक का भारतेन्दु अंक उसका जाग्रत प्रमाण है। सुंदर सरस भाषा में दुर्लभ सामग्री को उजागर करना इस अंक की विशेषता है। वे अपने युग के प्रतिनिधि पत्रकार थे। प्राचीन साहित्य के अनन्य गवेषक होते हुए भी युगानुरूप उसकी व्याख्या उन्होंने प्रस्तुत की। जो भी पत्र हाथ में आया उस युग का होकर भी भावी युग का पथ-प्रदर्शक बना। 1929 से 1963 तक लगभग 42 वर्षों का काल उनकी पत्रकारिता के क्षेत्र में की गई यात्रा का प्रमाण है। वे अलंकृत भाषा लिखने में उस्ताद थे। किंतु ठेठ हिंदी सरस हिंदी में बोलचाल की हिंदी को उन्होंने प्रतिष्ठित किया। उच्चकोटि के गंभीर साहित्यिक लेख को भी उन्होंने प्रश्रय दिया। ‘बालक’ के साथ साहित्य’ का संपादन करना और ‘हिमालय’ में आधुनिक विधाओं पर साधिकार कलम चलाना उन्हीं के वश की बात थी। हास्य-व्यंग्य के तो वे बादशाह ही थे। उच्चकोटि के निबंधों के साथ गंभीर साहित्यिक विषयों पर लेखनी उठाना और ‘मतवाला’ जैसे उच्चकोटि के व्यंग्य-हास्य प्रधान पत्र का संपादन करना उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का निदर्शन प्रस्तुत करता है। साहित्य सेवा के पर्याय पुरूष आचार्य शिवपूजन सहाय ने पत्रकारिता के माध्यम से साहित्य का विकास किया। पत्रिकाएँ मासिक हों या साप्ताहिक-पाक्षिक हों अथवा त्रैसामिक-शिवपूजन सहाय की संपादन कला के ऐश्वर्य से मंडित हैं। संपादक का व्यक्तित्व वहाँ स्थित है। शिवजी ने सर्वप्रथम आरा से प्रकाशित ‘मारवाड़ी सुधार’ नामक सचित्र हिंदी मासिक दो वर्षों तक निकाला। उनकी संपादकीय टिप्पणियाँ, देशोत्थान की भावना, नवलेखन का प्रोत्साहन सभी गुणों की झलक स्पष्टतः देती हैं। ‘मारवाड़ी सुधार’ महादेव प्रसाद सेठ के बालकृष्ण प्रेस, कलकत्ता में छपता था। वहाँ इनका परिचय सेठजी तथा मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव और पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से हुआ। वे उन लोगों के अनुरोध पर प्रेस में रहने लगे। बंगला के ‘अवतार’ नामक हास्य-व्यंग्य के पत्र की तरह ‘मतवाला’ नामक हास्य-व्यंग्य प्रधान साप्ताहिक पत्र निकालने की योजना बनी। शिवजी भी मतवाला-मंडल में सम्मिलित हुए। इसके प्रथम अंक में ‘आत्म परिचय’ शीर्षक अग्रलेख लिखकर शिवजी ने हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में अपना स्थान बना लिया। ‘मतवाला’ के माध्यम से उन्होंने हिंदी-जगत् को अपनी बहुमूल्य सेवाएँ अर्पित कर यह दिखला दिया कि उनकी संपादनकला की श्रेष्ठता किस कोटि की है। शिवजी ने कलकत्ता प्रवास के संस्मरण में लिखा है कि ‘मतवाला’ में छपने के लिए बहुत से लोग हास्य-विनोदमयी रचनाएँ प्रायः भेजा करते थे। उनमें से मार्के की रचनाएँ चुनकर मैं सुधार-सँवार देता था। ऐसी रचनाओं के लिए ‘रंगरूटों की फौज’ नामक स्तम्भ बनाया गया। राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और साहित्य जगत् की जो हवाई खबरें और अफवाहें होती थीं, उन्हें कलम बन्द करने के लिए ‘चंडूखाने की गप’ नामक स्तंभ कायम किया गया। इससे पाठकों का इतना अधिक मनोरंजन होता था कि देश के अनेक भागों से लोग अपने यहाँ की उड़ती खबरें और दिलचस्प अफवाहें लिख-लिखकर भेजा करते थे। ‘रंगरूटों की फौज’ में दो प्रति सप्ताह नए सैनिकों का दल जुटने लगा। अपनी भेजी हुई खबरों और चुटकियों पर ‘मतवाला’ की रंगसाजी देखकर लोग बड़े विनोदपूर्ण ढंग से बधाइयाँ भेजा करते थे। हिंदी संसार के पाठकों में ‘मतवाला’ ने एक नई उमंग की लहर पैदा कर दी थी। हास्य रस की ओर लोगों का झुकाव दिन-दिन होता जाता था। ‘मतवाला’ के बाद वे क्रमशः ‘गोलमाल’, ‘मौजी’ और ‘उपन्यास तरंगें’ के संपादक हुए और हरेक पर अपनी विशिष्टता की छाप छोड़ी। इसके बाद वे ‘माधुरी’ के संपादकीय विभाग में गए और ‘माधुरी’ के अंकों में उन्होंने जो संपादकीय टिप्पणियाँ लिखीं, ये हिंदी साहित्य के इतिहास में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। 1932 में ‘जागरण’ नामक पक्षिक पत्र का संपादन कर शिवजी ने हिंदी पत्रकारिता में एक ऐसे अध्याय का शुमारंभ किया, जिसे साहित्येतिहास कभी भूल नहीं सकता। यह उस समय का एक उच्चकोटि का साहित्यिक पाक्षिक पत्र था। वे ‘मतवाला मंडल’ से कहने को तो अलग हो गए, पर इनका संबंध किसी न किसी रूप में बना रहा। इस संबंध में उनके गुरु पं. ईश्वरी प्रसाद शर्मा ने दिनांक 20 जुलाई, 1925 को अपने एक पत्र में शिवपूजन सहाय को लिखा- ‘‘तुम उधर तो चुप ही रहे, एकदम वाणिक प्रेस को पट्टी ही लिख बैठे। जल्दबाजी तो करते ही हो, केवल पत्र लिखने में देर करते हो- वाणिक प्रेस में जाने के पहले एक बार मुझसे पूछ तो लेते न। तुमने ‘मंडल’ का नाम छोड़कर अच्छा किया मैं तुम्हारी प्रशंसा ही करूँगा। हाँ, तुम कहते हो कि ‘मतवाला’ में जाता ही नहीं, ‘लीडर’ तो तुम्हीं हरदम लिखते हो। कहोे तो मैं इसका पक्का प्रमाण दे दूँ।’ उपर्युक्त उद्धरण उनकी उदारता, महानता और योग्यता का एक सबल प्रमाण है। ‘मतवाला’ मण्डल के सदस्य होने के नाते जब उन्होंने प्रथमांक में अपना अग्रलेख ‘आत्मपरिचय’ लिखा और ‘मतवाला’ ने हिंदी जगत में अपना स्थान बना लिया तब से जबतक कलकत्ते में रहे, ‘अग्रलेख’ लिखने का काम बराबर करते रहे। ‘मतवाला’ के अंकों को देखने से यह स्पष्ट रूप से पता चल जाता है कि हास्य-व्यंग्यपूर्ण पत्र होते हुए भी शिवजी ‘मतवाला बहक, चलती चक्की, चंडुखाने की गप आदि शीर्षकों के अंतर्गत राजनीतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय विचारों पर सूझबूझपूर्ण टिप्पणियाँ लिखते रहे। उन दिनों ‘मतवाला’ की देखा-देखी ‘मोजी’ ‘गोलमोल’, ‘भूत रसगुल्ला’ आदि कई पत्रिकाएँ हिंदी में निकलीं, पर ‘मतवाला’ के स्तर पर कोई भी नहीं पहुँच सकी। हिंदी पत्रों में आज तक हास्य-व्यंग्य की जो धारा चली आ रही है, उसका श्रेय उनके कुशल संपादकीय लेखनी की ही देना चाहिए। इस प्रकार हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में शिष्ट हास्य व्यंग्य को प्रतिष्ठित करने के लिए शिवजी चिरस्मरणीय रहेंगे। हिंदी में बाल-साहित्य के प्रकाशन की योजना भी शिवजी के मेधावी मस्तिक से निकली थी। उन्होंने हिंदी-जगत् के सम्मुख ‘पुस्तक भंडार’ लहेरिया सराय के संचालक श्री रामलोचन शरण को हिंदी में ‘बालक’ नामक सचित्र मासिक पत्र निकालने की प्ररेणा दी थी। इसका प्रथम अंक शिवजी की ही देखरेख में वाणिक प्रेस, कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था। वे 1933 से 1939 तक ‘बालक’ के संपादक रहे। इस प्रकार बिहार में और समस्त हिंदी-जगत् में ‘बालक’ को प्रकाशित कर शिवजी ने एक बहुत बडे़ अभाव को दूर किया। इस मौलिक सूझबूझ का सारा श्रेय उन्हें ही प्राप्त है। ‘हिमालय’ (1945) के प्रथम अंक के प्रकाशित होते ही हिंदी-जगत पर इसकी धाक जम गई। प्रथम अंक में प्रकाशित रचनाओं को देखने से ही शिवजी को संपादन कला की बारीकियाँ समझ में आ जाती हैं कि सचमुच वे एक सधे हुए और कुशल संपादकाचार्य थे। ‘हिमालय’ का उद्देश्य हिंदी साहित्य में स्थायित्व और उच्चता, जीवन और यौवन, प्रवाह और प्रगति का प्रतिनिधित्व करना, छिछली राजनीति से ऊपर उठकर विचारों और भावनाओं का विशुद्ध वायुमंडल तैयार करना, वाद के विवाद में न पड़कर तत्व बोध की ओर ले चलना था और नई कलात्मक रचनाओं तथा विश्व साहित्य से हिंदी से पाठकों की परिचित कराना था, ये विचार स्वयं संपादक ने ‘हिमालय’ के प्रकाशन के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए प्रकट किए हैं। इन पावन उद्देश्यों की पूर्ति में शिवजी ने कुछ भी उठा न रखा। ‘हिमालय’ का प्रत्येक अंक इस दृष्टि से बड़े महत्त्व का है। हिंदी पत्रकारिता में ‘हिमालय’ का यह संपादकीय योगदान अविस्मरणीय है। ‘हिमालय’ शिवजी की संपादन-कला के विकास का वह शिखर है, जिस पर उनकी साहित्यिक विजय पताका बड़ी शान से फहराती दिखाई देती है। शिवजी हिंदी-जगत् में संपादकाचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से आरंभ होने वाली साहित्यिक पत्रकारिता के एक जाने माने आचार्यत्व की अंतिम कड़ी थे। उन्होंने 40 वर्षों तक एक श्रमशील संपादक के रूप में हिंदी की सेवा करके अपनी अनवरत साधना से हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को सुव्यवस्थित रूप में संवारा था और विभिन्न पत्रों का संपादन करके साहित्यिक और राष्ट्रीय पत्रकारिता का ज्वलन्त उदाहरण हिंदी जगत के सामने प्रस्तुत किया था। ‘मारवाड़ी सुधार’ से लेकर ‘हिमालय’ और ‘साहित्य’ के प्रत्येक अंक में उन्होंने हिंदी सेवियों के प्रति जो श्रद्धांजलि और संस्मरण लिखे हैं, वे हिंदी-साहित्यिक के इतिहास में आज भी ऐतिहासिक सूत्र का काम कर रहे हैं। इन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता के स्तर को उन्नत करने में अपनी संपादन-कला, भाषा-परिमार्जन, व्याकरण शुद्ध प्रयोग एवं जनता के रूचि परिष्कार करने में मुहावरेदार शैली तथा आंचलिकता, सभी का समावेश करके जो योगदान दिया है, वह युगों तक चिरस्मरणीय रहेगा। द्विवेदीजी की ही तरह उन्होंने असंख्य लेखकों के साहित्यिक जीवन के निर्माण में जीवन भर प्रेरणा दी। यही कारण है कि वे जहाँ-कहीं भी रहे, सभी के सम्मान भाजन रहे। शिवजी ने संपादन-कला में अपनी विशिष्टता की झलक और सिद्धांत की टेक रखकर भी साहित्य के संबंध में वादों से ऊपर उठकर साहित्य में रस और संस्कार ढूंढ़ने की परंपरा चलाई। वे एक ओर तो साहित्यिकों की स्वतंत्रता का आदर करते थे तो दूसरी ओर अपने स्वीकृत सिद्धांतों से टस-से-मस नहीं होते थे। वास्तव में, शिवजी ने द्विवेदी जी के बाद, उन्हीं के स्तर पर और उन्हीं के समान निष्ठावान् संपादक का कर्तव्य निभाकर हिंदी-जगत में एक आदर्श मानदंड रखा है। आजकल प्रायः कहा जाता है कि कृतिकार को साहित्य से अपना व्यक्तित्व अलग रखना चाहिए। आचार्य शिवजी इस मत के पक्षधर नहीं थे, क्योंकि वे साहित्य लिखते ही नहीं थे, जीते भी थे। वे पूरी तरह साहित्योपजीवी थे, साहित्य से जीते थे और साहित्य को जीते थे। शिवजी का उद्देश्य ही था कि जो कुछ भी लिखा जाय, वह दोष रहित हो और साहित्यक रचनाओं से उत्तम संस्कार अवचेतन में अवशिष्ट होते जाएँ। शिवजी अपने समकालीन जिन साहित्यकारों केे संपर्क में रहे, उनके प्रति उनमें गहरा ममत्व और आदर का भाव रखा और जब उनके विषय में वे लिखने बैठते तो वे सूक्ष्म से सूक्ष्म ब्योरे में जाकर घटना प्रसंगों का सजीव वर्णन करते थे। उनका यह उद्देश्य था कि जो कुछ भी लिखा जाय, वह पठनीय ही नहीं, अपितु ‘लोक मंगल की भावना’ से अनुप्राणित भी हो। शिवपूजन सहाय ने स्वाधीनता-संग्राम में साहित्यिक पत्रकारिता द्वारा निर्भीक संपादक की तरह योगदान दिया। ‘मतवाला’ में ‘चलती चक्की’, ‘घी का लड्डू टेढ़ा भला’, ‘मतवाले की बहक’ आदि रोचक शीर्षकों के अंतर्गत एवं अपनी संपादकीय टिप्पणियों के द्वारा कड़वी मीठी-चुटीली भाषा मंे साहित्य, साहित्यकार, शासन आदि की जो आलोचनाएँ की हैं, वे आज भी एक साहित्यिक पत्र के संपादक के लिये प्रेरणा देने वाली हैं। स्वाधीनता के बाद जो देश की दशा है और समाज में भंयकर असंतोष है, उस पर आज के संपादक शिवजी की शैली में लिखकर शासन के सूत्रधारों तक अपनी बात पहुँचा सकते हैं। ‘मतवाला’ के बाद शिवजी की साहित्यिक सूझबूझ का परिचय ‘जागरण’ में मिलता है। उसमें तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों और समीक्षाओं के अतिरिक्त हिंदी पत्र-पत्रिकाओं से ‘मधु संचय’ का स्तंभ भी था, जिसके अंतर्गत लेखकों को प्रेरणा देने के लिए उन्होंने एक नई परंपरा चलाई। हिंदी - भूषण बाबू शिवपूजन सहाय ( 1965) में लिखा है- उनकी विनम्रता एक कवच है जिससे साहित्य जगत के आंधी बवंडरों से वे अपनी रक्षा करते हैं। वे वर्षों तक दर दर भटककर यह सीख चुके थे कि वर्तमान समाज में सच बोलने से बढ़कर दूसरा पाप नहीं।...समाज के निहित स्वार्थी जन साहित्यकार को बाध्य करते हैं कि वह अपनी खैर चाहता हो तो सचाई के पीछे बहुत न पड़े। उन्होंने शरीर को गलाकर किस तरह परिश्रम किया था, यह उन्होंने अपने प्रकाशित साहित्य में नहीं लिखा। शिवपूजन सहाय ने कुल सत्तर वर्ष का जीवन जिया। ईएमएस/ 08 अगस्त 24