लेख
10-Aug-2024
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ऋग्वैदिक काल में आर्यों ने राजनीतिक एवं प्रशासनिक इकाइयों की नींव डाल दी थी। कबीले अब ‘“जनों”” के रूप में संगठित होने लगे थे । ऋग्वैदिक काल में राजनीतिक दृष्टि से पांच इकाइयां प्रचलित थीं- ‘गृह’, ‘ग्राम’, ‘विश’, ‘जन’, और ‘राष्ट्र’। इनमें से ‘गृह’ सबसे छोटी इकाई थी और ‘राष्ट्र’ सबसे बड़ी । गृह का तात्पर्य ‘कुल’ या ‘परिवार’ से था । इसमें एक घर में, एक छत के नीचे, रहने वाले सभी लोग शामिल थे। यह सामाजिक व्यवस्था के साथ-साथ राजनीतिक व्यवस्था की भी सबसे छोटी इकाई थी। इसके मुखिया को ‘कुलप’ या ‘गृहपति’ कहते थे। ‘कुलप’ या ‘गृहपति का पद वंशानुगत था। आमतौर पर पितृसत्तात्मक परिवार में पिता की प्रधानता होती थी, किन्तु माताओं को भी पर्याप्त अधिकार प्राप्त होते थे। अनेक कुलों के समूहों को मिलाकर ‘ग्राम‘ नामक इकाई का निर्माण होता था। ग्राम का प्रधान ‘ग्रामणी’ कहलाता था । इसकी नियुक्ति के संबंध में पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती। अनेक ग्रामों को मिलाकर ‘विश’ का निर्माण किया जाता था। ‘विश’ का प्रधान ‘विशपति’ कहलाता था । अनेक विशों का समूह ‘जन’ कहलाता था। ऋग्वेद में यादव जन, भरत जन आदि पंच जन का उल्लेख है । एक सम्पूर्ण राज्य के लिए ‘राष्ट्र’ शब्द प्रयुक्त होता था। ऋग्वेद में राष्ट्र के पर्यायवाची के रूप में ‘गण’ का भी उल्लेख है। राजा का पद सामान्यतः आनुवंशिक होता था, लेकिन कहीं-कहीं चुने गए राजा का उल्लेख भी मिलता है। हमें ऐसे गण-प्रमुखों का भी उल्लेख मिलता है जो जन सभा द्वारा लोकतंत्रात्मक पद्धति से चुने गए थे। राष्ट्र आमतौर पर छोटे-छोटे राज्य होते थे, जिनका शासक राजन् (राजा) कहलाता था । लेकिन सम्राट शब्द के प्रयोग से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कुछ राजा अधिक बड़े होते होंगे । संभवतः उनके अधीन कई छोट-छोटे राज्य होते थे और उनका प्रभुत्व अन्य राजाओं की तुलना में अधिक होता था। ऋग्वैदिक काल में राजा नियमित सेना नहीं रखता था। युद्ध के अवसर पर सेनायें विभिन्न कबीलों से एकत्र कर ली जाती थी। राजा, पुरोहित तथा अन्य पदाधिकारियों की सहायता से प्रशासन चलाता था। राजा को उसकी सेवाओं के बदले राजस्व या भेंट दी जाती थी जिसे बलि कहते थे । ऋग्वेद में प्रमुख रूप से दो निकायों को अधिक महत्त्व दिया गया है, जिन्हें सभा और समिति कहा जाता था। इनकी संरचना के विषय में निश्चित रूप से कोई जानकारी नहीं मिलती तथापि इतिहासकार मानते हैं कि समिति के सदस्य आम लोग होते थे, जबकि सभा के सदस्य कुछ चुने हुए वृद्ध अथवा कुलीन जन होते थे । इन दो निकायों के माध्यम से राष्ट्र के महत्त्वपूर्ण मामलों में जनता की राय ली जाती थी । लेकिन उत्तर वैदिक काल आते-आते राजनीतिक संस्थाओं में कई परिवर्तन देखने को मिले | राजा का पद अब वंशानुगत हो गया | अब राजा “सर्व भूमि- पति” , “सम्राट”, “एकराट”, “चक्रवर्ती” इत्यादि जैसे बड़ी बड़ी उपाधियां भी धारण करने लगे | अब बली के अतिरिक्त शुल्क और भाग भी कर के रूप में वसूले जाने लगे | बलि देना अनिवार्य कर दिया गया | अथर्व वेद के अनुसार आय का 16वां भाग कर के रूप में लिया जाता था | उत्तर वैदिक काल में पुरोहित, सेनानी एवं ग्रामिणी के अलावा संग्रहितृ (कोषाध्यक्ष), भागदुध (कर संग्रह करने वाला), सूत (राजकीय चारण, कवि या रथ वाहक), क्षतु, अक्षवाप (जुए का निरीक्षक) गोविकर्तन (आखेट में राजा का साथी) पालागल जैसे पदाधिकारियों का उल्लेख प्राप्त होता है | “सचिव” नामक उपाधि का उल्लेख भी प्राप्त है | .../ 10 अगस्त /2024