जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को जड़ से खत्म करने के लिए केंद्र सरकार ने जो भी निर्णय लिए और जो भी कार्रवाई की उसका देश की जनता ने भरपूर साथ दिया। फिर चाहे वह अचानक नोटबंदी का कड़ा फैसला रहा हो या धारा 370 हटाने का सख्त कदम रहा हो। मुल्क के असली मालिकों ने इसे इसलिए सहर्ष स्वीकार कर लिया कि अब जम्मू-कश्मीर समेत देश में आतंकवादी घटनाएं सिरे से खत्म हो जाएंगी और सुख-शांति का पैगाम लिए देश के साथ ही जम्मू-कश्मीर भी तरक्की के रास्ते पर सरपट दौड़ सकेगा। पर अफसोस कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। इन हमलों में आमजन के साथ ही देश के जवान भी शहीद हो रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं का बढ़ना न केवल क्षेत्र की सुरक्षा स्थिति को चिंताजनक बनाता है, बल्कि इससे राजनीतिक स्थिरता पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं। हाल के दिनों में बडगाम, बांदीपुरा और श्रीनगर में आतंकवादियों द्वारा की गईं फायरिंग की घटनाओं ने पुनः इस ओर सोचने पर मजबूर किया है कि आतंकवादियों के खिलाफ चल रहे अभियानों में कहीं कोई बड़ी चूक तो नहीं हुई है। मौजूदा वक्त में जबकि भारत के पड़ोस समेत अनेक देश जंग के मैदान में उतरे हुए हैं, तब हमारे देश की सुरक्षा एजेंसियों के लिए भी कई चुनौतियां उभरी हैं। ऐसे में इस मामले को महज जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है। आतंकवाद की घटनाओं की पुनरावृत्ति होना वाकई एक गहरी चिंता का विषय है। ऐसा नहीं है कि हमारे देश की सुरक्षा व गुप्तचर एजेंसियां फेल हुई हैं, बल्कि आतंकवाद को माकूल जवाब देने का सिलसिला भी जारी है। अनेक घुसपैठ और हमलों को नाकाम भी किया गया है। बावजूद इसके जिस तरह से आतंकवादियों के हौसले बुलंद होते दिख रहे हैं, वह वाकई चिंता का विषय है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जवानों का हौसला बढ़ाने के लिए उनके बीच दीपावली पर्व मनाने पहुंचे, रक्षा मंत्री भी लगातार हौसला अफजाई करते देखे जाते हैं। ऐसे में आतंकवाद को तो जड़ से खत्म हो ही जाना चाहिए। वहीं दूसरी तरफ जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं के बढ़ने को लेकर नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला ने जो कहा वह भी विचारणीय है। दरअसल फारुक अब्दुल्ला इन घटनाओं को एक संभावित साजिश के तौर पर देखते हैं। उनका कहना है कि इन आतंकी घटनाओं से यह संकेत मिलता है कि हमले केवल आतंकवादियों की गतिविधियां नहीं, बल्कि क्षेत्र की राजनीतिक स्थिरता को अस्थिर करने का प्रयास भी हो सकता है। अब चूंकि एक दशक के लंबे अंतराल के बाद जम्मू-कश्मीर में चुनाव हुए हैं और सरकार बनी है तो उसे अस्थिर करने पर भी चिंता जाहिर करना तो बनता ही है। दरअसल फारुक अब्दुल्ला ने यह सवाल उठाया है कि अचानक से हमलों का बढ़ जाना किस कारणवश है। पहले जहां स्थिति नियंत्रण में थी, अब वही क्षेत्र आतंकवादियों के निशाने पर कैसे और क्यूंकर आ रहा है? यह बात महत्वपूर्ण है कि इस असामान्य स्थिति के पीछे क्या कारण हो सकते हैं। क्या ये हमले किसी साजिश का हिस्सा हैं? क्या इसके पीछे राजनीतिक दलों के बीच का द्वंद्व है? ऐसे प्रश्नों का उत्तर खोजना आवश्यक हो गया है। फारूक अब्दुल्ला के इस बयान से भी सहमति जताई जा सकती है कि हमलावरों को पकड़ना चाहिए ताकि यह मालूम चले कि इनके पीछे कौन है। यह सही है कि सिर्फ आतंकवादियों को मारना ही समाधान नहीं है; बल्कि उनकी पहचान और उनके नेटवर्क को भी तोड़ना जरूरी है। यहां यह समझने की जरुरत भी है कि जम्मू-कश्मीर की स्थिति के लिए आतंकवाद ही नहीं, बल्कि राजनीतिक अस्थिरता और कूटनीतिक खेलों में भी छिपी हो सकती हैं। यह घिनौना खेल आतंकवाद को प्रश्रय देने से भी गुरेज नहीं कर सकता है, जिसकी पहचान होना भी जरुरी हो गया है। यहां सवाल यह भी उठता है कि इस बहाने राजनीतिक विरोधियों को निपटाने का खेल तो नहीं खेला जा रहा है? गैर-कश्मीरियों पर हुए हमले भी यही दर्शाते हैं कि आतंकवादी तत्व क्षेत्र में डर और दहशत का माहौल बनाना चाहते हैं। यह न केवल स्थानीय निवासियों के लिए चिंता का विषय है, बल्कि देश के विभिन्न हिस्सों से यहां काम करने या बसने के लिए आने वालों के लिए भी चिंता का विषय है। इस स्थिति से विकास कार्यों और निवेश पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसलिए जम्मू-कश्मीर में बढ़ते आतंकवादी हमलों को केवल सुरक्षा दृष्टिकोण से नहीं देखना चाहिए, बल्कि इसे एक व्यापक राजनीतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में समझना जरूरी है। यह समय है कि सभी संबंधित पक्ष एकजुट होकर इस गंभीर होती समस्या का समाधान खोजें, अन्यथा आतंकवाद केवल एक अस्थायी समस्या नहीं रहेगी, बल्कि यह लंबे समय तक क्षेत्र की स्थिरता को प्रभावित करती रहेगी। सुरक्षा बलों, राजनीतिक दलों और समाज के सभी वर्गों को मिलकर काम करने की आवश्यकता है ताकि जम्मू-कश्मीर में शांति और स्थिरता की पुनर्स्थापना हो सके। .../ 2 नवम्बर/2024