जब वे अभूतपूर्व बहुमत के साथ सत्ता में थे और अब जब वे सत्ता की कुर्सी से बेइज्जत होकर बाहर निकल गए हैं, तब भी अरविंद केजरीवाल भारतीय राजनीति का एक अनसुलझा रहस्य बने हुए हैं। वे सत्ता की राजनीति की दुनिया में एक असामान्य रास्ते से आए थे। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के रूप में काम करते हुए, वे सूचना के अधिकार आंदोलन से जुड़े और फिर अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जुड़ गए। वहां से वे चुनावी राजनीति में आए और अप्रत्याशित सफलता प्राप्त कर देश के शीर्ष नेताओं में से एक बन गए। यह सब इतनी जल्दी हुआ कि कोई भी समझ नहीं पाया कि राजनीति में उनका अभूतपूर्व विकास कैसे और किन कारणों से हुआ। राजनीति में उनके तेजी से बढ़ते कद पर एक नजर डालना उचित होगा। वर्ष 2011 में अरविंद केजरीवाल की पहल पर अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व करने दिल्ली आए थे। इस आंदोलन का मुख्य निशाना सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी थी और इसलिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने भी इस आंदोलन में रुचि लेना शुरू कर दिया। जिस दिन अन्ना लोकपाल विधेयक की मांग को लेकर अनशन पर बैठने वाले थे, उसी दिन डॉ मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार ने अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार कर लिया और यह केजरीवाल के राजनीतिक करियर का एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। आंदोलन की सफलता के बाद केजरीवाल ने राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला किया। हालांकि अन्ना हजारे राजनीति में नहीं आना चाहते थे। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का समर्थन करने वाली भाजपा भी आम आदमी पार्टी (आप) के गठन के खिलाफ थी. लेकिन केजरीवाल और उनके साथियों ने पार्टी बनाने का फैसला किया। आम आदमी पार्टी ने राजनीति में पारदर्शिता लाने का वादा किया। पार्टी ने कहा कि उसे मिलने वाला हर दान चेक के जरिए ही स्वीकार किया जाएगा और हर दानकर्ता का नाम वेबसाइट पर सार्वजनिक रूप से दिखाया जाएगा। पार्टी ने यह भी घोषणा की कि चुनाव लड़ने के लिए टिकट सिर्फ उन्हीं उम्मीदवारों को दिए जाएँगे जिन्हें जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों का समर्थन प्राप्त होगा। इसके अलावा पार्टी ने वीआईपी संस्कृति को छोड़ने का वादा करते हुए कहा कि उसके नेता सादा जीवन जिएँगे। बाद में पार्टी अपने सभी वादों से मुकर गई। सत्ता में आने से पहले केजरीवाल को दलीय राजनीति का कोई अनुभव नहीं था, लेकिन यह मानना होगा कि उनमें राजनीति की बारीकियों को समझने की बुद्धि थी। वे उस स्थिति का अच्छी तरह आकलन कर पाए थे जिसमें मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की कांग्रेस जनसमर्थन के अभाव में कमजोर हो गई थी और मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी राजनीति में उस शून्य को भरने की तेजी से कोशिश कर रही थी। राजनीति में खाली मैदान को समझने की इसी क्षमता के कारण केजरीवाल पंजाब चुनाव में अपनी पार्टी को अभूतपूर्व जीत दिलाने में सफल रहे। गुजरात और हरियाणा में, जहां भाजपा और कांग्रेस की मजबूत पकड़ थी, वे बिलकुल भी सफल नहीं हुए। केजरीवाल यह भी जानते हैं कि भारतीय राजनीति में आपको हमेशा नैतिकता और मूल्यों की बात करनी चाहिए। उनकी नैतिकता और ईमानदारी अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं की तरह ही संदेह के घेरे में है, लेकिन मतदाताओं के मन में अपनी अच्छी छवि बनाकर वे चुनावी सफलता की सीढ़ियां चढ़ते रहे हैं। राजनीति में तेजी से बढ़ते कद के कारण जहां केजरीवाल खुद महत्वाकांक्षा का शिकार हो गए, वहीं दूसरी ओर उनके राजनीतिक विरोधी भी उनके खिलाफ लामबंद हो गए। 2014 और 2019 में लोकसभा चुनाव जीतने के बाद 2015 और 2020 में दिल्ली विधानसभा चुनाव हारने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा नेतृत्व को गहरा सदमा लगा। इससे प्रधानमंत्री मोदी और केजरीवाल के बीच अहंकार का टकराव हुआ और भाजपा के लिए केजरीवाल और आम आदमी पार्टी राहुल गांधी और कांग्रेस से भी बड़े दुश्मन बन गए। अक्सर कहा जाता है कि केजरीवाल दिल से हिंदुत्ववादी हैं और उन्हें आरएसएस का गुप्त समर्थन प्राप्त है। ऐसा कहने वालों का मानना है कि केजरीवाल भगवा ब्रिगेड से नहीं बल्कि मोदी से विरोध करते हैं और उनके असली राजनीतिक दुश्मन कांग्रेस और वामपंथी झुकाव वाली दूसरी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियां है। अगर हम हाल ही में हुए गुजरात और हरियाणा विधानसभा चुनावों और पिछले साल हुए दिल्ली लोकसभा चुनावों को देखें तो यह बात काफी हद तक सच लगती है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि दिल्ली चुनावों में कांग्रेस ने केजरीवाल को उसी के अंदाज में जवाब देने का फैसला किया। अति महत्वाकांक्षा के अलावा केजरीवाल की दो और समस्याएं है। वह विचारधारा विहीन राजनीति कर रहे हैं और उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है कि ऐसी राजनीति लंबे समय तक नहीं चल सकती। अगर उन्हें लगता है कि हिंदुत्व के प्रति उनका झुकाव आम आदमी पार्टी को भाजपा के बजाय आरएसएस के करीब ले आएगा तो यह उनकी भूल है। उनकी दूसरी समस्या यह है कि खुद को आम आदमी पार्टी का नेता और दिल्ली की गरीब जनता का बेटा कहने के बावजूद उनकी मानसिकता सामंतवादी है. जो हमारी नौकरशाही की एक सामान्य विशेषता है। इसी कारण से उन सभी लोगों को पार्टी से निकाल दिया गया, जिनका व्यक्तित्व उनसे बड़ा था और जिनमें सामाजिक भावनाएं थीं। अगर वे सभी लोग आम आदमी पार्टी में होते, तो आम आदमी पार्टी एक अच्छी और शक्तिशाली पार्टी के रूप में भाजपा और कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती बन सकती थी। लेकिन असुरक्षा की भावना के कारण खुद को शीर्ष पर बनाए रखने की प्रवृत्ति के कारण केजरीवाल ने इस संभावना को समाप्त कर दिया। वह भूल गए कि भारतीय राजनीति में ऊपर उठने का असली रास्ता त्याग है, पद पाना नहीं। आखिर में सवाल यह उठता है कि क्या कोई राजनीतिक दत सिर्फ भ्रष्टाचार विरोधी एजेंडे के सहारे जिंदा रह सकता है? आम आदमी पार्टी का सफर बताता है कि सिर्फ लोकलुभावन नारों और जनाक्रोश की लहर पर सवार होकर बदलाव लाना संभव नहीं है। आज अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी देश की राजनीति के चौराहे पर खड़ी है। भविष्य ही बताएगा कि वे कहां जाएंगे और कहां तक पहुंचेंगे। (लेखक न्यूज वेबसाइट के संपादक हैं।) (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 15 फरवरी /2025