लेख
30-Apr-2025
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सोचिए, सुबह की पहली किरण नहीं, बल्कि मोबाइल की स्क्रीन आपकी नींद खोलती है। दिन भर की चहल-पहल नहीं, बल्कि नोटिफिकेशन की गूंज आपके दिल की धड़कनों को दिशा देती है। अब तो रिश्तों की ऊष्मा भी स्क्रीन की रोशनी में घुलती जा रही है। हम इंसान, जो कभी संवाद में जिया करते थे, अब सिग्नल में सांस लेते हैं। हाल ही में ज़ी-5 पर रिलीज़ हुई फिल्म लॉगआउट ने न सिर्फ इस भयानक आदत की ओर इशारा किया है, बल्कि सीधे-सीधे गाल पर एक करारा तमाचा जड़ा है, जो अब तक स्मार्टफोन को अपना सबसे अच्छा दोस्त मान बैठे थे। फिल्म खत्म होने के बाद सिनेमा हॉल में चुप बैठे रहे शायद वे अपने ही अंदर किसी खामोश चीख को सुन रहे थे। वर्तमान समय में एक औसत भारतीय दिन के 7 घंटे से अधिक मोबाइल स्क्रीन पर बिताता है। अगर इसमें लैपटॉप, टीवी और अन्य डिजिटल उपकरण जोड़ दें, तो आंकड़ा 10 घंटे के पार जा पहुंचता है। यानी एक व्यक्ति अपनी ज़िंदगी का लगभग आधा हिस्सा वर्चुअल दुनिया में गवां देता है। ये वही समय है, जब वह अपने बच्चे को कहानी सुना सकता था, माँ का हालचाल पूछ सकता था या खुद से कोई पुरानी किताब निकालकर मन के कोनों को साफ कर सकता था। मोबाइल की लत को हम ‘स्मार्ट’ होने का प्रतीक मान बैठे हैं। अजीब विडंबना है, जिस यंत्र ने हमें पूरी दुनिया की जानकारी देने का वादा किया था, उसने हमें अपनों से ही बेखबर कर दिया है। अब खाना खाते समय रोटी से ज़्यादा रील जरूरी हो गई है। बच्चों की पहली चाल की तस्वीर भी अब कैमरे के लिए होती है, यादों के लिए नहीं। अध्ययन बताते हैं कि स्क्रीन पर ज्यादा समय बिताने से ना सिर्फ नींद कम होती है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा असर पड़ता है। डिजिटल डिप्रेशन, सोशल मीडिया एंग्जायटी, और फोमो आज फीयर ऑफ मिसिंग आउट जैसे नए विकारों ने शहरी युवाओं के मन-मस्तिष्क पर हमला बोल दिया है। इंसान अब अकेले नहीं रह सकता, क्योंकि उसे हमेशा ‘ऑनलाइन’ रहना है। एक क्लिक से दुनिया बदलने की शक्ति रखने वाला आज खुद एक क्लिक का गुलाम बन चुका है। यहाँ यह भी समझना दिलचस्प होगा कि सोशल मीडिया कंपनियां जानबूझकर इन प्लेटफॉर्म्स को डोपामिन ट्रिगर के अनुसार डिजाइन करती हैं। आपको एक नोटिफिकेशन मिलेगा, दिमाग खुश होगा, और आप फिर बार-बार उसी प्रतिक्रिया की तलाश में वहां लौटेंगे। यह कोई संयोग नहीं है कि फेसबुक, इंस्टाग्राम, टिकटॉक जैसी कंपनियां आपको ‘स्क्रॉलिंग के नशे’ में बांधने के लिए मनोवैज्ञानिक तकनीकों का इस्तेमाल करती हैं। मगर दोष सिर्फ तकनीक का नहीं, हम खुद भी तैयार बैठे हैं अपने समय, ध्यान और जीवन को दांव पर लगाने के लिए। डिजिटल डिटॉक्स की बात करने वाले लोग भी एक तस्वीर अपलोड करने के बाद 50 बार चेक करते हैं कि कितने लाइक आए। आत्ममुग्धता और दिखावे की इस दौड़ में हम न सिर्फ खुद को खो चुके हैं, बल्कि अगली पीढ़ी को भी डिजिटल नशा की लत लगा चुके हैं। ‘लॉगआउट’ जैसी फिल्में हमें सिर्फ एक कहानी नहीं दिखातीं, वे हमें आईना दिखाती हैं, वो आईना जिसमें हमारा चेहरा नहीं, बल्कि एक झुकी हुई गर्दन, थकी आंखें, और हमेशा व्यस्त रहने का भ्रम दिखाई देता है। ऐसे में अब समय है सवाल पूछने का, वह भी अपने आपसे कि क्या हम अब भी सोचेंगे कि स्क्रीन टाइम एक निजी पसंद है, या इसे एक सामाजिक खतरे के रूप में देखेंगे? क्या हम अब भी मोबाइल को बच्चे का खिलौना समझकर उसकी जड़ों में स्क्रीन का ज़हर घोलते रहेंगे? क्या हम ‘कनेक्टेड’ रहकर भी खुद से ‘डिसकनेक्टेड’ ही बने रहेंगे? समय की मांग है कि हम लॉगआउट की पुकार को सिर्फ एक फिल्म का संदेश न समझें, बल्कि इसे जीवन में बदलाव लाने का एक अवसर मानें। क्योंकि अगर अब भी हम नहीं जागे, तो वो दिन दूर नहीं जब इंसान की पहचान सिर्फ एक यूजरनेम तक सीमित रह जाएगी और तब हम सभी को पूछना पड़ेगा क्या हमने तकनीक को अपनाया था, या तकनीक ने हमें निगल लिया? इसीलिए शायद यही सही समय है... लॉगआउट करने का। ईएमएस / 30 अप्रैल 25